“श्री सुब्रह्मण्य भुजङ्ग स्तोत्रम्” भगवान स्कंद, कार्तिकेय, मुरुगन, या कुमारस्वामी को समर्पित एक अत्यंत मधुर और भक्तिपूर्ण स्तोत्र है, जिसकी रचना महाकवि कालिदास ने भुजङ्ग छंद में की है। यह स्तोत्र न केवल काव्य सौंदर्य में अद्वितीय है, बल्कि भाव और भक्ति की गहराई से भी परिपूर्ण है।
इस स्तोत्र में भगवान स्कंद के विभिन्न दिव्य रूपों, उनके आयुधों (शक्ति), वाहन (मयूर), दिव्य सौंदर्य, करुणा, शौर्य, और भक्तों के प्रति उनके प्रेम का अत्यंत सुंदर वर्णन है। भक्त भगवान को पुत्रवत् पुकारते हुए उनके चरणों में अपनी शरणागति प्रकट करता है, और जीवन, मृत्यु तथा मुक्ति सभी में उनकी कृपा की याचना करता है।
इस स्तोत्र के माध्यम से यह विश्वास प्रकट होता है कि भगवान स्कंद केवल युद्ध के देवता ही नहीं, अपितु करुणा और भक्ति के भी स्रोत हैं। वे छोटे-बड़े, जाति-धर्म-रूप से परे सभी भक्तों के दुःख हरने वाले हैं।
श्री सुब्रमन्य भुजंगा स्तोत्रं (Sri Subramanya Bhujanga Stotram)
सदा बालरूपाऽपि विघ्नाद्रिहंत्री
महादंतिवक्त्राऽपि पंचास्यमान्या ।
विधींद्रादिमृग्या गणेशाभिधा मे
विधत्तां श्रियं काऽपि कल्याणमूर्तिः ॥ 1 ॥
न जानामि शब्दं न जानामि चार्थं
न जानामि पद्यं न जानामि गद्यम् ।
चिदेका षडास्या हृदि द्योतते मे
मुखान्निःसरंते गिरश्चापि चित्रम् ॥ 2 ॥
मयूराधिरूढं महावाक्यगूढं
मनोहारिदेहं महच्चित्तगेहम् ।
महीदेवदेवं महावेदभावं
महादेवबालं भजे लोकपालम् ॥ 3 ॥
यदा संनिधानं गता मानवा मे
भवांभोधिपारं गतास्ते तदैव ।
इति व्यंजयन्सिंधुतीरे य आस्ते
तमीडे पवित्रं पराशक्तिपुत्रम् ॥ 4 ॥
यथाब्धेस्तरंगा लयं यांति तुंगा-
स्तथैवापदः संनिधौ सेवतां मे ।
इतीवोर्मिपंक्तीर्नृणां दर्शयंतं
सदा भावये हृत्सरोजे गुहं तम् ॥ 5 ॥
गिरौ मन्निवासे नरा येऽधिरूढा-
स्तदा पर्वते राजते तेऽधिरूढाः ।
इतीव ब्रुवन्गंधशैलाधिरूढः
स देवो मुदे मे सदा षण्मुखोऽस्तु ॥ 6 ॥
महांभोधितीरे महापापचोरे
मुनींद्रानुकूले सुगंधाख्यशैले ।
गुहायां वसंतं स्वभासा लसंतं
जनार्तिं हरंतं श्रयामो गुहं तम् ॥ 7 ॥
लसत्स्वर्णगेहे नृणां कामदोहे
सुमस्तोमसंछन्नमाणिक्यमंचे ।
समुद्यत्सहस्रार्कतुल्यप्रकाशं
सदा भावये कार्तिकेयं सुरेशम् ॥ 8 ॥
रणद्धंसके मंजुलेऽत्यंतशोणे
मनोहारिलावण्यपीयूषपूर्णे ।
मनःषट्पदो मे भवक्लेशतप्तः
सदा मोदतां स्कंद ते पादपद्मे ॥ 9 ॥
