“नागपत्नीकृत श्रीकृष्ण स्तोत्र” विष्णुपुराण में वर्णित एक अत्यंत करुणामय और प्रभावशाली स्तुति है, जिसे कालिय नाग की पत्नियों (नागपत्नियों) ने श्रीकृष्ण की करुणा और क्षमा प्राप्त करने के लिए गाया था।
यह स्तोत्र उस प्रसंग से संबंधित है जब श्रीकृष्ण ने यमुनाजल में रह रहे विषैले कालिय नाग को पराजित कर उसे अपने चरणों से दबा दिया था। जब कालिय का जीवन संकट में पड़ा, तब उसकी पत्नियाँ भय, श्रद्धा और भक्ति से भरकर भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आईं और यह स्तोत्र गाकर उनके दिव्य स्वरूप, सर्वज्ञता, अलौकिक शक्ति और दयामयी स्वभाव की स्तुति की।
इस स्तोत्र में नागपत्नियाँ भगवान से कहती हैं कि —
“आप तो जगत् के रचयिता हैं, आपको कोई जान ही नहीं सकता, फिर भी आप पर दीनों की दया रहती है। हमारे पति ने अपराध किया है, पर वह दुर्बल है और जीवन त्याग रहा है — कृपा कर उसे क्षमा करें।”
यह स्तोत्र न केवल भक्ति और श्रद्धा की चरम सीमा को दर्शाता है, बल्कि यह यह भी बताता है कि भगवान सच्चे समर्पण, पश्चाताप और विनम्रता से प्रसन्न होते हैं, चाहे अपराध कितना भी बड़ा क्यों न हो।
श्रीविष्णुपुराणे नागपत्नीकृत श्रीकृष्ण स्तोत्रम्
ज्ञातोऽसि देवदेवेश सर्वज्ञस्त्वमनुत्तमः ।
परं ज्योतिरचिन्त्यं यत्तदंशः परमेश्वरः ॥ 1 ॥
न समर्थाः सुरास्स्तोतुं यमनन्यभवं विभुम् ।
स्वरूपवर्णनं तस्य कथं योषित्करिष्यति ॥ 2 ॥
यस्याखिलमहीव्योमजलाग्निपवनात्मकम् ।
ब्रह्माण्डमल्पकाल्पांशः स्तोष्यामस्तं कथं वयम् ॥ 3 ॥
यतन्तो न विदुर्नित्यं यत्स्वरूपं हि योगिनः ।
परमार्थमणोरल्पं स्थूलात्स्थूलं नताः स्म तम् ॥ 4 ॥
न यस्य जन्मने धाता यस्य चान्ताय नान्तकः ।
स्थितिकर्ता न चाऽन्योस्ति यस्य तस्मै नमस्सदा ॥ 5 ॥
कोपः स्वल्पोऽपि ते नास्ति स्थितिपालनमेव ते ।
कारणं कालियस्यास्य दमने श्रूयतां वचः ॥ 6 ॥
स्त्रियोऽनुकम्प्यास्साधूनां मूढा दीनाश्च जन्तवः ।
यतस्ततोऽस्य दीनस्य क्षम्यतां क्षमतां वर ॥ 7 ॥
समस्तजगदाधारो भवानल्पबलः फणी ।
त्वत्पादपीडितो जह्यान्मुहूर्त्तार्धेन जीवितम् ॥ 8 ॥
क्व पन्नगोऽल्पवीर्योऽयं क्व भवान्भुवनाश्रयः ।
प्रीतिद्वेषौ समोत्कृष्टगोचरौ भवतोऽव्यय ॥ 9 ॥
ततः कुरु जगत्स्वामिन्प्रसादमवसीदतः ।
प्राणांस्त्यजति नागोऽयं भर्तृभिक्षा प्रदीयताम् ॥ 10 ॥
भुवनेश जगन्नाथ महापुरुष पूर्वज ।
प्राणांस्त्यजति नागोऽयं भर्तृभिक्षां प्रयच्छ नः ॥ 11 ॥
वेदान्तवेद्य देवेश दुष्टदैत्यनिबर्हण ।
प्राणांस्त्यजति नागोऽयं भर्तृभिक्षा प्रदीयताम् ॥ 12 ॥
॥ इति श्रीविष्णुपुराणे नागपत्नीकृत श्रीकृष्ण स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥
