जैन धर्म में नेमिनाथ भगवान चौबीसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ से पहले के तेईसवें तीर्थंकर माने जाते हैं। उनका जन्म सोरठ (गुजरात) के शौरिपुर में हुआ था। उन्हें अरिष्टनेमि या नेमिनाथ के नाम से भी जाना जाता है। उनके जीवन से जुड़ी शिक्षाएँ करुणा, अहिंसा और त्याग पर आधारित हैं।
नेमिनाथ सलोक (शलोक) विशेष रूप से भगवान नेमिनाथ के गुणगान और उनके द्वारा दिखाए गए सत्य मार्ग का वर्णन करते हैं। इन शलोकों में जैन धर्म के मूल सिद्धांत जैसे – अहिंसा, अपरिग्रह, सत्य, करुणा और आत्मशुद्धि को सरल और भावपूर्ण शब्दों में समझाया गया है।
इन सलोकों का पाठ भक्तों को मानसिक शांति, आत्मिक बल और मोक्षमार्ग की प्रेरणा देता है। जैन परंपरा में यह माना जाता है कि नेमिनाथ भगवान ने प्राणीमात्र की करुणा में विवाह का त्याग कर संन्यास धारण किया था। यही संदेश उनके शलोकों में झलकता है कि – सच्चा सुख त्याग और आत्मसंयम में है, न कि भौतिक वस्तुओं में।
नेमिनाथ सलोको (Neminath Saloko)
सरस्वती माता तुम पाये लागुं, देव गुरु तणी आज्ञा मांगुं,
जिह्वाअग्रे तुं बेसजे आई, वाणी तणी तुं करजे सवाई.. (१)
आघो पाछो कोइ अक्षर थावे, माफ करजो जे दोष कांई नावे,
तगण सगण ने जगणना ठाठ, ते आदे दई गण छे आठ.. (२)
कीया सारा ने कीया निषेध, तेनो न जाणुं उंडारथ भेद,
कविजन आगल मारी शी मति, दोष टालजो माता सरस्वती.. (३)
नेमजी केरो कहीशुं सलोको, एक चित्तेथी सांभळजों लोको,
राणी शिवादेवी समुदर राजा, तस कुल आव्या करवा दिवाजा.. (४)
गर्भे कारतक वद बारशे रह्या, नव मास ने आठ दीन थया,
प्रभुजी जनम्यानी तारीख जाणुं श्रावण सुदी पांचम चित्रा वखाणुं.. (५)
जनम्या तणी तो नोबत वागी, मातापिताने कीधां वडभागी,
तरियां तोरण बांध्या छे बार, भरी मुक्ताफळ वधावे नार.. (६)
अनुक्रमे प्रभुजी मोटेरा थाय, क्रीडा करवाने नेमजी जाय,
सरखे सरखा छे संगाते छोरा, लटके बहुमूला कलगी तोरा.. (७)
रमत करता जाय छे तिहां, दीठी आयुधशाळा छे जिहां,
नेम पुछे छे सांभळो भ्रात, आ ते शुं छे ? कहो तमे वात.. (८)
त्यारे सरखा सहु त्यां वाण, सांभणो नेमजी चतुर सुजाण,
तमारो भाई कृष्णजी कहीए. तेने बांधवा आयुध जोईए.. (९)
शंख चक्र ने गदा ए नाम, बीजो बांधवा घाले नहीं हाम,
एहवो बीजो कोइ बलीयो जो थाय, आवा आयुध तेने बंधाय.. (१०)
नेम कहे छे घालुं हुं हाम, एमां भारे शुं महोटुं काम,
एवुं कहीने शंख ज लीधों, पोते वगाडी नादज कीधो.. (११)
ते टाणे थयो महोटो डमडोळ, सारना नीर चढ्या कल्लोल,
पर्वतनी टुंको पडवाने लागी, हाथी घोडा तो जाय छे भागी.. (१२)
झबकी नारीओ नव लागी वार, तुट्या नवसर मोतीना हार,
धरा ध्रुजी ने मेघ गडगडीओ, महोंटी ईमारतों तूटीने पडीयो.. (१३)
