श्री गंगा महिमा स्तोत्र एक अत्यंत पावन और प्रभावशाली स्तोत्र है, जो गंगा माता की दिव्यता, महिमा और कृपा का विस्तृत गुणगान करता है। यह स्तोत्र न केवल एक भक्तिपूर्ण स्तुति है, बल्कि आत्मशुद्धि, पापों के प्रक्षालन, और मोक्ष की प्राप्ति का साधन भी है। इसे देवगिरि आचार्य द्वारा रचित माना गया है।
गंगा नदी भारतवर्ष की सबसे पवित्र नदियों में मानी जाती है। इसे “त्रिपथगा” कहा गया है क्योंकि यह स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल – तीनों लोकों से जुड़ी हुई है। श्रीराम के चरणों से बहकर शिव की जटाओं में स्थान पाने वाली यह दिव्य सरिता न केवल जलरूप में प्रवाहित होती है, बल्कि परब्रह्म का साकार रूप मानी जाती है।
इस स्तोत्र में 37 श्लोक हैं, जो गंगा माता की उत्पत्ति, उनका स्वरूप, उनके तटों की महिमा, उनके जल के गुण, भक्तों को प्राप्त होने वाले फल, और गंगा स्नान व भजन से मिलने वाले आध्यात्मिक लाभों का अत्यंत भावपूर्ण वर्णन करते हैं। इसमें यह भी बताया गया है कि गंगा माता स्वयं रामभक्तों की रक्षक हैं और उनके चरणों की भक्ति का माध्यम बनती हैं।
इस स्तोत्र का पाठ या श्रवण श्रद्धा के साथ करने से –
- सभी पाप नष्ट हो जाते हैं,
- जीवन में शांति, भक्ति और ज्ञान की वृद्धि होती है,
- और अंत में विष्णु के परमधाम की प्राप्ति होती है।
यह स्तोत्र भक्त को एकांत, शांत और भक्ति के वातावरण में गंगा माता के श्रीचरणों में समर्पित कर देता है। यह केवल शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि हृदय की पुकार और आत्मा की गहराई से उठी हुई स्तुति है।
जो भक्तजन इस स्तोत्र का नित्य पाठ करते हैं, उन्हें गंगा माता की कृपा सदैव प्राप्त रहती है।
महिम्नस्तेऽपारं सकलसुखसारं त्रिपथगे
प्रतर्त्तुं कूपारं जगति मतिमान् पारयति कः ।
तथापि त्वत्पादाम्बुजतरणिरज्ञोऽपि भवितुं
समीहे तद्विप्रुट्क्षपितभवपङ्कः सुरधुनि ॥ 1 ॥
समुद्भूता भूम्नश्चरणवनजातान्मधुरिपो-स्ततो
धातुः पात्रे गदितगुणगात्रे समुषिता ।
पुनः शम्भोश्चूडासितकुसुममालायिततनुः
सुरान्त्रीन्सत्कर्त्तुं किल जगति जागर्षि जननि ॥ 2 ॥
तवैश्वर्यं स्वर्योषिदमलशिरोगुच्छविगल
त्प्रसूनव्यालोलन्मधुकरसमुद्गीतचरिते ।
