Shri Ekdant Stotra (श्री एकदंत स्तोत्र) एक अत्यंत प्रभावशाली प्रार्थना है जो भगवान गणेश को समर्पित है। भगवान गणेश, जिन्हें एकदंत, विनायक, गणपति, गजानन, लंबोदर आदि कई नामों से जाना जाता है, समस्त विघ्नों के नाशक, बुद्धि और समृद्धि के दाता हैं। श्री एकदंत स्तोत्र का मूल वर्णन नारद पुराण में मिलता है और इसकी रचना स्वयं देवर्षि नारद द्वारा की गई मानी जाती है।
यह स्तोत्र विशेष रूप से उन भक्तों के लिए लाभकारी है जो अपने जीवन से संकट, ऋण, भय या विघ्नों को दूर करना चाहते हैं। इसका नियमित पाठ भगवान गणेश की विशेष कृपा प्रदान करता है।
श्री एकदंत स्तोत्र
॥ श्री गणेशाय नमः ॥
महासुरं सुशांतं वै दृष्ट्वा विष्णुमुखा: सुरा:
भ्रग्वादयश्र्च मुनय एकदन्तं समाययु: ।। 1 ।।
प्रणम्य तं प्रपूज्यादौ पुनस्तं नेमुरादरात्
तुष्टुवुर्हर्षसंयुक्ता एकदन्तं गणेश्र्वरम् ।। 2 ।।
देवर्षय ऊचुः —
सदात्मरूपं सकलादिभूतममायिनं सोऽहमचिन्त्यबोधम्
अनादिमध्यांतविहीनमेकं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 3 ।।
अनन्तचिद्रूपमयं गणेशं ह्मभेदभेदादिविहीनमाद्यम्
हृदि प्रकाशस्य धरं स्वधीस्थं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 4 ।।
विश्र्वादिभूतं ह्रदि योगिनां वै प्रत्यक्षरूपेण विभान्तमेकम्
सदा निरालम्बसमाधिगम्यं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 5 ।।
स्वबिम्बभावेन विलासयुक्तं बिंदुस्वरूपा रचिता स्वमाया
तस्या स्ववीर्य प्रददाति यो वै तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 6 ।।
त्वदीयवीर्येण समर्थभूता माया तया संरचितं च विश्र्वम्
नादात्मकं ह्मात्मतया प्रतीतं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 7 ।।
त्वदीयसत्ताधरमेकदन्तं गणेशमेकं त्रयबोधितारम्
सेवन्त आपुस्तमजं त्रिसंस्थास्तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 8 ।।
ततस्त्वया प्रेरित एव नादस्तेनेदमेवं रचितं जगद्वैतम्
आनन्दरूपं समभावसंस्थं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 9 ।।
तदेव विश्र्वं कृपया तवैव सम्भूतमाद्यं तमसा विभातम्
अनेकरूपं ह्मजमेकभूतं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 10 ।।
ततस्त्वया प्रेरितमेव तेन सृष्टं सुसूक्ष्मं जगदेकसंस्थम्
सत्त्वात्म्कं श्र्वेतमनन्तमाद्यं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 11 ।।
तदेव स्वप्नं तपसा गणेशं संसिद्धिरूपं विविधं वभूव
तदेकरूपं कृपया तवापि तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 12 ।।
सम्प्रेरितं तच्य त्वया ह्रदिस्थं तथा सुसृष्टं जगदंशरूपम्
तेनैव जाग्रन्मयमप्रमेयं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 13 ।।
जाग्रत्स्वरूपं रजसा विभातं विलोकितं तत्कृपया यदैव
तदा विभिन्नं भवदेकरूपं तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 14 ।।
एवं च सृष्ट्वा प्रक्रतिस्वभावात्तदन्तरे त्वं च विभासि नित्यम्
बुद्धिप्रदाता गणनाथ एकस्तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 15 ।।
त्वदाज्ञया भांति ग्रहाश्र्च सर्वे नक्षत्ररूपाणि विभान्ति खे वै
आधारहीनानि त्वया धृतानि तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 16 ।।
त्वदाज्ञया सृष्टिकरो विधाता त्वदाज्ञया पालक एव विष्णु:
त्वदाज्ञया संहरते हरोऽपि तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 17 ।।
यदाज्ञया भूर्जलमध्यसंस्था यदाज्ञयाऽऽप: प्रवहन्ति नद्य:
सीमां सदा रक्षति वै समुद्रस्तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 18 ।।
यदाज्ञया देवगणो दिविस्थो ददाति वै कर्मफलानि नित्यम्
यदाज्ञया शैलगणोऽचलो वै तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 19 ।।
यदाज्ञया शेष इलाधरो वै यदाज्ञया मोहकरश्र्च काल:
यदाज्ञया कालधरोऽर्यमा च तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 20 ।।
यदाज्ञया वाति विभाति वायुर्यदाज्ञयाऽग्निर्जठरादिसंस्थ:
यदाज्ञया वै सचराचरं च तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 21 ।।
सर्वान्तरे संस्थिततेकगूढं यदाज्ञया सर्वमिदं विभाति
अनन्तरूपं ह्रदि बोधकं वै तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 22 ।।
यं योगिनो योगबलेन साध्यं कुर्वन्ति तं क: स्तवनेन नौति
अत: प्रणामेन सुसिद्धिदोऽस्तु तमेकदन्तं शरणं व्रजाम: ।। 23 ।।
ग्रत्सप्तद उवाच –
एवं स्तुत्वा च प्रह्लादं देवा: समुनयश्र्च वै
तूष्णींभावं प्रपद्येव ननृतुर्हर्षसंयुता: ।। 24 ।।
स तानुवाच प्रोतात्मा ह्मेकदंत: स्तवेन वै
जगाद तान्महाभागान्देवर्षीन्भक्तवत्सल: ।। 25 ।।
एकदंत उवाच –
प्रसन्नोस्मि च स्तोत्रेण सुरा: सर्षिगणा: किल
वृणुतां वरदोऽहं वो दास्यामि मनसीप्सितम् ।। 26 ।।
भवत्कृतं मदीयं वै स्तोत्रं प्रीतिप्रदं मम
भविष्यति न संदेह: सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।। 27 ।।
यं यमिच्छति तं तं वै दास्यामि स्तोत्रपाठत:
पुत्रपौत्रादिकं सर्वं लभते धनधान्यकम् ।। 28 ।।
गजाश्र्वादिकमत्म्यन्तं राज्यभोगं लभेद्ध्रुवम्
भुक्तिं मुक्तिं च योगं वै लभते शान्तिदायकम् ।। 29 ।।
मारणोंचटनादीनि राज्यबंधादिकं च यत्
पठतां श्रृण्वतां न्रणां भवेच्च बंधहीनता ।। 30 ।।
एकविंशतिवारं च श्लोकाच्श्रैवैकविंशतिम्
पठते नित्यमेवं च दिनानि त्वेकविंशतिम् ।। 31 ।।
न तस्य दुर्लभं किंचित्त्रिषु लोकेशु वै भवेत्
असाध्यं साधयेन्मत्र्य: सर्वत्र विजयी भवेत् ।। 32 ।।
नित्यं य: पठेत स्तोत्रं ब्रह्मभूत: स वै नर:
तस्य दर्शनत: सर्वे देवा: पूता भवन्ति वै ।। 33 ।।
एवं तस्य वच: श्रुत्वा प्रह्रष्टा देवतर्षय:
ऊचु: करपुटा: सर्वे भक्तियुक्ता गजाननम् ।। 34 ।।
॥ इति श्री एकदंत स्तोत्र सम्पूर्णम् ॥
श्री एकदंत स्तोत्र (हिंदी अनुवाद)
॥ श्री गणेशाय नमः ॥
जब देवताओं ने शांत और महान असुर को देखा, तो वे विष्णु के मुख से प्रेरित होकर
भृगु आदि मुनियों के साथ एकदंत गणेशजी के पास गए। ।। 1 ।।
उन्हें प्रणाम करके, आदरपूर्वक पूजा कर
फिर आदरपूर्वक झुककर एकदंत गणेशजी की स्तुति की। ।। 2 ।।
देवर्षियों ने कहा —
जो परम आत्मरूप हैं, सम्पूर्ण तत्वों के आदि रूप हैं, जो मायारहित हैं,
जो मैं और वह की भावना से परे हैं, जिनका आदि, मध्य और अंत नहीं है — हम उन एकदंत गणेशजी की शरण लेते हैं। ।। 3 ।।
जो अनंत चैतन्य रूप हैं, अद्वैत स्वरूप हैं, जो भेद और अभेद से रहित आदि तत्त्व हैं,
जो हृदय में प्रकाश रूप में स्थित हैं — हम उन एकदंत गणेशजी की शरण लेते हैं। ।। 4 ।।
जो सम्पूर्ण विश्व के आदि तत्व हैं, जो योगियों के हृदय में प्रत्यक्ष रूप से प्रकाशित होते हैं,