सहुनां कालजां फरवाने लाग्यां, स्त्री पुरुष जाय छे भाग्यां,
कृष्ण बलभद्र करे छे वात, भाई शो थयों आ ते उत्पात.. (१४)
शंख नाद तो बीजे नव थाय, एहवो बलियो ते कोण कहेवाय,
काढो खबर आ ते शुं थयुं, भांग्युं नगर के कोई उगरीयुं.. (१५)
ते टाणे कृष्ण पाम्या वधाई, ए तो तमारो नेमजी भाई,
कृष्ण पुछे छे नेमजी वात, भाई शो कीधो आ तें उत्पात.. (१६)
नेमजी कहे सांभलो हरी, में तो अमस्ती रमत करी,
अतुली बल दीहठुं नानुडे वेषे, कृष्णजी जाणे ए राजने लेशे.. (१७)
त्यारे विचार्युं देव मोरारि, एने परणावुं सुंदर नारी,
त्यारे बल एनुं ओछुं जो थाय, तो तो आपणे अहीं रहेवाय.. (१८)
एवो विचार मनमां आणी, तेड्या लक्ष्मीजी आदे पटराणी,
जलक्रीडा करवा तमे सहु जाओ, नेमने तमे विवाह मनावो.. (१९)
चाली पटराणी सरवे साजे, चालो देवरीया नावाने काजे,
जलक्रीडा करतां बोल्यां रुक्ष्मणी, देवरीया परणों छबीली राणी.. (२०)
वांढा नवि रहीये देवर नगीना, लावो देराणी रंगना भीना,
नारी विना तो दु:ख छे घाटुं कोण राखशे बार उधाडुं.. (२१)
परण्या विना तो केम ज चाले, करी लटकों घरमां कोण माले
चूलो फुंकशो पाणीने गळशो, वेलां मोडां तो भोजन करशो.. (२२)
बारणे जाशों अटकावी ताळुं, आवी असुरा करशो वाळुं,
दीवाबत्तीने कोण ज करशे, लींप्या विना तो उचेरा वळशे.. (২৩)
वासण उपर तो नहीं आवे तेज, कोण पाथरशे तमारी सेज,
प्रभाते लुखो खाखरो खाशो देवता लेवा सांजरे जाशो.. (२४)
मननी वातो कोणने कहेवाशे, ते दिन नारीनो ओरतो थाशे,
परोणा आवीने पाछा जाशे, देश विदेशे वातो बहहु थाशे.. (२५)
महोटाना छोरु नानेथी वरीया, मार कह्युं तो मानो देवरीया,
त्यारे सत्यभामा बोल्यां त्यां वाण, सांभळो देवरीया चतुर सुजाण.. (२६)
भाभीनो भरोंसो नाशीने जाशे, परण्या विना कोण पोतानी थाशे,
पहेरी ओढीने आंगणे फरशे, झाझां वानां तो तमने करशे.. (२७)
उंचां मन भाभी केरां केम सहेशो, सुख दु:खन�ी वात कोण आगळ कहेशो,
माटे परणोने पातळीया राणी, हुं तो नहि आपुं न्हावाने पाणी.. (२८)
वांढा देवरने विश्वासे रहीए, सगां वहालामां हलकां ज थइए,
परण्या विना तो सुख केम थाशे, सगाने घेर गावा कोण जाशे.. (२९)
गणेश वधावा केने मोकलशो, तमें जशों तो शी रीते खलशो,
देराणी केरो पाड जाणीशुं ! छोरु थाशे तो विवा माणीशुं.. (३०)
माटे देवरीया देराणी लावों, अम उपर नथी तमारो दावो,
त्यारे राधिका आघेरां आवी, बोल्यां वचन मोढ़ुं मलकावी.. (३१)
शी शी वातो रे करो छो सखी, नारी परणवी रमत नथी,
कायर पुरुषनुं नथी ए काम, वापरवा जोईए झाझेरा दाम.. (३२)
झांझर नूपुर ने झीणी जवमाळा ! अणघट आटे रुपाळा,
पगपाने झांझी घुघरीओ जोईए, महोटे सांकले घुघरा जोईए.. (३३)
सोना चुडलो गुजरीना घाट, छल्ला अंगुठी अरिसा ठाठ,