न चेशो भूतेशः पुनरथ न शेषो न च गुरुः
परिज्ञातुं वक्तुं जननि मम धृष्टा मुखरता ॥ 3 ॥
अनङ्गारेरङ्गे कृतरमणरङ्गे शुचितया
समाभग्नासङ्गे विहितभवभङ्गे तु भजताम् ।
विनश्यद्व्यासङ्गे प्रणतजनतायाः स्वपयसा
तरङ्गप्रोत्तुङ्गे ननु जगति गङ्गे विजयसे ॥ 4 ॥
हरन्ती सन्तापं त्रिविधमथ पापं जलजुषां
दिशन्ती सन्देशं क्षपितभवलेशं सुकृतिनाम् ।
तुदन्ती नैराश्यं कलुषमथ दास्यं प्रददती
विलोलत्कल्लोले विबुधवरवीथिर्विजयसे ॥ 5 ॥
ददाना वात्सल्यं शमितशमशल्यं स्वपयसा
दधाना तारुण्यं तरुणकरुणापूर्णहृदया ।
वसाना कौशेयं शशिनिभममेयं भगवति पुनाना
त्रैलोक्यं जयसि ननु भागीरथि शुभे ॥ 6 ॥
निराकारं केचित्प्रणिदधत आवर्जितधियो
नराकारं चान्ये प्रणतिरतिधन्ये स्वमनसि ।
त्रिभिस्तापैस्तप्ताः पुनरथ परं केचन वयं
सदा नीराकारं सुरनदि भजामस्तव पदम् ॥ 7 ॥
न जाने वागीशं नहि किल शचीशं न च गुहम्
न जाने गौरीशं नहि किल गणेशं नहि गुरुम् ।
न चैवान्यान्देवान् प्रियविविधसेवान् त्रिपथगे
सदा रामाभिन्नं ननु जननि जाने तव जलम् ॥ 8 ॥
पचत्कायक्लेशं विविधविधकर्मभ्रममलं
हरन्मायालेशं रविसुतनिदेशं विफलयन् ।
द्रुतं विघ्नद्विघ्नान् कुटिलकलिनिघ्नान् विकलय
न्महामोहं गङ्गे जयति भुवि ते जाह्नवि जलम् ॥ 9 ॥
उदन्वन्नैराश्यं दमयितुमथाविष्कृततनोर्
्मनोर्वंशं हंसार्पितविमलकीर्तिं प्रथयितुम् ।
सुधासारं सारस्वतहतविकारं श्रुतमयं तवापूर्वं
पूर्वं प्रणिगदति गङ्गे जलमलम् ॥ 10 ॥
किमेतत्सौन्दर्यं धृतवपुरथो बालशशिनः
किमाहो माधुर्यं जनकतनयाप्रेममहितम् ।
द्रुतब्रह्मीभूतं परममथ पूतं वसुमती
विराजत्पीयूषं शुचि वहति गाङ्गं जलमहो ॥ 11 ॥
मुनीन्द्रा योगीन्द्रा यमनियमनिष्ठाः श्रुतिपरा
विरक्ताः संन्यस्ताः सततमनुरक्ता दृढधियः ।
वसन्तस्त्वत्तीरे मलयजसमीरे सुमनसो
लभन्ते तत्तत्त्वं सुविमलपरब्रह्ममहितम् ॥ 12 ॥
विरक्ता वैराग्यं परममथ भाग्यं सुकृतिनः
सुसन्तस्सन्तोषं विमलगुणपोषं मुनिगणा ।
नृपा राज्यं प्राज्यं गृहिण इतरे भूरिविभवं लभन्ते
वै त्वत्तस्त्वमसि सुरधेनुस्तनुभृताम् ॥ 13 ॥
गतैश्वर्यान् दीनान् कपिलमुनिकोपाग्निशलभान्
निमग्नाञ्छोकाब्धौ सगरनृपतेर्वीक्ष्य तनयान् ।
कृपासिन्धुर्भागीरथविनतभावोग्रतपसा
द्रुतायाता गङ्गा ननु सकरुणं मातृहृदयम् ॥ 14 ॥