श्रीविष्णुपुराणे नागपत्नीकृत श्रीकृष्ण स्तोत्रम् – हिंदी अनुवाद (Shri Vishnu Purane Nagapatnikrit Shri Krishna Stotram – Hindi translation)
- आप देवों के भी देव हैं, सब कुछ जानने वाले हैं, आपसे श्रेष्ठ कोई नहीं है।
आप वह दिव्य प्रकाश हैं जो विचार से भी परे है — वही परमेश्वर का अंश हैं। ॥1॥ - देवता भी आपकी स्तुति करने में असमर्थ हैं, जो अनन्य स्वरूपधारी, सर्वव्यापक हैं।
फिर एक स्त्री आपके स्वरूप का वर्णन कैसे कर सकती है? ॥2॥ - जिनका अंश यह सम्पूर्ण पृथ्वी, आकाश, जल, अग्नि और वायु से बना ब्रह्मांड है,
हम जैसे साधारण लोग ऐसे भगवान की स्तुति कैसे कर सकते हैं? ॥3॥ - योगीजन भी जिनके वास्तविक स्वरूप को सदा नहीं जान पाते,
जो अति सूक्ष्म भी हैं और विराट भी — हम उन्हीं को नमस्कार करते हैं। ॥4॥ - जिनका जन्म देने वाला कोई नहीं, जिनका अंत करने वाला भी कोई नहीं,
जिनकी सृष्टि को स्थिर रखने वाला भी कोई अन्य नहीं है — उन्हें हम सदा प्रणाम करते हैं। ॥5॥ - आपके भीतर क्रोध नहीं है, आपका कार्य केवल सृष्टि की रक्षा करना है।
अब कृपया कालिय नाग के दमन का कारण भी सुनिए। ॥6॥ - स्त्रियाँ, साधु, मूर्ख और दुखी प्राणी — आप सभी पर दया करते हैं।
इसलिए इस दुखी पर भी कृपा करें, हे क्षमाशील श्रेष्ठ प्रभु! ॥7॥ - समस्त संसार के आधार आप हैं, और यह फणी (नाग) अति दुर्बल है।
वह आपके चरणों से दबकर अर्धक्षण में प्राण त्याग देगा। ॥8॥ - एक ओर यह दुर्बल पन्नग है और दूसरी ओर आप सम्पूर्ण ब्रह्मांड के आश्रय हैं।
आपके लिए प्रेम और द्वेष समान हैं — क्योंकि आप अव्यय हैं। ॥9॥ - हे जगत् के स्वामी! दया करें, यह नाग पीड़ा से तड़प रहा है।
यह प्राण त्यागने को है, इसे अपने आश्रय में लीजिए। ॥10॥ - हे भुवनपति! हे जगन्नाथ! हे आदिपुरुष!
यह नाग प्राण त्याग रहा है — इसे कृपया हमारे स्वामी रूप में स्वीकार करें। ॥11॥ - हे वेदांत से जाने जाने वाले देवेश! हे दुष्ट दैत्यों के संहारक!
यह नाग जीवन त्याग रहा है — कृपया इसे अपने चरणों की सेवा का अवसर दीजिए। ॥12॥
॥ इस प्रकार श्रीविष्णुपुराण में वर्णित नागपत्नियों द्वारा रचित श्रीकृष्ण स्तोत्र पूर्ण हुआ ॥
इस स्तोत्र की विशेषताएँ:
- श्रीकृष्ण की दयालुता और क्षमाशीलता का अद्वितीय चित्रण
- वेदान्त सिद्धांत और ईश्वर की व्यापकता की सुंदर व्याख्या
- समर्पण की मधुरतम अभिव्यक्ति — जैसे एक भक्त प्रभु के चरणों में समर्पित होता है
- भगवान श्रीकृष्ण के विश्वव्यापी, अजन्मा, अनंत और दयामय स्वरूप की स्तुति
यह स्तोत्र कब और क्यों पढ़ें?