घुघरी पोंची ने वांक सोनेरी, चंदन चुडीनी शोभा भलेरी.. (३४)
कल्लां सांकलां उपर सिंहमोरा, मरकत बहुमूला नंग भलेरा,
तुलशी पाटीयां जडाव जोईए, काली कंठीथी मनडुं मोहिए.. (३५)
कांठली सोहीए घुघरीयाळी, मनडुं लोभाये झुंमणुं भाळी,
नवसेरों हार मोतीनी माळा, काने टींटोडा सोनेरी गाळा.. (३६)
मचकणियां जोइए मुल्य झाझांनां, झीणां मोती पण पाणी
ताजांनां, नीलवट टीलडी शोभे बहु सारी, उपर दामणी भूलनी भारी.. (३७)
चीर चुंदडी घरचोळां साडी, पीली पटोली मागशे दहाडी,
बांट चुंदडी कसबी सोहीए, दशरा दीवाली पहेखा जोईए… (३८)
मोंघा मूलना कमखा कहेवाय, एवड़ुं नेमथी पुरुं केम थाय,
माटे परण्यानी पाडे छे नाय, नारीनु पुरुं शी रीते थाय,
त्यारे लक्ष्मीजी बोल्यां पटराणी, दीयरना मननी वातो में जाणी.. (३९)
तमारुं वयण माथे धरीशुं, बेउनुं पुरुं अमे करीशु,
माटे परणो ने अनोपम नारी, तमारो भाई देव मोरारी.. (४०)
बत्रीश हजार नारी छे जेहने, एकनो पाड चडशे तेहने,
माटे हृदय थी फीकर टाळो, काकाजी केरुँ घर अजवाळो.. (४१)
एवुं सांभळी नेम त्यां हसिया, भाभीना बोल हृदय मां वसिया,
त्यां तो कृष्णने दीधी वधाई, निश्चे परणशे तमारो भाई.. (४२)
उग्रसेन राजा घेर छे बेटी, नामे राजुल गुणनी पेटी,
नेमजी केरो विवाह त्यां कीधो, शुभ लग्ननो दिवस लीधो.. (४३)
मंडप मंडाव्या कृष्णजीराय, नेमने नित्य फुलेका थाय,
पीठी चोले ने मानिनी गाय, धवल मंगल अति वरताय.. (४४)
तरीयां तोरण बांध्यां छे बहार, मली गाय छे सोहांगण नार,
जान सजाई करे त्यां सारी, हलबल करे त्यां देव मोरारी.. (४५)
वहुवारु वातो करे छ छाने, नही रहीये घेर ने जाईशुं जाने,
छप्पन करोड जादवनो साथ, भेळा कृष्ण ने बलभद्र भ्रात.. (४६)
चडीया घोडले म्याना असवार, सुखपाल केरी लाघे नहि पार,
गाडां वेलो ने बगीओ बहु जोडी, म्याना गाडीए जोतर्या धोरी.. (४७)
बेठा जादव ते वेढ वांकडीया, सोवन मुगट हिरले जडीया,
कडां पोंचीयों बाजु बंध कशीया, शालों दुशालो ओढे छे रसीया.. (४८)
छप्पन कोटी तो बरोबरीया जाणुं, बीजा जानैया केटला वखाणु,
जानडाओ शोभे बालुडे वेषे, विवेक मोती परोवे केशे.. (४९)
सोल शणगार धरे छे अंगे, लटके अलबेली चाले उमंगे,
लीलावट टीली दामणी चळके, जेम विजळी बादळे चमके.. (५०)
चंद्रवदनी मृगा जो नेणी, सिंहलंकी जेहनी नागसी वेणी,
रथमां बेसी बाळक धवरावे, बीजी पोतानुं चीर समरावे.. (५१)
एम अनुक्रमे नारी छे झाझी, गाय गीता ने थाय छे राजी,
कोई कहे धन्य राजुल अवतार, नेम सरीखों पामी भरथार.. (५२)
कोई कहे पुण्य नेमनुं भारी, ते थकी मळी छे राजुल नारी,
एम अन्योन्य बाद वदे छे, महोड़ां मलकावी वातो करे छे.. (५३)
कोई कहे अमे जईशुं वहेली, बळदने घी पाईशुं पहेली,
कोई कहे अमारा बलद छे भारी, पहोंची न शके देव मोरारी.. (५४)
