
बहुत प्राचीन काल की बात है, जब पृथ्वी आज की तरह शांत, स्थिर और व्यवस्थित नहीं थी। उस समय के सभी पर्वत जीवित प्राणियों जैसे थे—विशाल, विराट और पंखों वाले पर्वत, जो अपनी इच्छा से आकाश में उड़ते थे। वे बादलों को चीरते हुए जहाँ चाहें वहाँ जा उतरते थे। यह दृश्य जितना अद्भुत था, उतना ही भयावह भी।
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उड़ते पर्वतों का आतंक — जब धरती काँप उठती थी
भयानक गर्जना और कंपन
जब कोई पर्वत उड़ान भरता था, उसकी पंखों की फड़फड़ाहट से ऐसा गूँज उठता था जैसे आकाश फट रहा हो।
धरती कांप जाती, नदी-नाले हिलते, और हवा में अचानक तूफ़ान जैसा कंपन भर जाता।
जंगलों का विनाश
पर्वत की तेज़ उड़ान से पेड़ जड़ों से उखड़ जाते, छोटे पौधे हवा में बिखर जाते, और पूरा वन थर्रा उठता।
कई पशु-पक्षी इस अफरा-तफरी में कुचले जाते या उड़ते पर्वत के नीचे दब जाते।
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गुफाओं का जलजला
गुफाओं में रहने वाले असंख्य जीव—भालू, बकरियाँ, पक्षी, और दुर्लभ प्राणी—अचानक हिलती हुई कंदरा में घबराकर इधर-उधर भागते, कई टकराकर मर जाते।
तपस्वियों और साधु-संतों की वर्षों की तपस्या एक ही क्षण में टूट जाती; उनका हवन-विधान बिखर जाता।
गाँवों का विनाश
जब पर्वत उतरते थे, तो उन्हें नीचे रहने वाले लोगों की कोई परवाह नहीं होती थी।
कई बार पूरे-के-पूरे गाँव, फसलें, पशु और मनुष्य उनकी चपेट में आ जाते और समाप्त हो जाते।
पृथ्वी भय, चीख और विनाश से भर उठती थी।
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देवताओं की सभा — समाधान की आवश्यकता
जब यह अव्यवस्था चरम पर पहुँची, तब ऋषि-मुनि, देवता और मनुष्य—सब इंद्र देव की शरण में गए।
सबने विनती की कि—
“हे देवराज, यदि इन उड़ते पर्वतों को नियंत्रित न किया गया, तो पृथ्वी पर जीवन संभव नहीं रहेगा।”
इंद्र ने पर्वतों को आदेश दिया कि वे मर्यादा में रहें, पर पर्वतों ने अभिमान में कहा—
“हम शक्तिशाली हैं! हमें कोई नहीं रोक सकता!”
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इंद्र का क्रोध — वज्र का प्रचंड प्रहार

यह सुनकर इंद्र ने अपना दिव्य अस्त्र वज्र उठाया।
आकाश बिजली की तरह चमक उठा।
बादलों से गर्जना हुई और वज्र की अग्नि से पर्वतों के पंख एक-एक करके कटने लगे।
पर्वत चीख जैसी गर्जना करके गिरते गए और जहाँ गिरे, वहीं सदा के लिए स्थिर हो गए।
धरती पर पहली बार शांति आने लगी।
मैनाक पर्वत — एकमात्र पर्वत जिसने पंख बचाए
जब इंद्र पर्वतों के पंख काट रहे थे, तब मैनाक पर्वत ने संकट भाँपकर समुद्र की ओर दौड़ लगाई।
उसने वायुदेव (पवनदेव) को पुकारा।
पवनदेव ने तुरंत अपने वायु-बल से मैनाक को समुद्र की गहराइयों में छिपा दिया।
इस तरह मैनाक पर्वत के पंख सुरक्षित रह गए।
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हनुमान जी और मैनाक की भेंट — कृतज्ञता का प्रसंग
जब हनुमान जी संजीवनी की खोज में समुद्र पार कर रहे थे, मैनाक पर्वत समुद्र से ऊपर उठा और बोला—
“हे वायुपुत्र! आपके पिता ने मेरी रक्षा की थी। मैं आपको विश्राम देना चाहता हूँ।”
हनुमान जी ने प्रेम से स्पर्श कर आशीर्वाद दिया, पर रुके नहीं।
उन्होंने कहा— “मैं रामकाज पर हूँ, रुक नहीं सकता।”
इस कथा का सार
- प्रकृति का संतुलन आवश्यक है।
- अहंकार चाहे कितना भी बड़ा हो, टिक नहीं पाता।
- देवताओं द्वारा स्थापित नियम ही पृथ्वी को सुरक्षित रखते हैं।
- कृतज्ञता और उपकार का फल कभी व्यर्थ नहीं जाता।





















