सुवर्णाभदिव्यांबरैर्भासमानां
क्वणत्किंकिणीमेखलाशोभमानाम् ।
लसद्धेमपट्टेन विद्योतमानां
कटिं भावये स्कंद ते दीप्यमानाम् ॥ 10 ॥
पुलिंदेशकन्याघनाभोगतुंग-
स्तनालिंगनासक्तकाश्मीररागम् ।
नमस्याम्यहं तारकारे तवोरः
स्वभक्तावने सर्वदा सानुरागम् ॥ 11 ॥
विधौ क्लृप्तदंडान्स्वलीलाधृतांडा-
न्निरस्तेभशुंडांद्विषत्कालदंडान् ।
हतेंद्रारिषंडान्जगत्राणशौंडा-
न्सदा ते प्रचंडान्श्रये बाहुदंडान् ॥ 12 ॥
सदा शारदाः षण्मृगांका यदि स्युः
समुद्यंत एव स्थिताश्चेत्समंतात् ।
सदा पूर्णबिंबाः कलंकैश्च हीना-
स्तदा त्वन्मुखानां ब्रुवे स्कंद साम्यम् ॥ 13 ॥
स्फुरन्मंदहासैः सहंसानि चंच-
त्कटाक्षावलीभृंगसंघोज्ज्वलानि ।
सुधास्यंदिबिंबाधराणीशसूनो
तवालोकये षण्मुखांभोरुहाणि ॥ 14 ॥
विशालेषु कर्णांतदीर्घेष्वजस्रं
दयास्यंदिषु द्वादशस्वीक्षणेषु ।
मयीषत्कटाक्षः सकृत्पातितश्चे-
द्भवेत्ते दयाशील का नाम हानिः ॥ 15 ॥
सुतांगोद्भवो मेऽसि जीवेति षड्धा
जपन्मंत्रमीशो मुदा जिघ्रते यान् ।
जगद्भारभृद्भ्यो जगन्नाथ तेभ्यः
किरीटोज्ज्वलेभ्यो नमो मस्तकेभ्यः ॥ 16 ॥
स्फुरद्रत्नकेयूरहाराभिराम-
श्चलत्कुंडलश्रीलसद्गंडभागः ।
कटौ पीतवासाः करे चारुशक्तिः
पुरस्तान्ममास्तां पुरारेस्तनूजः ॥ 17 ॥
इहायाहि वत्सेति हस्तान्प्रसार्या-
ह्वयत्यादराच्छंकरे मातुरंकात् ।
समुत्पत्य तातं श्रयंतं कुमारं
हराश्लिष्टगात्रं भजे बालमूर्तिम् ॥ 18 ॥
कुमारेशसूनो गुह स्कंद सेना-
पते शक्तिपाणे मयूराधिरूढ ।
पुलिंदात्मजाकांत भक्तार्तिहारिन्
प्रभो तारकारे सदा रक्ष मां त्वम् ॥ 19 ॥
प्रशांतेंद्रिये नष्टसंज्ञे विचेष्टे
कफोद्गारिवक्त्रे भयोत्कंपिगात्रे ।
प्रयाणोन्मुखे मय्यनाथे तदानीं
द्रुतं मे दयालो भवाग्रे गुह त्वम् ॥ 20 ॥
कृतांतस्य दूतेषु चंडेषु कोपा-
द्दहच्छिंद्धि भिंद्धीति मां तर्जयत्सु ।
मयूरं समारुह्य मा भैरिति त्वं
पुरः शक्तिपाणिर्ममायाहि शीघ्रम् ॥ 21 ॥
प्रणम्यासकृत्पादयोस्ते पतित्वा
प्रसाद्य प्रभो प्रार्थयेऽनेकवारम् ।
न वक्तुं क्षमोऽहं तदानीं कृपाब्धे
न कार्यांतकाले मनागप्युपेक्षा ॥ 22 ॥
सहस्रांडभोक्ता त्वया शूरनामा
हतस्तारकः सिंहवक्त्रश्च दैत्यः ।
ममांतर्हृदिस्थं मनःक्लेशमेकं
न हंसि प्रभो किं करोमि क्व यामि ॥ 23 ॥
अहं सर्वदा दुःखभारावसन्नो
भवांदीनबंधुस्त्वदन्यं न याचे ।
भवद्भक्तिरोधं सदा क्लृप्तबाधं
ममाधिं द्रुतं नाशयोमासुत त्वम् ॥ 24 ॥