एवी बातोना गपोटा चाले, पोत पोताना मगजमां महाले,
बहोंतेर कलाने बुद्धि विशाल, नेमजी नाहीने घरे शणगार.. (५५)
पहेऱ्या पीताम्बर जरकी जामा, पासे उभा छे नेमना मामा,
माथे मुगट ते हीरले जडियो, बहु मूलो छे कसबीनों घडीयो.. (५६)
भारे कुंडल बहु मूलां मोती, शहेरनी नारी नेमने जोती,
कंठे नवसेरो मोतीनों हार, बांध्या बाजुबंध नव लागी वार.. (५७)
दशे आंगळीये वेढ ने वींटी, झीणी दिसे छे सोनेरी लीटी,
हीरा बहु जडीया पाणीना ताजा, कडां सांकळां पहेरे वरराजा.. (५८)
मोतीनो तोरो मुगटमां झळके, बहु तेजथी कलगी चळके,
राधाए आवीने आंखडी आंजी, बहु डाही छे नव जाय गांजी.. (५९)
कुमकुमनु टीलुं कीधु छे भाले, टपकुं कस्तुरी केरुँ छे गाले,
पान सोपारी श्रीफळ जोडो, भरी पोस ने चडीआ वरघोडे.. (६०)
चडी वरघोडो चउटामां आवे, नगरनी नारी मोतीए वधावे,
वाजां वागे ने नाटारंभ थाय, नेम विवेकी तोरणे जाय.. (६१)
धुंसळ मुसळ ने रवाईओ लाव्या, पोंखवा कारण सासुजी आव्या,
देव विमाने जुए छे चडी, नेम नहि परणे जाशे आ घडी.. (६२)
एवामां कीधो पशुए पोकार, सांभलो अरजी नेम दयाळ,
तमे परणशो चतुर सुजाण, परभाते जाशे पशुओना प्राण.. (६३)
माटें दया मनमां दाखों, आज अमोनें जीवतां राखों,
एवो पशुओनो सुणी पोकार, छोड़ाव्यां पशुओ नेम दयाल.. (६४)
पाछा तो फरिया परण्या ज नहीं, कुंवारी कन्या राजुल रही,
राजुल कहे न सिद्धां काज, दुश्मन थयां छे पशुओ आज.. (६५)
सांभळो सर्वे राजुल कहे छे, हरणीने तिहां ओलंभो दे छे,
चंद्रमाने तें लंछन लगाड्युं, सीतानुं तो हरण कराव्युं.. (६६)
महारी वेळा तो क्यांथी जागी, नजर आगळ जाने तुं भागी,
करे विलाप राजुल राणी, करमनी गति में तो न जाणी.. (६७)
आठ भवनी प्रीतिने ठेली, नवमे भवे कुंवारी मेली,
एवुं नव करीए नेम नगीना, जाणुं छुं मन रंगना भीना.. (६८)
तमारा भाईए रणमां रझळावी, ते तो नारी ठेकाणे नावी,
तमो कुल तो राखो छो धारो, आ फेरे आव्यो तमारो वारो.. (६९)
वरघोड़े चडी महोटो जश लीधो, पाछा वळीने फजेतों कीधो,
आंखो अंजावी पीठी चोलावी, वरघोडे चढ़तां शरम न आवी,
महोटे उपाडे जान बनावी, भाभीओ पासे गाणां गवरावी,
एवा ठाठथी सर्वेने लाव्या, स्त्री पुरुषने भला भमाव्या.. (७०)
चानक लागे तो पाछा ज फरजो, शुभ कारज अमारूं रे करजो,
पाछा न वळीआ एक ज ध्यान, देवा मांडयुं तिहां वरसी ज दान.. (७१)
दान दईने विचार ज कीधो, श्रावण सुदि छठनुं मुहूरत लीधो,
दीक्षा लीधी त्यां न लागी वार, साथे मुनिवर एक हजार.. (७२)
गिरनारे जईने कारज कीधुं, पंचावन में दिन केवल लीधुं,
पाम्या वधाई राजुल राणी, पीवा न रह्यां चांगलुं पाणी.. (७३)
नेमने जई चरणे लागी, पीयुजी पासे मोज त्यां मागी,
आपो केवल तमारी कहावुं, शुकन जोवाने नहीं जावुं.. (७४)
दीक्षा लईने कारज कीधुं, झटपट पोते केवल लीधुं.