मुरारेः पादाब्जस्स्रुतपरममारन्दममलं द्रुतं
व्योम्नो वेगान्मधुमथनपादोदकमिति ।
दधौ मूर्ध्ना शर्वो विलुलितजटाजूटचषके ततो
लोके ख्यातस्त्रिदशनदि गङ्गाधर इति ॥ 15 ॥
पतन्ती पातित्यं क्षपयितुमहो गाञ्च गगना
द्गता गङ्गेत्येवं जननि भुवने ख्यातिमगमः ।
ततः पीत्वोन्मुक्ता परमयमिना जह्नुमुनिना अतस्त्वां
वै प्राहुर्विबुधनिकरा जह्नुतनयाम् ॥ 16 ॥
सुधाधारा धाराहतभवविकारा प्रतिपृष
द्वहन्ती राजन्ती रजतसुममालेव धरणेः ।
सुवत्से श्रीवत्साम्बुजचरणसौन्दर्यसुषमा
जयत्येषा गङ्गा तरलिततरङ्गा त्रिपथगा ॥ 17 ॥
क्वचिद्विष्णोः पार्श्वे कृतकमनकन्यावपुरहो
क्वचिद्धातुः पात्रे गुणगरिमसर्वस्वममलम् ।
क्वचित्कान्ता शान्ता पुरहरजटाजूटलसिता
विधत्से सौभाग्यं त्रिषु त्रिविधरूपा त्रिपथगे ॥ 18 ॥
द्रवन्ती त्वं वेगादभिजलनिधिं गोमुखतला
त्सहस्रैर्धाराणां निहतशतशैलेन्द्रशिखरा ।
समुद्धर्तुं मातर्निरयपतितान् राजतनयान् स्ववत्सान्
वात्सल्यात् किल गवसि गौरीसहचरी ॥ 19 ॥
प्रयाता शैलेन्द्राद्विमलितहरिद्वारधरणी
प्रयागे सद्रागे समगतमुदा सूर्यसुतया ।
ततोऽकार्षीः काशीं सुकृतसुखराशिं स्वपयसा
महीयांसं मातस्तव च महिमा कं न कुरुते ॥ 20 ॥
महापापास्तापापहतमनसो मन्दमतयः
क्षपाटा वाचाटाः पतितपतिता मोहमलिनाः ।
त्वयि स्नात्वा शुद्धा विमलवपुषो विष्णुसदनं
व्रजन्त्येतेऽगम्योऽमरनदि तव स्नानमहिमा ॥ 21 ॥
रटन्तः साम्रेडं हरहरहरेतिध्वनिमहो कटन्तः
कारुण्यं क्षपितनिजभक्ताघनिकराः ।
वटन्तो वात्सल्यं तुलितरघुनाथैकयशसो जयन्त्येते
गाङ्गा दिशि दिशि तरङ्गास्तरलिताः ॥ 22 ॥
वसन्गङ्गातीरे कृततृणकुटीरे प्रतिदिनं
निमज्जंस्त्वत्तीरे शिशिरितसमीरेऽमृतजलम् ।
मुदाचामन्सीतापतिपदसरोजार्चनपरो
यमाद्रामानन्दः कथमुपरि भीतो भुवि भवेत् ॥ 23 ॥
तवाद्भिः स्यां विष्णुर्नहि नहि तदा स्यान्मम पदे
अथो शम्भुश्चेन्नो शिवसमतया स्यामहमघी ।
अतो याचे भागीरथि पुनरहं देवि भवतीं वसन्
त्वत्तीरेषु स्वमनसि भजेयं रघुपतिम् ॥ 24 ॥
कदा गङ्गातीरे मलयजसमीरे किल वसन्
स्मरन्सीतारामौ पुलकिततनुः साश्रुनयनः ।
अये मातर्गङ्गे रघुपतिपदाम्भोरुहरतिं प्रदेहीत्यायाचे
ननु निमिषमेष्यामि ससुखम् ॥ 25 ॥
विशेष्यं सोद्देश्यं यदनघमनन्तं चिदचिदो
विशिष्टं यत्ताभ्यां श्रुतिगणगिरा गीतचरितम् ।