जो सदा निरालंब समाधि में प्राप्त होते हैं — हम उन एकदंत गणेशजी की शरण लेते हैं। ।। 5 ।।
जो अपने ही प्रतिबिंब रूप में स्वमाया द्वारा विलास करते हैं, जो बिंदु रूप में स्थित हैं,
जो अपनी शक्ति से उस माया को प्रकट करते हैं — हम उन एकदंत गणेशजी की शरण लेते हैं। ।। 6 ।।
आपकी ही शक्ति से समर्थ हुई माया द्वारा यह संपूर्ण विश्व रचा गया है,
जो नाद रूप में आत्मतत्त्व के रूप में प्रकट होता है — हम उन एकदंत गणेशजी की शरण लेते हैं। ।। 7 ।।
जो एकदंत ही तीनों वेदों के ज्ञाता, ज्ञानदाता और सेवा करने योग्य हैं,
जिनकी सेवा से अजन्मा (परमात्मा) और त्रैगुण्य से परे तत्व प्राप्त होता है — हम उनकी शरण लेते हैं। ।। 8 ।।
आपकी प्रेरणा से ही नाद प्रकट हुआ, जिससे यह अद्वैत जगत उत्पन्न हुआ,
जो आनंद स्वरूप है और समभाव में स्थित है — हम उन एकदंत गणेशजी की शरण लेते हैं। ।। 9 ।।
आपकी कृपा से ही यह सम्पूर्ण जगत उत्पन्न हुआ है, जो अंधकार में भी प्रकाशित रहता है,
जो अनेक रूपों वाला, अजन्मा और एक ही तत्व है — हम उन एकदंत गणेशजी की शरण लेते हैं। ।। 10 ।।
आपकी प्रेरणा से ही यह अत्यंत सूक्ष्म जगत उत्पन्न हुआ, जो एक रूप में स्थित है,
जो सत्-स्वरूप है, उज्ज्वल है और अनादि है — हम उन एकदंत गणेशजी की शरण लेते हैं। ।। 11 ।।
वह गणेशजी तपस्या द्वारा सपने में अनुभव किए जाते हैं,
जो अनेक रूपों में प्रकाशित होकर भी एक ही रूप हैं — हम उन एकदंत गणेशजी की शरण लेते हैं। ।। 12 ।।
आपके द्वारा प्रेरित होकर ही यह ह्रदय में स्थित ब्रह्माण्ड रूप बना,
जो उसी से जाग्रत हुआ और जिसकी सीमा नहीं — हम उन एकदंत गणेशजी की शरण लेते हैं। ।। 13 ।।
जो जाग्रत अवस्था में रजोगुण से प्रकाशित होता है, जिसे कृपा से देखा जाता है,
वही अनेक रूप होते हुए भी आपका ही रूप है — हम उन एकदंत गणेशजी की शरण लेते हैं। ।। 14 ।।
इस प्रकार प्रकृति स्वभाव के अनुसार सृष्टि कर, आप स्वयं सदा प्रकट होते हैं,
आप ही बुद्धि के दाता हैं, एकमात्र गणनाथ हैं — हम उनकी शरण लेते हैं। ।। 15 ।।
आपकी आज्ञा से ही सभी ग्रह, आकाश में स्थित नक्षत्र प्रकाशित होते हैं,
जो बिना आधार के होते हुए भी आप ही उन्हें धारण करते हैं — हम आपकी शरण लेते हैं। ।। 16 ।।
आपकी आज्ञा से ही ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, विष्णु पालन करते हैं,
और शिव संहार करते हैं — हम उन एकदंत गणेशजी की शरण लेते हैं। ।। 17 ।।
आपकी आज्ञा से ही पृथ्वी जल में स्थित है, नदियाँ प्रवाहित होती हैं,
और समुद्र अपनी मर्यादा में स्थित रहता है — हम आपकी शरण लेते हैं। ।। 18 ।।
आपकी आज्ञा से ही देवगण स्वर्ग में स्थित रहकर कर्मों का फल देते हैं,
और पर्वत स्थिर रहते हैं — हम आपकी शरण लेते हैं। ।। 19 ।।
आपकी आज्ञा से ही शेषनाग पृथ्वी को धारण करता है,
काल मोहक है और यमराज प्राणी का जीवन हरते हैं — हम आपकी शरण लेते हैं। ।। 20 ।।
आपकी आज्ञा से ही वायु प्रवाहित होती है, अग्नि पेट आदि में स्थित रहती है,
और सारा चर-अचर जगत संचालित होता है — हम आपकी शरण लेते हैं। ।। 21 ।।
आप सभी में अंतर्यामी रूप में स्थित हैं, आपकी आज्ञा से ही सब कुछ प्रकट होता है,
आप अनंत रूप वाले, हृदय में बोध देने वाले हैं — हम आपकी शरण लेते हैं। ।। 22 ।।
जिसे योगी योगबल से प्राप्त करते हैं, उस परम तत्व की स्तुति कौन कर सकता है?