मळ्युं अखंड ए आतमराज, गया शिवसुंदरी जोवाने काज.. (७५)
सुदिनी आठम अषाढ धारी, नेम वरीया शिव वधु नारी,
नेम राजुलनी अखंड गति, वर्णन केम थाये मारी ज मति.. (७६)
यथार्थ कहूं बुद्धि प्रमाणे, बेउंना सुख ते केवली जाणे.
गाशे भणशे ने जे कोई सांभळशे, तेना मनोरथ पुरा ए करशे.. (७७)
सिद्धनुं ध्यान हृदये जे धरशे, ते तो शिववधु निश्चय वरशे,
संवत ओगणीस श्रावण मास, वदनी पांचमनो दिवस खास.. (७८)
बार शुक्र ने चोघडीयुं सारूं, प्रसन्न थयुं मनडुं मारुं,
गाम गांगडना राजा रामसिंह, कीधो शलोको मनने उछरंग.. (७९)
महाजनना भाव थकी में कीधो, वांची शलोको मोटो जश लीधो,
देश गुजरात रेवाशी जाणो, विशा श्रीमाली नात प्रमाणो.. (८०)
प्रभुजीनी कृपाथी नवनिधि थाय, बेउ कर जोडी सुरशशी गाय,
नमे देवचंद पण सुरशशी कहीये, बेउनो अर्थ एक ज लईए.. (८१)
देव सूरजने चंद्र छे शशी, विशेषे वाणी हृदयमां वसी,
ब्यासी कडीथी पुरो में कीधों, गाई गवडावी सुयश लीधो.. (८२)
नेमिनाथ सलोक (हिंदी भावानुवाद)
(१-३)
हे सरस्वती माता! मैं आपके चरणों में वंदन करता हूँ और गुरुजन की आज्ञा लेता हूँ। मेरी जिह्वा पर आप वास करें और मेरी वाणी को सुंदर बनाएं। यदि कहीं कोई दोष या अशुद्धि आ जाए तो क्षमा करना। मैं न तो सभी नियम और निषेधों को जानता हूँ, और न ही गूढ़ अर्थों को समझता हूँ। कवियों के सामने मेरी बुद्धि अल्प है, कृपा कर दोष टाल दीजिए माता।
(४-६)
अब मैं नेमिनाथ प्रभु का जीवनकथानक सुनाऊँगा। समुद्र नामक राजा और रानी शिवादेवी के वंश में प्रभु का अवतार हुआ। कार्तिक वद बारस से गर्भ में रहकर नौ माह और आठ दिन बाद श्रावण शुक्ल पंचमी को चित्रा नक्षत्र में प्रभु का जन्म हुआ। जन्म के समय नगर में नगाड़े बजे, माता-पिता अत्यंत भाग्यशाली हुए, घर-घर तोरण बंधे और रत्न-मोती से उत्सव मनाया गया।
(७-११)
अनुक्रम से नेमिनाथ बड़े हुए। वे अन्य बालकों के साथ खेलते थे। एक दिन वे आयुधशाला (हथियारगृह) में पहुंचे और पूछा – “ये सब क्या है?” तो भाइयों ने बताया कि यह शंख, चक्र और गदा जैसे शस्त्र हैं, जिन्हें भगवान विष्णु धारण करते हैं। बलवान पुरुष ही इन्हें धारण कर सकते हैं। नेमिनाथ जी ने हंसकर कहा – “तो मैं भी इसे बजाकर देखता हूँ।” और उन्होंने शंख उठाकर बजाया।
(१२-१४)
शंख के नाद से पूरा नगर कांप उठा। समुद्र में लहरें उठीं, पहाड़ हिल गए, हाथी-घोड़े भागने लगे, स्त्रियों के हार टूट गए, और बड़ी-बड़ी इमारतें गिरने लगीं। नगरवासी भयभीत होकर भागने लगे। तभी श्रीकृष्ण और बलराम आए और बोले – “यह कौन महान बलवान है, जिसने ऐसा उत्पात मचा दिया?”