यदद्वैतं ब्रह्म प्रथितमथ यद्व्यापकमिदं
सदेतत्तत्तत्त्वं त्वमसि किल गङ्गे भगवति ॥ 26 ॥
त्वमग्निस्त्वं वायुस्त्वमसि रविचन्द्रौ त्वमसि
भू-स्त्वमापस्त्वं व्योम त्वमसि शुचिबुद्धिस्त्वमु मनः ।
त्वमात्मा त्वं चित्तं त्वमसि मम गौस्त्वं किल
पर-स्त्वमेतत्सर्वं मे भगवति सतत्त्वं जगदहो ॥ 27 ॥
विलोलत्कल्लोलां हृतकुमतिदोलां शुचिपयः
पवित्रत्पातालां क्षपितजनकालां कलजलाम् ।
द्रवब्रह्मीभूतां सगरसुतसंसारतरणीं नमामि
त्वां गङ्गां तरलिततरङ्गां स्वजननीम् ॥ 28 ॥
नमो धर्मिष्ठायै निरुपममहिम्नेऽस्तु च नमो
नमो नर्मिष्ठायै नरपतिनरिम्णेऽस्तु च नमः ।
नमो नेदिष्ठायै लघुमतिलघिम्नेऽस्तु च
नमो नमस्ते गङ्गायै गिरिगतिगरिम्णेऽस्तु च नमः ॥ 29 ॥
विबुधसरिते नित्यख्यात्यै नमोऽस्तु नमोऽस्तु
ते विमलरजसे वेदस्तुत्यै नमोऽस्तु नमोऽस्तु ते ।
धवलमहसे विद्याभूत्यै नमोऽस्तु नमोऽस्तु
ते अमृतपयसे गङ्गादेव्यै नमोऽस्तु नमोऽस्तु ते ॥ 30 ॥
क्व च कलिमललीना पापपीना मतिर्मे
क्व च परमपवित्रं जाह्नवीसच्चरित्रम् ।
त्वदनु चरितभक्तिः प्रैरयन्मां हि रातुं
जननि तव पदाब्जे पद्यपुष्पोपहारम् ॥ 31 ॥
हरिचरणसरोजस्यन्दभूताञ्च भूयः
श्रितविधिजलपात्रां चन्द्रचूडार्यमौलिम् ।
नृपरतिरथ भूमौ दर्शमायास गङ्गा
मनुयुगमिह यत्नो भाति भागीरथोऽयम् ॥ 32 ॥
वन्दे भगीरथं भूपं भग्नसंसारकूपकम् ।
यश्चानिनाय गङ्गाख्यं वसुधायां सुधारसम् ॥ 33 ॥
गङ्गास्नानात्परं स्नानं नास्ति नास्तीह भूतले ।
नास्ति कापि स्तुतिर्गङ्गामहिम्नस्तोत्रतः परा ॥ 34 ॥
यः पठेच्छृणुयाद्वापि गङ्गाग्रे श्रद्धयान्वितः ।
सर्वपापैर्विनिर्मुक्तो व्रजेद्विष्णोः परं पदम् ॥ 35 ॥
षडर्णान्न परो मन्त्रो महिम्नो न परा स्तुतिः ।
श्रीरामान्न परो देवो गङ्गाया न परा नदी ॥ 36 ॥
श्रीरामचन्द्रगुणगायकरामभद्रा
चार्येण देवगिरि गीतमनुस्मरेद्यः ।
स्तोत्रं सुभक्तिकलितस्तनुतां प्रसन्ना
गङ्गामहिम्नमिति तस्य सुखानि गङ्गा ॥ 37 ॥
॥ इति श्री गंगा महिमा स्तोत्र सम्पूर्णम् ॥
“श्री गंगा महिमा स्तोत्र” के हिन्दी अनुवाद
हे त्रिपथगा (गंगा) ! तुम्हारा महात्म्य अपार है, तुम सम्पूर्ण सुखों की सार रूपा हो।
तुम्हें पार करने के लिए जो कठिनाई है, उसे कौन बुद्धिमान व्यक्ति पार कर सकता है?
