एकीभाव स्तोत्र की रचना 11वीं शताब्दी में आचार्य वादीराज ने की थी। ‘वादीराज’ उनके सम्मानजनक उपनाम के रूप में प्रयोग हुआ, यह उनका वास्तविक नाम नहीं था।
स्तोत्र का संदेश और भाव:
यह स्तोत्र हमें यह सिखाता है कि जब भक्त पूर्ण समर्पण और श्रद्धा से भगवान की शरण में जाता है, तो उसका मन, भाव और कर्म सभी भगवान के अनुरूप हो जाते हैं। इसे पढ़ने से जीवन के दुख और कर्मबाधाओं से मुक्ति मिलती है।
- एकात्म भाव: भक्त अपने हृदय और मन को भगवान के साथ एकभाव में स्थापित करता है।
- कर्मों का नाश: स्तोत्र का नियमित पाठ करने से पुराने कर्मों का प्रभाव कम होता है और नयी पवित्र ऊर्जा का संचार होता है।
- भवसागर से मुक्ति: संसार के दुखों और चिंता से छुटकारा मिलता है।
एकीभाव स्तोत्र (Ekibhav stotra)
एकीभावं गत इव मया य: स्वयं कर्मबन्धो
घोरं दु:खं भवभव-गतो दुर्निवार: करोति।
तस्याप्यस्य त्वयि जिनरवे! भक्तिरुन्मुक्तये चेत्
जेतुं शक्यो भवति न तया कोऽपरस्तापहेतु:॥1॥
ज्योतीरूपं दुरितनिवहध्वांतविध्वंसहेतुं
त्वामेवाहुर्जिनवर! चिरं तत्त्व – विद्याभियुक्ता:।
चेतोवासे भवसि च मम स्फारमुद्भासमानस्-
तस्मिन्नंह: कथमिव तमो वस्तुतो वस्तुमीष्टे॥2॥
आनन्दाश्रु – स्नपितवदनं गद्गदं चाभिजल्पन्
यश्चायेत त्वयि दृढमना: स्तोत्र – मन्त्रैर्भवन्तम्।
तस्याभ्यस्तादपि च सुचिरं देहवल्मीकमध्यान्
निष्कास्यन्ते विविध-विषम-व्याधय: काद्रवेया:॥3॥
प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेष्यता भव्यपुण्यात्
पृथ्वी-चक्रं कनकमयतां देव! निन्ये त्वयेदम्।
ध्यान-द्वारं मम रुचिकरं स्वान्त – गेहं प्रविष्टस्-
तत्किं चित्रं जिन! वपुरिदं यत्सुवर्णी-करोषि॥4॥
लोकस्यैकस्त्वमसि भगवन्! निर्निमित्तेन बन्धुस्-
त्वय्येवासौ सकल – विषया शक्ति-रप्रत्यनीका।
भक्तिस्फीतां चिरमधिवसन्मामिकां चित्त-शय्यां
मय्युत्पन्नं कथमिव तत: क्लेश-यूथं सहेथा:॥5॥
जन्माटव्यां कथमपि मया देव! दीर्घं भ्रमित्वा
प्राप्तैवेयं तव नय – कथा स्फार – पीयूष – वापी।
तस्या मध्ये हिमकर – हिम – व्यूह – शीते नितान्तं
निर्मग्नं मां न जहति कथं दु:ख-दावोपतापा:॥6॥
पाद-न्यासादपि च पुनतो यात्रया ते त्रिलोकीं
हेमाभासो भवति सुरभि: श्रीनिवासश्च पद्म:।
सर्वाङ्गेण स्पृशति भगवंस्त्वय्यशेषं मनो मे
श्रेय: किं तत्स्वयमहरहर्यन्न मामभ्युपैति॥7॥
पश्यन्तं त्वद्वचनममृतं भक्तिपात्र्या पिबन्तं
कर्मारण्यात् – पुरुष -मसमानन्द-धाम-प्रविष्टम्।
त्वां दुर्वार – स्मर-मद-हरं त्वत्प्रसादैक-भूमिं
क्रूराकारा: कथमिव रुजा कण्टका निर्लुठन्ति॥8॥
पाषाणात्मा तदितरसम: केवलं रत्न – मूर्ति-
र्मानस्तम्भो भवति च परस्तादृशो रत्नवर्ग:।
दृष्टि-प्राप्तो हरति स कथं मान-रोगं नराणां
प्रत्यासत्तिर्यदि न भवतस्तस्य तच्छक्ति-हेतु:॥9॥
हृद्य: प्राप्तो मरुदपि भवन् मूर्तिशैलोपवाही
सद्य: पुंसां निरवधि – रुजा – धूलि – बन्धं धुनोति।
ध्यानाहूतो हृदय – कमलं यस्य तु त्वं प्रविष्टस्-
तस्याशक्य: क इह भुवने देव! लोकोपकार:॥10॥