इसलिए हम नमस्कार के द्वारा आपको सिद्दिदाता मानकर शरणागत होते हैं — हम आपकी शरण लेते हैं। ।। 23 ।।
गृत्समद ने कहा —
इस प्रकार जब प्रह्लाद ने स्तुति की, तब देवता और मुनिगण
प्रसन्न होकर हर्ष से नृत्य करने लगे। ।। 24 ।।
तब एकदंत गणेशजी ने हर्षित होकर उन्हें संबोधित किया
और उन महाभाग्यशाली देवर्षियों से कहा — ।। 25 ।।
एकदंत बोले —
मैं इस स्तोत्र से प्रसन्न हूँ, हे देवगण और मुनिगण!
जो चाहो, मांगो — मैं वर देने को प्रस्तुत हूँ, जो तुम्हारे मन में हो वह दूँगा। ।। 26 ।।
तुम लोगों द्वारा रचा गया यह स्तोत्र मुझे अत्यंत प्रिय है,
यह निःसंदेह सर्वसिद्धि देने वाला होगा। ।। 27 ।।
जो जैसा चाहे, उसे वह फल इस स्तोत्र के पाठ से प्राप्त होगा,
संतान, धन-धान्य आदि सब कुछ मिल जाएगा। ।। 28 ।।
हाथी-घोड़े, राज्यभोग निःसंदेह प्राप्त होंगे,
भोग, मोक्ष और योग भी प्राप्त होंगे, यह शांति प्रदायक है। ।। 29 ।।
मारण, उच्चाटन, राजबन्धन आदि दोष,
पाठ करने और सुनने वालों से दूर हो जाएंगे — वे बंधन रहित हो जाएंगे। ।। 30 ।।
यदि कोई इस स्तोत्र के 21 श्लोकों को प्रतिदिन 21 दिनों तक
एकविंशतिवार (21 बार) पढ़ता है — ।। 31 ।।
तो उसे त्रिलोकों में कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता,
वह सभी असाध्य कार्यों को सिद्ध कर सकता है और सर्वत्र विजयी होता है। ।। 32 ।।
जो इस स्तोत्र को प्रतिदिन पढ़ता है, वह ब्रह्मभाव को प्राप्त होता है,
उसके दर्शन से ही सभी देवता पवित्र हो जाते हैं। ।। 33 ।।
गणेशजी के इन वचनों को सुनकर देवता और ऋषिगण हर्षित हुए,
और सबके सब हाथ जोड़कर भक्ति भाव से गजानन की स्तुति करने लगे। ।। 34 ।।
॥ श्री एकदंत स्तोत्र समाप्त ॥
एकदंत स्तोत्र पाठ के लाभ (Benefits of reciting Ekadanta Stotra):
- इस स्तोत्र के नित्य पाठ से जीवन की सभी बाधाएँ दूर होती हैं।
- भय, रोग, ऋण, शोक और दरिद्रता से मुक्ति मिलती है।
- पढ़ने वाले को बुद्धि, बल, विद्या, यश और आयु की प्राप्ति होती है।
- यदि कोई व्यक्ति 6 माह तक इस स्तोत्र का नियमित श्रद्धा से पाठ करता है तो सभी क्लेश शांत हो जाते हैं।
- एक वर्ष तक इसका नियमपूर्वक पाठ करने से व्यक्ति को सभी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
कौन करें श्री एकदंत स्तोत्र का पाठ (Who should recite Shri Ekadanta Stotra):
- जो व्यक्ति अपने जीवन में सुख, शांति, सफलता और समृद्धि चाहता है।
- जो नए कार्य आरंभ करने जा रहा हो।
- जिन्हें जीवन में बार-बार विघ्न, अपयश या असफलता मिल रही हो।
- विद्यार्थी, व्यापारी, साधक और गृहस्थ सभी इस स्तोत्र से लाभ उठा सकते हैं।
पाठ की विधि (Method of lesson):
- प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल – तीनों समय इस स्तोत्र का पाठ अत्यंत लाभकारी माना गया है।
- पाठ करते समय भगवान गणेश की मूर्ति या चित्र के सामने बैठें और दीपक जलाएं।
- लाल पुष्प, दूर्वा और मोदक अर्पित करें।
- मानसिक एकाग्रता और श्रद्धा के साथ पाठ करें।