फिर भी मैं अज्ञानी भी तुम्हारे चरणकमलों को नौका के समान मानकर भवसागर पार करने की कामना करता हूँ,
क्योंकि तुम्हारा स्पर्श संसार के पंक को दूर कर देता है। ❶
तुम भगवान मधुसूदन के चरणों से उत्पन्न होकर ब्रह्माजी के कमण्डल में स्थान पाई,
और फिर शम्भु (शिवजी) की जटा में स्थान पाकर त्रिलोकों को पावन करने के लिए पृथ्वी पर अवतीर्ण हुईं। ❷
तुम्हारी महिमा का वर्णन करना कठिन है,
जिसे स्वर्ग की देवियाँ भी अपने पुष्पों और मधुमक्खियों के गीतों से गाती हैं।
हे जननि! जब स्वयं ईश्वर, भूतनाथ, अनंत और गुरु तुम्हें पूर्णतः नहीं जान सकते,
तो मेरी वाणी तो केवल धृष्टता ही है। ❸
तुमने उस स्थान को रमणीयता दी जहाँ कामदेव की हार हुई,
जहाँ भोग की आसक्ति का नाश हुआ और जहाँ भक्तों को भवबंधन से मुक्ति मिली।
तुम्हारी लहरें आज भी संसार में विजय को प्राप्त हैं। ❹
तुम त्रिविध ताप (दैहिक, दैविक, भौतिक) और पापों को हरती हो,
सद्कर्मियों को मोक्ष का संदेश देती हो,
और निराशा व अधर्म को दूर करके भक्तों को भक्ति प्रदान करती हो। ❺
तुम मातृत्व से परिपूर्ण हो, दोषों को हरने वाली हो,
करुणा से पूर्ण हृदय वाली, चन्द्रमा के समान उज्ज्वल वस्त्र धारण करती हो।
तुम तीनों लोकों को शुद्ध करती हो, हे शुभ भागीरथी, तुम विजयिनी हो। ❻
कुछ तुम्हें निराकार रूप में, तो कुछ साकार रूप में पूजते हैं।
हम त्रिविध तापों से त्रस्त होकर तुम्हारे चरणों की शरण लेते हैं –
हे सुरसरिते! तुम्हारी ही आराधना करते हैं। ❼
मुझे न तो वाणी के देवता ब्रह्मा का ज्ञान है, न इन्द्र, न कार्तिकेय,
न गौरीश, न गणेश और न ही गुरु का।
हे त्रिपथगा! मुझे केवल यह ज्ञान है कि श्रीराम के समान कोई नहीं,
और तुम्हारा जल उन्हीं के चरणों से उत्पन्न हुआ है। ❽
तुम्हारा जल शरीर के क्लेशों, कर्मों के भ्रम, माया और विघ्नों का नाश करता है।
तुम्हारा जल कुटिल कलियुग को भी पराजित कर देता है और मोह का नाश करता है। ❾
तुम्हारा जल अमृत के समान है,
जो निराशा को हरता है, हंसवत् निर्मल कीर्ति को फैलाता है,
श्रुति से संबंधित अद्भुत ज्ञान से परिपूर्ण है। ❿
क्या यह तुम्हारा सौंदर्य है, जो बाल चन्द्रमा जैसा है?
या यह तुम्हारी मधुरता है जो सीता जी के प्रेम के समान है?
तुम्हारा जल ब्रह्मरूप, पवित्र और अमृत तुल्य है। ⓫
मुनि, योगी, संन्यासी और ज्ञान में लीन भक्तजन
तुम्हारे तट पर रहते हैं, मलयज की वायु में, और सत्य का बोध प्राप्त करते हैं। ⓬
तुम्हारे प्रभाव से विरक्तों को वैराग्य, भक्तों को भक्ति,
मुनियों को शांति और राजाओं को राज्य प्राप्त होता है।
हे गंगा! तुम सचमुच जीवों की कामधेनु हो। ⓭
जब कपिल मुनि के क्रोध से सगर पुत्र जलकर भस्म हो गए,
तब राजा भगीरथ ने तपस्या करके तुम्हें पृथ्वी पर लाया।
तुम्हारा मातृत्व ही था जो तुम तत्काल चली आईं। ⓮
तुम विष्णु के चरणों से प्रकट हुई,
फिर शिव ने तुम्हें अपनी जटा में धारण किया।
तभी से शिव ‘गंगाधर’ के रूप में प्रसिद्ध हुए। ⓯
जब तुम स्वर्ग से पृथ्वी पर आईं, तब ‘गंगा’ के रूप में प्रसिद्ध हुईं।