जानासि त्वं मम भव-भवे यच्च यादृक्च दु:खं
जातं यस्य स्मरणमपि मे शस्त्रवन्निष्पिनष्टि।
त्वं सर्वेश: सकृप इति च त्वामुपेतोऽस्मि भक्त्या
यत्कर्तव्यं तदिह विषये देव एव प्रमाणम्॥11॥
प्रापददैवं तव नुति – पदैर्जीवकेनोपदिष्टै:
पापाचारी मरणसमये सारमेयोऽपि सौख्यम्।
क: संदेहो यदुपलभते वासव – श्रीप्रभुत्वं
जल्पञ्जाप्यैर्मणिभिरमलैस्त्वन्नमस्कार-चक्रम्॥12॥
शुद्धे ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा
भक्तिर्नो चेदनवधि-सुखावञ्चिका कुञ्चिकेयम्।
शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्ति-कामस्य पुंसो-
मुक्तिद्वारं परिदृढ़-महामोह-मुद्रा-कवाटम्॥13॥
प्रच्छन्न: खल्वय-मघ-मयै – रन्धकारै: समन्तात्-
पन्था मुक्ते: स्थपुटित – पद: क्लेश-गर्तैरगाधै:।
तत्कस्तेन व्रजति सुखतो देव! तत्त्वावभासी
यद्यग्रेऽग्रे न भवति भवद् – भारतीरत्न-दीप:॥14॥
आत्म-ज्योति- र्निधि- रणवधि – द्र्रष्टुरानन्द-हेतु:
कर्म-क्षोणी-पटल-पिहितो योऽनवाप्य: परेषाम्।
हस्ते कुर्वन्त्यनतिचिरतस्तं भवद् भक्तिभाज:
स्तोत्रैर्बन्ध-प्रकृति-परुषोद्दाम-धात्री-खनित्रै:॥15॥
प्रत्युत्पन्ना नय – हिमगिरेरायता चामृताब्धे:
या देव त्वत्पद – कमलयो: सङ्गता भक्ति-गङ्गा।
चेतस्तस्यां मम रुचि – वशादाप्लुतं क्षालितांह:
कल्माषं यद् भवति किमियं देव! सन्देह-भूमि:॥16॥
प्रादुर्भूत – स्थिर – पद – सुखत्वामनुध्यायतो मे
त्वय्येवाहं स इति मतिरुत्पद्यते निर्विकल्पा।
मिथ्यैवेयं तदपि तनुते तृप्ति – मभ्रेषरूपां
दोषात्मानोऽप्यभिमतफलास्त्वत्प्रसादाद् भवन्ति॥17॥
मिथ्यावादं मल – मपनुदन् – सप्तभङ्गीतरङ्गैर्
वागम्भोधिर्भुवनमखिलं देव! पर्येति यस्ते।
तस्यावृत्तिं सपदि विबुधाश्चेतसैवाचलेन
व्यातन्वन्त: सुचिर-ममृता-सेवया तृप्नुवन्ति॥18॥
आहार्येभ्य: स्पृहयति परं य: स्वभावादहृद्य:
शस्त्र-ग्राही भवति सततं वैरिणा यश्च शक्य:।
सर्वाङ्गेषु त्वमसि सुभगस्त्वं न शक्य: परेषां
तत्किं भूषा-वसन-कुसुमै: किं च शस्त्रैरुदस्त्रै:॥19॥
इन्द्र: सेवां तव सुकुरुतां किं तया श्लाघनं ते
तस्यैवेयं भव-लय – करी श्लाघ्यतामातनोति।
त्वं निस्तारी जनन-जलधे: सिद्धिकान्तापतिस्त्वं
त्वं लोकानां प्रभुरिति तव श्लाघ्यते स्तोत्रमित्थम्॥20॥
वृत्तिर्वाचा – मपर – सदृशी न त्वमन्येन तुल्य:
स्तुत्युद्गारा: कथमिव ततस्त्वय्यमी न: क्रमन्ते।
मैवं भूवंस्तदपि भगवन्! भक्ति-पीयूष-पुष्टास्-
ते भव्यानामभिमत-फला: पारिजाता भवन्ति॥21॥
देव! स्तोतुं त्रिदिव-गणिका-मण्डली-गीत-कीर्तिं,
तोतूर्ति त्वां सकल-विषय-ज्ञान-मूर्तिंर्जनो य: ।
तस्य क्षेमं न पदमटतो जातु जोहूर्ति पन्था-
स्तत्त्वग्रन्थ-स्मरण-विषये नैष मोमूर्ति मत्र्य: ॥२३॥
चित्ते कुर्वन्निरवधि-सुख-ज्ञान-दृग्वीर्य-रूप,
देव! त्वां य: समय-नियमादाऽऽदरेण स्तवीति ।
श्रेयोमार्गं स खलु सुकृती तावता पूरयित्वा,
कल्याणानां भवति विषय: पञ्चधा पञ्चितानाम् ॥२४॥
भक्ति-प्रह्व-महेन्द्र-पूजित-पद! त्वत्कीर्तने न क्षमा:
सूक्ष्म-ज्ञान-दृशोऽपि संयमभृत: के हन्त मन्दा वयम् ।