अपस्मारकुष्टक्षयार्शः प्रमेह-
ज्वरोन्मादगुल्मादिरोगा महांतः ।
पिशाचाश्च सर्वे भवत्पत्रभूतिं
विलोक्य क्षणात्तारकारे द्रवंते ॥ 25 ॥
दृशि स्कंदमूर्तिः श्रुतौ स्कंदकीर्ति-
र्मुखे मे पवित्रं सदा तच्चरित्रम् ।
करे तस्य कृत्यं वपुस्तस्य भृत्यं
गुहे संतु लीना ममाशेषभावाः ॥ 26 ॥
मुनीनामुताहो नृणां भक्तिभाजा-
मभीष्टप्रदाः संति सर्वत्र देवाः ।
नृणामंत्यजानामपि स्वार्थदाने
गुहाद्देवमन्यं न जाने न जाने ॥ 27 ॥
कलत्रं सुता बंधुवर्गः पशुर्वा
नरो वाथ नारी गृहे ये मदीयाः ।
यजंतो नमंतः स्तुवंतो भवंतं
स्मरंतश्च ते संतु सर्वे कुमार ॥ 28 ॥
मृगाः पक्षिणो दंशका ये च दुष्टा-
स्तथा व्याधयो बाधका ये मदंगे ।
भवच्छक्तितीक्ष्णाग्रभिन्नाः सुदूरे
विनश्यंतु ते चूर्णितक्रौंचशैल ॥ 29 ॥
जनित्री पिता च स्वपुत्रापराधं
सहेते न किं देवसेनाधिनाथ ।
अहं चातिबालो भवान् लोकतातः
क्षमस्वापराधं समस्तं महेश ॥ 30 ॥
नमः केकिने शक्तये चापि तुभ्यं
नमश्छाग तुभ्यं नमः कुक्कुटाय ।
नमः सिंधवे सिंधुदेशाय तुभ्यं
पुनः स्कंदमूर्ते नमस्ते नमोऽस्तु ॥ 31 ॥
जयानंदभूमं जयापारधामं
जयामोघकीर्ते जयानंदमूर्ते ।
जयानंदसिंधो जयाशेषबंधो
जय त्वं सदा मुक्तिदानेशसूनो ॥ 32 ॥
भुजंगाख्यवृत्तेन क्लृप्तं स्तवं यः
पठेद्भक्तियुक्तो गुहं संप्रणम्य ।
स पुत्रान्कलत्रं धनं दीर्घमायु-
र्लभेत्स्कंदसायुज्यमंते नरः सः ॥ 33 ॥
॥ इति श्री सुब्रह्मण्य भुजङ्ग स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥
श्री सुब्रह्मण्य भुजङ्ग स्तोत्रम् – हिंदी अनुवाद सहित (Sri Subrahmanya Bhujang Stotram – with Hindi translation)
1.
बाल रूप में रहते हुए भी जो विघ्न रूपी पर्वतों को नष्ट करती हैं,
हाथी के समान विशाल मुख वाली होकर भी जो पंचमुखी देवों के समान पूज्य हैं,
जिन्हें ब्रह्मा और इंद्र जैसे देव भी पाना चाहते हैं,
ऐसे कल्याण स्वरूप गणेशजी मेरी श्रीवृद्धि करें।
2.
न मुझे शब्द का ज्ञान है, न अर्थ का,
न छंदबद्ध कविता आती है, न गद्य लिखना,
परंतु मेरे हृदय में केवल छह मुख वाले परमात्मा विराजमान हैं,
और मेरे मुख से स्वतः सुंदर वाणी निकलती है।
3.
जो मयूर पर विराजमान हैं, वेदांत के रहस्यों से युक्त हैं,
मनोहर शरीर वाले हैं, महान चित्त में वास करते हैं,
पृथ्वी के देवताओं के देवता हैं, महावेदस्वरूप हैं,
ऐसे महादेव के पुत्र लोकपाल स्कंद को मैं नमन करता हूँ।
4.
