देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् का शाब्दिक अर्थ है “देवी से अपराधों के लिए क्षमा याचना का स्तोत्र”। यह स्तोत्र उन भक्तों के लिए विशेष रूप से उपयोगी है जो पूजा-पाठ की विधियों में त्रुटियाँ कर बैठते हैं या जिन्हें लगता है कि उन्होंने अनजाने में देवी का अपमान किया है। इस स्तोत्र के माध्यम से भक्त माँ दुर्गा से अपनी भूलों के लिए क्षमा माँगते हैं और उनकी कृपा की याचना करते हैं।
देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् (Devi Apradh Kshamapan Stotra)
(श्री आदि शंकराचार्य कृत)
1.
न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो।
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथा:।।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं।
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम्।।
अर्थ: हे मातः! मैं तुम्हारा मन्त्र, यंत्र, स्तुति, आवाहन, ध्यान, स्तुतिकथा, मुद्रा तथा विलाप कुछ भी नहीं जानता, परन्तु सब प्रकार के क्लेशों को दूर करने वाला तुम्हारा अनुसरण करना ही जानता हूँ।
2.
विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया।
विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत्।।
तदेतत्क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे।
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।
अर्थ: हे करुणामयी माता! तुम्हारी पूजा की विधि न जानने के कारण, धन के अभाव, आलस्य और योग्यता की कमी के कारण तुम्हारे चरणों की सेवा में जो भूल हुई हो, उसे क्षमा करो। क्योंकि पुत्र तो कुपुत्र हो सकता है, पर माता कभी कुमाता नहीं होती।
3.
पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहव: सन्ति सरला:।
परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुत:।।
मदीयोऽयं त्याग: समुचितमिदं नो तव शिवे।
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।
अर्थ: हे माँ! पृथ्वी पर तुम्हारे अनेक सरल पुत्र हैं, पर उनमें मैं बहुत ही विरला, चंचल और अनुशासनहीन हूँ। फिर भी हे शिवे! मुझे त्यागना तुम्हें शोभा नहीं देता, क्योंकि माता कुमाता नहीं होती।
4.
जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता।
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया।।
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे।
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।
अर्थ: हे जगदम्ब! मैंने तुम्हारी सेवा नहीं की, और न ही तुम्हें कुछ धन अर्पण किया, फिर भी तुम मेरे प्रति अद्वितीय स्नेह रखती हो। यही तो माता का स्वभाव है – पुत्र चाहे कैसा भी हो, वह त्याग नहीं करती।
5.
परित्यक्ता देवा विविधविधिसेवाकुलतया।
मया पंचाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि।।
इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता।
निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम्।।
अर्थ: हे गणेशजननी! 85 वर्ष की आयु पार करने के बाद भी मैंने विधिवत देवताओं की सेवा नहीं की। अब यदि तुम भी मुझ पर कृपा नहीं करोगी, तो मैं किसकी शरण जाऊँगा?
6.
श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा।
निरातंको रंको विहरति चिरं कोटिकनकै:।।
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं।
जन: को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ।।
अर्थ: हे अपर्णे! जब तुम्हारे नाम के एक भी अक्षर कान में पड़ते हैं, तो चांडाल भी मधुरवक्ता बन जाता है, और दरिद्र व्यक्ति भी करोड़ों संपत्ति में सुखपूर्वक विचरण करता है। तब तुम्हारे जप का फल कौन जान सकता है?
7.
चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो।
जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपति:।।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं।
भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम्।।
अर्थ: जो शिवजी चिता का भस्म लगाते हैं, विष का भोजन करते हैं, दिगम्बर रहते हैं, गले में सर्प पहनते हैं, कपाली हैं — ऐसे शिव भी जगदीश्वर पद को इसलिए प्राप्त हुए क्योंकि उन्होंने तुम्हारा पाणिग्रहण किया।
8.
न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे।
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुन:।।
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै।
मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपत:।।
अर्थ: हे चंद्रमुखी! मुझे न मोक्ष की इच्छा है, न ही ऐश्वर्य, न ही सुख की, न ही ज्ञान की अपेक्षा है। मैं तो बस यही चाहता हूँ कि मेरा जीवन “शिव शिव, भवानी” कहते हुए बीते।
9.
नाराधितासि विधिना विविधोपचारै:।
किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभि:।।
श्यामे त्वमेव यदि किंचन मय्यनाथे।
धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव।।
अर्थ: हे श्यामा! मैंने तुम्हारी सेवा न की, उल्टा रूखे चिंतन और कटु वचनों से अपराध ही किए। फिर भी यदि तुम मुझ अनाथ पर कृपा करो, तो वह तुम्हारी महिमा है, क्योंकि माँ सदा अपने संतान पर दया करती है।
10.
आपत्सु मग्न: स्मरणं त्वदीयं।
करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि।।
नैतच्छठत्वं मम भावयेथा:।
क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति।।
अर्थ: हे दुर्गे! हे करुणामयी! जब मैं संकट में होता हूँ, तब तुम्हारा स्मरण करता हूँ — इसे मेरी दुष्टता मत समझो। जैसे भूख-प्यास से पीड़ित बालक अपनी माता को याद करता है।
11.
जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि।
अपराधपरम्परावृतं न हि माता समुपेक्षते सुतम्।।
अर्थ: हे जगदम्बे! इसमें क्या आश्चर्य है, यदि तुम मुझ पर दया करो? क्योंकि भले ही पुत्र अपराधों से भरा हो, माता फिर भी उसे नहीं छोड़ती।
12.
मत्सम: पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि।
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथा योग्यं तथा कुरु।।
अर्थ: हे महादेवी! मेरे जैसा कोई पापी नहीं है, और तुम्हारे जैसी पापों को नष्ट करने वाली कोई नहीं है। यह जानकर जैसे योग्य हो, वैसा करो।
लाभ
- आध्यात्मिक शुद्धता: इस स्तोत्र का पाठ करने से मन और आत्मा की शुद्धि होती है।
- देवी की कृपा: माँ दुर्गा की विशेष कृपा प्राप्त होती है, जिससे जीवन में सुख-शांति आती है।
- अज्ञात दोषों से मुक्ति: अनजाने में हुए पापों और दोषों से मुक्ति मिलती है।
- संकटों से रक्षा: जीवन में आने वाले संकटों और बाधाओं से रक्षा होती है।
- आत्मविश्वास में वृद्धि: भक्त के आत्मविश्वास और मानसिक शक्ति में वृद्धि होती है।
विधि
- समय: शाम के समय, विशेष रूप से 9 बजे से 11 बजे के बीच।
- स्थान: पूर्व दिशा की ओर मुख करके शांत स्थान पर बैठें।
- आसन: लाल ऊनी आसन का उपयोग करें।
- दीपक: देवी के समक्ष एक दीपक जलाएं।
- पाठ की संख्या: 1, 3 या 5 बार स्तोत्र का पाठ करें।
- आरती: पाठ के पश्चात माँ दुर्गा की आरती करें।
- भाषा: यदि संस्कृत में पाठ संभव न हो, तो हिंदी में भी किया जा सकता है।
जाप का समय
- रात्रि: रात्रि 9 बजे से 11 बजे के बीच।
- विशेष दिन: शुक्रवार के दिन इस स्तोत्र का पाठ विशेष फलदायी माना जाता है।
- नवरात्रि: नवरात्रि के दिनों में इसका पाठ अत्यंत शुभ होता है।