- जब आप जीवन में गलती से विचलित हो गए हों और ईश्वर से क्षमा पाना चाहते हों
- जब आपको ईश्वर के सर्वव्यापक और दयालु स्वरूप का स्मरण करना हो
- जब आप भक्ति, नम्रता और पूर्ण समर्पण के साथ श्रीकृष्ण का ध्यान करना चाहें
श्रीकृष्ण स्तोत्र के लाभ (Benefits):
- ईश्वर से क्षमा प्राप्ति:
यह स्तोत्र ईश्वर से दया, क्षमा और करुणा पाने के लिए अत्यंत प्रभावी है, विशेषकर तब जब व्यक्ति किसी अपराध या गलती के बोझ से द्रवित हो। - श्रीकृष्ण की कृपा का आकर्षण:
संपूर्ण समर्पण और विनम्रता से यह स्तोत्र पढ़ने पर श्रीकृष्ण की अनुकंपा सहज ही प्राप्त होती है। - विनम्रता और आत्मशुद्धि:
यह स्तोत्र मनुष्य के भीतर अहंकार को समाप्त कर दीनता, श्रद्धा और आत्म-प्रकाश का मार्ग प्रशस्त करता है। - भय, संकट और दोषों का नाश:
जैसे श्रीकृष्ण ने कालिय नाग को दंड देकर अंततः क्षमा कर दिया, वैसे ही यह स्तोत्र साधक के भय, पाप और संकटों का निवारण करता है। - संबंधों में सुधार और क्षमा भाव:
यदि किसी ने दूसरों का हानि की हो या भावनात्मक रिश्तों में टूटन हो, तो यह स्तोत्र क्षमा और पुनः सामंजस्य की ऊर्जा उत्पन्न करता है। - धार्मिक शुद्धि और साधना की स्थिरता:
साधना में हुए अनजाने दोषों के निवारण हेतु यह स्तोत्र अत्यंत लाभकारी है।
पाठ विधि (Vidhi):
- स्थान और समय चयन:
शांत, पवित्र स्थान पर प्रातःकाल या संध्या के समय इस स्तोत्र का पाठ करें। - आसन और दिशा:
पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठें। आसान के लिए कुश, ऊन या चटाई का प्रयोग करें। - संकल्प:
पाठ से पहले संकल्प लें:
“भगवन् श्रीकृष्ण की कृपा, क्षमा और आत्म-शुद्धि के लिए मैं नागपत्नीकृत श्रीकृष्ण स्तोत्र का श्रद्धापूर्वक पाठ कर रहा/रही हूँ।” - पूजन सामग्री (यदि संभव हो):
- श्रीकृष्ण का चित्र या मूर्ति
- दीपक, अगरबत्ती, पुष्प
- तुलसीदल, चंदन, नैवेद्य (मीठा)
- पाठ क्रम:
- श्रीगणेश वंदना से आरंभ करें
- फिर पूरा स्तोत्र श्रद्धा से पढ़ें
- अंत में “प्रार्थना मंत्र” या “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” जप करें
- भावना (भाव):
यह स्तोत्र याचना, पश्चाताप और समर्पण की भावना से पढ़ें। केवल पाठ नहीं, बल्कि हृदय से निवेदन करें।
📿 जाप / पाठ का उपयुक्त समय (Jaap Time):
| प्रयोजन | जाप समय | आवृत्ति |
|---|---|---|
| आत्म-शुद्धि / पश्चाताप | प्रातःकाल (5–7 बजे) | 1 या 3 बार प्रतिदिन |
| मानसिक शांति और कृपा प्राप्ति | संध्या (6–8 बजे) | 1 बार नियमित |
| विशेष संकट निवारण | एकाग्र चित्त से अमावस्या या पूर्णिमा को | 5 या 11 बार |
| धार्मिक प्रयोग / व्रत के समय | व्रत के दिन | 1 बार आवश्यक रूप से |
| भावनात्मक क्षमा / संबंध सुधार | जब हृदय द्रवित हो | केवल 1 बार भी प्रभावी |









