अस्माभि: स्तवन-च्छलेन तु परस्त्वय्यादरस्तन्यते
स्वात्माधीन-सुखैषिणां स खलु न: कल्याण-कल्पद्रुम: ॥२५॥
वादिराजमनु शाब्दिक-लोको, वादिराजमनु तार्किक-सिंह:
वादिराजमनु काव्यकृतस्ते, वादिराजमनु भव्य-सहाय: ॥२६॥
एकीभाव स्तोत्र (हिंदी अर्थ सहित)
हे जिनराय! मेरे साथ सदा रहने वाला कर्मबंध जो जन्म-जन्मांतर में भयंकर दुःख देता है, यदि वह भी आपकी भक्ति से जीत लिया जा सकता है, तो फिर भक्ति से बढ़कर अन्य कौन-सा दुःखहर उपाय हो सकता है? (1)
हे जिनवर! ज्ञानी लोग आपको उस ज्योति रूप में देखते हैं जो सभी पापों के अंधकार को मिटा देती है। यदि आप मेरे हृदय में प्रकाशित हो चुके हैं, तो फिर अज्ञान और दुःख का अंधकार वहाँ कैसे ठहर सकता है? (2)
जो व्यक्ति आपकी भक्ति में डूबा हुआ गदगद वाणी से आपके स्तोत्रों का जप करता है, उसके शरीर में छिपे हुए सारे रोग और दुःख स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। (3)
हे देव! आपने अपने पुण्य से पृथ्वी को स्वर्णमयी बना दिया। यदि आप मेरे हृदय-गृह में प्रवेश करते हैं, तो मेरा मन भी स्वर्ण जैसा पवित्र और दिव्य क्यों न बन जाए! (4)
हे भगवन्! जब आप ही समस्त जगत के हितैषी और सच्चे बंधु हैं, तो जिस हृदय में आपकी भक्ति निवास करती है, उसमें दुःखों का समूह कैसे टिक सकता है? (5)
हे जिनदेव! मैंने अनेक जन्मों तक संसार में भटकने के बाद आपकी अमृतमयी नीति-कथा को पाया है। अब जब मैं उसके शीतल जल में डूब चुका हूँ, तो फिर दुःख की अग्नि मुझे कैसे जलाएगी? (6)
आपके चरणों की यात्रा से ही तीनों लोक पवित्र हो जाते हैं। जब मेरा मन सदा आपमें लगा है, तो मुझे परम कल्याण प्राप्त होने में क्या संदेह है? (7)
जो आपके अमृतमय वचनों को सुनता है और हृदय से ग्रहण करता है, वह संसार के दुःखों से मुक्त होकर आनंद के धाम में प्रवेश करता है — उसके जीवन में कोई दुःख स्थायी नहीं रह सकता। (8)
जिस प्रकार पत्थर और रत्न में अंतर होता है, उसी तरह साधारण व्यक्ति और आपकी भक्ति से युक्त व्यक्ति में भेद होता है। आपकी निकटता से मन का अहंकार-रोग नष्ट हो जाता है। (9)
आपका ध्यान करने से ही मनुष्य के हृदय का कमल खिल उठता है और उसकी पीड़ा मिट जाती है। ऐसा कौन है जो आपके ध्यान से लाभ नहीं पाता? (10)
हे सर्वज्ञ भगवान! आप मेरे प्रत्येक जन्म और दुःख को जानते हैं। मैं पूर्ण भक्ति के साथ आपकी शरण में आया हूँ; अब जो उचित है, वही आप करें — वही मेरा धर्म और कर्तव्य है। (11)
जिस व्यक्ति ने मृत्यु के समय आपके नाम का उच्चारण किया, उसे भी सौख्य प्राप्त हुआ। तो फिर जो सदा आपका जप और नमस्कार करता है, वह तो इंद्र की महिमा को भी प्राप्त कर सकता है। (12)
यदि आपके प्रति अटूट भक्ति न हो, तो ज्ञान और सदाचरण के बावजूद भी मोक्ष-द्वार बंद रहता है। आपकी भक्ति ही उस द्वार की कुंजी है। (13)
मोक्ष का मार्ग अंधकारमय और कठिन है। लेकिन यदि आपके वचनों का प्रकाश मार्गदर्शन करता है, तो वही मार्ग सुगम बन जाता है। (14)