और जब तुम्हें जह्नु मुनि ने पी लिया और फिर पुनः छोड़ा,
तब तुम्हें ‘जह्नुतनया’ कहा गया। ⓰
तुम अमृत की धारा के समान हो,
पृथ्वी पर एक चांदी की माला जैसी बहती हुई,
भगवान विष्णु के श्रीवत्स चिन्ह जैसे चरणों की शोभा बढ़ाने वाली हो। ⓱
कभी तुम विष्णु के चरणों में,
कभी ब्रह्मा के कमण्डल में,
और कभी शिव की जटा में स्थान पाकर सौभाग्यवती हो जाती हो। ⓲
तुम हजारों धाराओं के साथ हिमालय से गोमुख से निकलती हो,
शैलराजों को चीरती हुई राजाओं के पापों का नाश करने आती हो। ⓳
तुम पर्वतों से निकलकर हरिद्वार को पवित्र करती हो,
प्रयाग में यमुनाजी से मिलती हो,
काशी में मोक्ष प्रदान करती हो – तुम्हारी महिमा अपार है। ⓴
महापापी, मंदबुद्धि और मोह में डूबे लोग भी
तुममें स्नान करके विष्णुलोक को प्राप्त करते हैं –
तुम्हारे स्नान की महिमा अद्वितीय है। ㉑
जो तुम्हारे तट पर ‘हरि हर’ का उच्चारण करते हैं,
उनके पाप नष्ट हो जाते हैं,
तुम्हारी लहरें संसार में श्रीराम के यश की गूंज करती हैं। ㉒
जो तुम्हारे तट पर निवास करते हैं,
तुम्हारे शीतल वायु में स्नान करते हैं,
और श्रीराम के चरणों का स्मरण करते हैं –
उन्हें मृत्यु का भय नहीं होता। ㉓
यदि तुम्हारे जल से मेरा स्नान हो, तो मैं विष्णु रूप बनूं,
यदि शिवजी मुझे अपनाएं, तो मैं शिवस्वरूप हो जाऊं।
हे भागीरथी! मैं केवल यह चाहता हूं कि तुम्हारे तट पर
रघुनाथ के चरणों की भक्ति करता रहूं। ㉔
कब मैं तुम्हारे तट पर मलयज वायु में बैठकर,
स्मरण में सीताराम का ध्यान कर अश्रुपूरित नेत्रों से
तुमसे प्रार्थना करूंगा – हे मां! मुझे रामचरण भक्ति दो। ㉕
तुम वह सत्य ब्रह्म हो,
जो अचिंत्य, अनंत, अद्वैत और व्यापक है।
शास्त्रों द्वारा जो गाया गया,
तुम वही परम तत्व हो, हे मां गंगे! ㉖
तुम अग्नि हो, वायु हो, सूर्य-चन्द्रमा हो,
भूमि, जल, आकाश, बुद्धि, मन, आत्मा और चित्त हो।
तुम गौ के समान पालन करने वाली हो।
हे मां! तुम ही सबकुछ हो, तुम ही सत्य हो। ㉗
हे तरंगों से युक्त गंगे!
तुम विकारों को हरती हो, अधर्म को बहाती हो,
तुम ब्रह्मस्वरूपा हो और सगरपुत्रों को तारने वाली हो –
तुम्हें प्रणाम। ㉘
धर्म, सौंदर्य, तप, गरिमा और सत्य की देवी गंगे!
तुम्हें बारम्बार प्रणाम। ㉙
हे दिव्य सरिता!
जो वेदों से स्तुता हो,
जो अमृत स्वरूपा हो –
तुम्हें कोटि-कोटि नमस्कार। ㉚
मेरा मन पापों में डूबा है,
और तुम परम पवित्र हो।
फिर भी मैं तुमसे यही चाहता हूँ –
हे जननि! अपने चरणों में यह पुष्पस्वरूप मेरा भजन स्वीकार करो। ㉛
श्रीराम के चरणों से बहकर चन्द्रशेखर की जटाओं में,
ब्रह्माजी के जलपात्र में, और पृथ्वी पर आई –
यह गंगा भागीरथ जी की तपस्या से संभव हुई। ㉜
मैं भागीरथ को नमन करता हूँ,
जिन्होंने संसार के पापों को दूर करने के लिए
अमृत समान गंगा को धरती पर लाया। ㉝
गंगा स्नान से बढ़कर कोई स्नान नहीं,
और गंगा महिमा स्तोत्र से बढ़कर कोई स्तुति नहीं। ㉞
जो श्रद्धा से इसका पाठ या श्रवण गंगा के समक्ष करता है,