जिन मनुष्यों ने उनके समीपता पाई,
वे भवसागर को पार कर गए,
जो इस प्रकार सागर तट पर विराजमान होकर इसका संकेत देते हैं,
उस पवित्र शक्ति-पुत्र गुह (कार्तिकेय) को मैं नमस्कार करता हूँ।
5.
जैसे समुद्र की तरंगें ऊँची हो कर भी विलीन हो जाती हैं,
वैसे ही उनके सेवकों की आपदाएँ उनके पास आने पर समाप्त हो जाती हैं,
जो इस रहस्य को लहरों के समान प्रकट करते हैं,
उस गुह को मैं अपने हृदय रूपी कमल में सदा धारण करता हूँ।
6.
जो लोग मेरे निवास स्थान पर्वत पर चढ़े,
वे वास्तव में राजा पर्वत पर ही चढ़े माने जाते हैं – ऐसा
गंधमादन पर्वत पर स्थित देव स्वयं कहते हैं,
वह षण्मुख सदा मेरी प्रसन्नता का कारण बनें।
7.
जो महा पापियों का उद्धार करते हैं,
जो श्रेष्ठ मुनियों के प्रिय हैं,
जो सुगंध नामक पर्वत की गुहा में अपने तेज से चमकते हुए निवास करते हैं,
जनकल्याण करने वाले ऐसे गुह की मैं शरण लेता हूँ।
8.
जो स्वर्णमंदिर में कामनाओं की पूर्ति करते हैं,
रत्नों से जड़े सिंहासन पर विराजमान हैं,
हजारों सूर्य के समान तेजोमय हैं,
मैं सदा सुरेश कार्तिकेय का ध्यान करता हूँ।
9.
जो युद्ध के नगाड़ों की गूंज में लाल रंग में लिप्त हैं,
जिनका सौंदर्य मन को मोहित करता है,
मेरे भवक्लेश से पीड़ित मन रूपी भ्रमर
आपके चरणकमलों में सदा आनंदित हो, हे स्कंद!
10.
जो स्वर्ण जैसे दिव्य वस्त्रों से चमकते हैं,
कमर में झंकार करती किलकिलियों से शोभायमान हैं,
चमकते रत्न जटाओं से युक्त कमर वाले हैं,
मैं आपके उस तेजस्वी कटि भाग का ध्यान करता हूँ।
11.
जो पुलिंद देश की युवती के गाढ़े वक्षस्थल से लिपटे हुए हैं,
केसर जैसे अनुराग में रंगे हुए हैं,
हे तारकासुर के संहारक,
आपके उस भक्तवत्सल वक्ष को मैं नमन करता हूँ।
12.
जो ब्रह्मा द्वारा बनाए गए प्रजाओं के दंड का पालन करते हैं,
स्वेच्छा से ब्रह्मांडों को धारण करते हैं,
गजमुख शत्रुओं को पराजित करते हैं,
इंद्र के शत्रुओं का संहार कर विश्व की रक्षा करते हैं,
आपके बाहुबल को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।
13.
यदि आकाश में छह पूर्णिमा के चंद्रमा हों –
जो कलंकरहित हों और चारों ओर फैले हों,
तभी मैं आपके मुखों की समता की कल्पना कर सकता हूँ, हे स्कंद!
14.
जिनके मृदु मंद हास्य कमल के समान हैं,
जिनकी दृष्टि भ्रमरों के समान सुंदर हैं,
जो अमृत के समान ओठों से मधुर वाणी बरसाते हैं –
हे शिवपुत्र, मैं आपके षण्मुखों के कमल सदृश दर्शन करता हूँ।
15.
आपके बारह विशाल नेत्र करुणा से भरे हैं,
यदि उनमें से कोई एक भी मुझ पर कृपा दृष्टि डाले,
तो हे दयालु! उसमें कोई हानि नहीं है, वह मेरा कल्याण कर देगा।
16.