(१५-१७)
लोगों ने बताया कि यह तो आपका ही भाई नेमिनाथ है। कृष्ण ने पूछा – “भाई, तुमने ऐसा क्यों किया?” नेमिनाथ ने हंसते हुए कहा – “मैं तो केवल खेल रहा था।” यह देख सबको ज्ञात हो गया कि यह बालक अलौकिक शक्ति का धनी है।
(१८-३१)
कृष्ण ने सोचा – “ऐसे वीर भाई के लिए एक योग्य पत्नी का चयन होना चाहिए।” और उन्होंने राजुल (राजीमती) नामक राजकुमारी से विवाह का निश्चय किया। इस अवसर पर कृष्ण की रानियाँ जैसे रुक्मिणी, सत्यभामा आदि ने विवाह का महत्व और स्त्री के गुणगान करते हुए परिहास और वार्तालाप किया। उन्होंने गहनों, वस्त्रों और स्त्रियों के सिंगार का सुंदर वर्णन किया।
(३२-४०)
स्त्रियाँ हंसी-ठिठोली में बोलीं – “स्त्री बिना पुरुष का जीवन अधूरा है। भोजन, घर, दीपक, संस्कार – सब अधूरे हैं। विवाह के बिना परिवार का सुख नहीं मिलता।” अंत में लक्ष्मीजी पटरानी ने कहा – “तुम चिंता मत करो, हम सब मिलकर विवाह का कार्य करेंगे।”
(४१-४९)
नेमिनाथ के विवाह की तैयारियाँ शुरू हुईं। नगर सजाया गया, तोरण बांधे गए, मंडप रचे गए। कृष्ण और बलराम समेत ५६ करोड़ यादव विवाह में शामिल हुए। सबने भव्य श्रृंगार धारण किया। दुल्हन राजुल के लिए बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण सजाए गए।
(५०-६१)
नववधु राजुल रथ पर बैठकर आई। चारों ओर गान-वाद्य बजने लगे। दूल्हा नेमिनाथ पीले वस्त्र और रत्नजटित मुकुट से शोभायमान हुए। जब वे वरघोड़े पर चढ़े तो नगर की स्त्रियों ने मंगल गीत गाए।
(६२-६४)
तभी विवाह मंडप में पशुओं का रुदन सुनाई दिया। वे कह रहे थे – “यदि आज यह विवाह होगा तो कल हमारी हत्या होगी। हमें बचाइए प्रभु!” करुणामय नेमिनाथ ने यह आर्तनाद सुना और तत्काल सभी पशुओं को वध से मुक्त करवा दिया।
(६५-७०)
राजुल अत्यंत दुखी हो गई और रोते हुए बोली – “हे नेम! आपने विवाह अधूरा क्यों छोड़ा?” नेमिनाथ ने समझाया कि संसार का सुख क्षणभंगुर है, और सच्चा सुख तो आत्मकल्याण में है। इस प्रकार वे विरक्ति भाव से विवाह मंडप से लौट आए।
(७१-७५)
इसके बाद नेमिनाथ ने श्रावण शुक्ल षष्ठी को दीक्षा धारण की। एक ही दिन में उन्होंने केवलज्ञान (केवलज्ञान = सर्वज्ञता) प्राप्त कर लिया। उनकी दीक्षा में हजारों मुनि भी शामिल हुए।
(७६-८२)
नेमिनाथ और राजुल की कथा अत्यंत करुण और प्रेरणादायक है। जो भी इसे श्रद्धा से सुनता है, उसके मनोरथ सिद्ध होते हैं। प्रभु के कृपा से धर्म, सुख और मोक्ष की प्राप्ति होती है।