आपके भक्त अपनी भक्ति और स्तोत्र-जप के द्वारा पापरूपी कठोर धरती को खोदते हैं और आत्मा के ज्ञान-रत्न को प्राप्त कर लेते हैं। (15)
हे देव! आपकी चरण-कमलों से प्रवाहित भक्ति-गंगा में जब मेरा चित्त स्नान करता है, तो मेरे सारे पाप धुल जाते हैं — इसमें कोई संदेह नहीं। (16)
आपके ध्यान में लीन होकर जब मन निष्कलंक आनंद अनुभव करता है, तब यह अनुभूति होती है कि ‘मैं और आप एक ही हैं।’ यह भाव ही समस्त दोषों को मिटाने वाला है। (17)
आपकी वाणी अमृत के समान है जो समस्त संसार में फैलती है। ज्ञानीजन उसके रस में तृप्त होकर अमरता का अनुभव करते हैं। (18)
जो स्वभाव से कठोर और दुष्ट हैं, वे भी आपके सान्निध्य से शुद्ध हो जाते हैं। तब अलंकरण या शस्त्रों से क्या प्रयोजन? आपकी भक्ति ही सर्वोत्तम आभूषण है। (19)
इंद्र आदि देवता भी आपकी सेवा करते हैं। परंतु वास्तविक गौरव तो आपका है, क्योंकि आप ही जन्म-मरण के सागर से पार लगाने वाले हैं। (20)
हे देव! कोई भी वाणी आपकी उपमा नहीं दे सकती। फिर भी जो आपकी भक्ति से प्रेरित होकर स्तुति करते हैं, वे पारिजात समान फल पाने वाले बन जाते हैं। (21)
हे देव! जो व्यक्ति आपको स्तुति करने का साहस करता है, वह भले ही सामान्य हो, किंतु आपकी कृपा से उसका मार्ग कल्याणमय बन जाता है। आपके स्मरण से कोई भी नष्ट नहीं होता। (23)
जो व्यक्ति नियमपूर्वक आपके नाम और स्वरूप का ध्यान करता है, वह पुण्य का मार्ग पूर्ण कर लेता है और पाँचों प्रकार के कल्याणों का अधिकारी बनता है। (24)
हम जैसे अज्ञानी भी यदि आपकी स्तुति करते हैं, तो वह भी एक बहाना है — जिससे हमारी भक्ति प्रकट होती है। यही भक्ति हमारे कल्याण का कल्पवृक्ष है। (25)
आचार्य वादीराज ही शब्दों के ज्ञाता, तर्क के सिंह, कवियों में श्रेष्ठ और भव्यात्माओं के सहायक हैं। उन्होंने इस स्तोत्र के द्वारा आत्मा को जिनभाव में लीन करने का मार्ग बताया। (26)
पाठ विधि और व्रत
- स्थान और समय:
- शांत और स्वच्छ स्थान पर बैठें।
- सुबह या संध्याकाल में पाठ करना शुभ माना जाता है।
- शुद्धि और तैयारी:
- पाठ से पहले स्नान करें और मन को शुद्ध करें।
- ध्यान करें कि सभी विचार केवल भगवान में लगे हों।
- पाठ की विधि:
- स्तोत्र को उच्चारण के साथ पढ़ें।
- प्रत्येक श्लोक के अर्थ पर मनन करें।
- अंत में मुख्य मंत्र का जप कम से कम 108 बार करें।
- व्रत:
- इस स्तोत्र के पाठ के साथ सात दिनों तक सरल आहार और संयमित जीवनशैली अपनाना लाभकारी होता है।
- सातवें दिन भगवान की आराधना कर विशेष भक्ति-अर्पण करें।
लाभ और प्रभाव
- कर्मबंधन से मुक्ति: पुराने और नकारात्मक कर्मों का प्रभाव कम होता है।
- मन की शांति: मानसिक तनाव और अशांति दूर होती है।
- आध्यात्मिक प्रगति: आत्मा की शुद्धि होती है और मोक्ष की ओर अग्रसर करता है।
- भक्ति का उन्नत अनुभव: भगवान के साथ एकत्व की अनुभूति होती है।
- संसारिक दुखों का नाश: भय, चिंता और दुखों से मुक्ति मिलती है।


























