वह सब पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक को प्राप्त करता है। ㉟
षडवेदांगों से बढ़कर कोई मन्त्र नहीं,
महिमा स्तोत्र से बढ़कर कोई स्तुति नहीं,
श्रीराम से बढ़कर कोई देव नहीं,
गंगा से पवित्र कोई नदी नहीं। ㊱
जो श्रीराम के गुणों का गान करता है और
देवगिरि आचार्य द्वारा रचित इस गंगा महिमा स्तोत्र का
स्मरण भक्तिपूर्वक करता है –
उसे गंगा सुख और मुक्ति प्रदान करती हैं। ㊲
॥ श्री गंगा महिमा स्तोत्र समाप्त ॥
श्री गंगा महिमा स्तोत्र के लाभ (Fayde / Benefits):
- सभी पापों का नाश:
इस स्तोत्र का पाठ श्रद्धा से करने पर जन्मों-जन्म के पापों का क्षय होता है। - मनोवांछित फल की प्राप्ति:
गंगा माता की कृपा से धन, संतान, सुख और शांति जैसे इच्छित फल प्राप्त होते हैं। - मानसिक शांति व आत्मिक शुद्धि:
पाठ से चित्त शांत होता है, तनाव, क्रोध, अवसाद आदि का नाश होता है। - भवसागर से मुक्ति का मार्ग:
यह स्तोत्र मोक्ष प्राप्ति की दिशा में अत्यंत प्रभावशाली है। - शरीरिक व आध्यात्मिक रोगों से मुक्ति:
गंगा जल और स्तोत्र के प्रभाव से तन-मन रोगमुक्त होता है। - गंगा स्नान का फल:
जो व्यक्ति यह स्तोत्र नियमित भाव से करता है, उसे गंगा स्नान जैसा पुण्य फल प्राप्त होता है। - श्रीराम भक्ति की प्राप्ति:
स्तोत्र का पाठ रामचरणों की भक्ति में वृद्धि करता है, क्योंकि इसमें बार-बार रघुनाथ चरणों की महिमा वर्णित है। - पितृ दोष, ग्रह दोष निवारण में सहायक:
यह स्तोत्र विशेषतः उन लोगों के लिए उपयोगी है जो पितृ ऋण या पापों से ग्रस्त हैं।
पाठ विधि (Vidhi):
- स्नान एवं शुद्ध वस्त्र पहनें।
यदि संभव हो तो गंगा जल या गंगा जल मिले जल से स्नान करें। - एक स्वच्छ स्थान या मंदिर में आसन लगाकर बैठें।
- सामने गंगा माता या भगवान श्रीराम का चित्र रखें।
- गंगा जल (यदि उपलब्ध हो) एक पात्र में रखें।
- दीपक जलाएं, अगरबत्ती अर्पण करें।
- श्रीराम या गंगाजी का कोई छोटा मंत्र जपें – जैसे:
ॐ नमो भगवते रामाय
याॐ गंगायै नमः
- अब पूरे श्रद्धा और भक्ति के साथ श्री गंगा महिमा स्तोत्र का पाठ करें।
पाठ के दौरान भावपूर्ण उच्चारण और मानसिक समर्पण आवश्यक है। - पाठ के बाद गंगाजल को सिर पर छिड़कें या थोड़ा पी लें।
- गंगा माता से प्रार्थना करें कि वे आपके पाप हरें, मन को शुद्ध करें और भक्ति प्रदान करें।
जाप / पाठ का सर्वोत्तम समय (Jaap Time):
समय | लाभ |
---|---|
प्रातःकाल (4:30 AM – 6:30 AM) | सबसे उत्तम समय है। यह ब्रह्म मुहूर्त कहलाता है। इसमें किया गया पाठ अत्यधिक फलदायी होता है। |
गंगा दशहरा / पूर्णिमा / अमावस्या / एकादशी के दिन | इन तिथियों पर पाठ करने से सौगुना पुण्य प्राप्त होता है। |
प्रत्येक सोमवार / गुरुवार / रविवार | इन दिनों विशेष प्रभाव रहता है, विशेषकर अगर गंगाजल से जुड़कर पाठ करें। |
गंगा स्नान के समय या गंगा जल छिड़ककर | यह स्थिति पाठ को और भी प्रभावशाली बनाती है। |
नोट: यदि प्रतिदिन संभव न हो, तो सप्ताह में 1 या 3 दिन नियमित रूप से पाठ करना भी महान पुण्यफल देता है।