
भारत के इतिहास और पुराणों में कुछ घटनाएँ ऐसी हैं जो केवल धार्मिक प्रसंग नहीं, बल्कि मानव स्वभाव की गहराई, प्रतिशोध की ज्वाला और करुणा की विजय का प्रतीक बन जाती हैं।
ऐसी ही एक अद्भुत कथा है राजा जन्मेजय और उनके नागदाह यज्ञ की, जो महाभारत के आदिपर्व में वर्णित है।
भगवान श्रीराम की बहन — शांता देवी की अनसुनी कहानी
राजा जन्मेजय कौन थे? (Who was King Janamejaya?)
राजा जन्मेजय, महान योद्धा अभिमन्यु के पौत्र और राजा परीक्षित के पुत्र थे।
राजा परीक्षित स्वयं अर्जुन के वंशज थे — इस प्रकार जन्मेजय पांडव वंश की चौथी पीढ़ी के राजा माने जाते हैं।
उनके शासनकाल में ही महर्षि वेदव्यास ने अपने शिष्य वैशंपायन से महाभारत कथा का प्रथम बार श्रवण करवाया था।
विष का बदला — परीक्षित की मृत्यु (The Death of King Parikshit)
एक बार राजा परीक्षित शिकार के दौरान थककर और प्यास से व्याकुल होकर शमिका ऋषि के आश्रम पहुँचे।
जब ध्यानमग्न ऋषि ने कोई उत्तर नहीं दिया, तो क्रोध में आकर उन्होंने एक मृत सर्प को उनके गले में डाल दिया।
ऋषि के पुत्र शृंगी ने यह अपमान देखकर श्राप दिया —
“जिसने मेरे पिता का अपमान किया है, उसे तक्षक नामक नाग सातवें दिन डँसेगा।”
और ठीक सातवें दिन, तक्षक सर्प ने राजा परीक्षित को विष देकर भस्म कर दिया।
शकुंतला और दुष्यंत: प्रेम, विरह और पुनर्मिलन की अमर गाथा
प्रतिशोध की ज्वाला — नागदाह यज्ञ (The Fire of Revenge: The Snake Sacrifice)
जब राजा जन्मेजय को यह ज्ञात हुआ कि उनके पिता की मृत्यु तक्षक नाग के विष से हुई है, तो उनके भीतर प्रतिशोध की ज्वाला भड़क उठी।
उन्होंने निर्णय लिया कि वे संपूर्ण नागवंश का संहार करेंगे।
उन्होंने महर्षियों की सहायता से एक विशाल यज्ञ आयोजित किया, जिसे नागदाह यज्ञ या सर्पसत्र कहा गया।
इस यज्ञ में शक्तिशाली मंत्रों का प्रयोग होता था, जिनके प्रभाव से नाग स्वयं आकाश से उड़ते हुए यज्ञकुंड की अग्नि में गिरकर भस्म हो जाते थे।
हजारों सर्प उस यज्ञ में जलकर नष्ट हो गए।
यज्ञ की ज्वाला इतनी प्रचंड थी कि कहा जाता है, उसकी लपटें स्वर्गलोक तक पहुँचीं और देवता भी विचलित हो उठे।
धोबी का प्रश्न और सीता त्याग की कथा — श्रीराम के जीवन का सबसे मार्मिक अध्याय
आस्तिक मुनि का आगमन (Arrival of Sage Astika)

जब यह भीषण संहार चल रहा था, सर्पराज वासुकि अत्यंत चिंतित हुए।
उन्होंने अपने भांजे आस्तिक मुनि को यह यज्ञ रोकने के लिए भेजा।
आस्तिक मुनि, जो मनसा देवी और ऋषि जरत्कारु के पुत्र थे, ज्ञान और विनम्रता से परिपूर्ण थे।
वे यज्ञ स्थल पर पहुँचे और राजा जन्मेजय की प्रशंसा करते हुए बोले —
“राजन, प्रतिशोध में निर्दोषों का संहार अधर्म है। जो दोषी है, दंड उसका होना चाहिए, परंतु सम्पूर्ण जाति का विनाश धर्म नहीं कहलाता।”
राजा जन्मेजय उनके ज्ञान और शांत स्वर से प्रभावित हुए और उन्होंने तुरंत नागदाह यज्ञ रुकवा दिया।
तक्षक नाग इस प्रकार मृत्यु से बच गया।
नागदाह यज्ञ की स्मृति (The Legacy of the Snake Sacrifice)
आज भी भारत के कई राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, और हरियाणा में “नागदाह” नाम से गाँव और क्षेत्र पाए जाते हैं।
कहा जाता है कि ये वे स्थान हैं जहाँ कभी यह यज्ञ संपन्न हुआ था या जहाँ नागों का संहार हुआ था।
ये स्थान इस अद्भुत ऐतिहासिक और पौराणिक घटना की याद दिलाते हैं।
हिन्दू धर्म के 16 संस्कार (16 Sacraments of Hinduism) : जीवन की पवित्र यात्रा
इस कथा से मिलने वाली सीख (Moral of the Story)
नागदाह यज्ञ की कथा हमें एक गहरी सीख देती है —
“क्रोध और प्रतिशोध विनाश का मार्ग है, जबकि दया, विवेक और क्षमा ही सच्चा धर्म है।”
आस्तिक मुनि ने न केवल सर्पों को जीवनदान दिया, बल्कि मानवता को यह अमूल्य संदेश भी दिया कि
क्षमा ही सबसे बड़ा बल है, और धर्म हमेशा करुणा के साथ चलता है।
भगवान गणेश के दो विवाह का रहस्य: रिद्धि और सिद्धि से जुड़ी अद्भुत कथा