जो अपने भक्तों से “तू मेरा पुत्र है” कहते हैं,
वह मंत्र छह बार जपते हुए हर्षित होकर उन्हें गले लगाते हैं,
ऐसे जगत के स्वामी, इंद्र की तरह मुकुटधारी महान भक्तों को
मैं बार-बार सिर झुका कर प्रणाम करता हूँ।
17.
जिनकी भुजाओं में रत्नजड़ित केयूर और हार हैं,
जिनके गालों पर झूलते कुंडल शोभा बढ़ाते हैं,
पीताम्बर धारण करते हैं, हाथ में शक्तिशाली शक्ति (शस्त्र) है –
ऐसे पुरारि पुत्र मेरे सम्मुख सदा रहें।
18.
“इधर आओ पुत्र!” – इस प्रकार
शिव के गोद में बैठी माँ पार्वती अपने हाथ बढ़ाकर पुकारती हैं,
तब वह कुमार पिता शिव की ओर दौड़ता है,
उस बालरूप स्कंद को मैं भजता हूँ।
19.
हे कुमार, हे गुह, हे स्कंद, हे सेनापति!
शक्ति को धारण करने वाले, मयूर पर सवार,
पुलिंद कन्या के प्रिय, भक्तों के दुःख निवारक,
हे तारकासुर के विजेता, मेरी सदा रक्षा करें।
20.
जब मेरी इंद्रियाँ शांत हों, चेतना लुप्त हो,
शरीर कफ से भरा हो, और मृत्यु समीप हो,
हे दयालु गुह! उस समय शीघ्र मेरे पास आओ।
21.
जब यम के दूत क्रोध से “जलाओ, काटो, फाड़ो!” कहते हुए डराएँ,
तब आप मयूर पर सवार होकर, शक्ति हाथ में लिए,
मुझे कहें “डरो मत!” – और शीघ्र मेरे सम्मुख आओ।
22.
मैं बार-बार आपके चरणों में गिरकर प्रार्थना करता हूँ,
हे प्रभो, उस समय मैं कुछ कहने योग्य भी नहीं रहूँगा,
आप कृपामय हैं, कृपया उस अंतिम समय में मुझे उपेक्षित न करें।
23.
आपने सहस्र ब्रह्मांडों को भोगा, शूरपद नामक राक्षस को मारा,
तारकासुर और सिंहमुख दैत्य को भी हराया,
तो फिर मेरे हृदय के भीतर बसे इस एक मानसिक क्लेश को क्यों नहीं मिटाते?
मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ?
24.
मैं सदा दुःखों के बोझ से दबा हूँ,
आप ही दीनों के बंधु हैं, मैं किसी और से नहीं चाहता,
जो भी आपकी भक्ति में बाधक है,
हे पार्वतीपुत्र! कृपया मेरा वह दुख शीघ्र नष्ट करें।
25.
आपके पवित्र पत्र (भस्म या रक्षा सामग्री) को देखते ही
अपस्मार, कुष्ठ, क्षय, अर्श, प्रमेह, ज्वर, उन्माद, गुल्म और अन्य रोग,
यहाँ तक कि पिशाच तक भाग खड़े होते हैं –
हे तारकासुर-विनाशक!
26.
मेरी आँखों में स्कंद की मूर्ति,
कानों में स्कंद की कीर्ति,
मुख से आपका पवित्र चरित्र,
हाथों से आपके कार्य, शरीर से आपकी सेवा –
हे गुह! मेरे सभी भावों में आप ही रमे रहें।
27.
भक्तों की कामनाएं पूरी करने वाले देवता तो सब जगह हैं,
परंतु अंतिम जातियों के लोगों तक के हित में
आप जैसा कोई देव नहीं है – मुझे तो केवल आप ही ज्ञात हैं।
28.
मेरे घर में जो भी स्त्री-पुरुष, पुत्र-पुत्रियाँ, पशु,
या कोई भी परिजन हैं,
जो आपको पूजते हैं, प्रणाम करते हैं, स्तुति करते हैं, स्मरण करते हैं –
वे सब आपके कृपापात्र बने रहें, हे कुमार!
29.
जो दुष्ट पशु, पक्षी, कीट, व्याधियाँ
मुझे पीड़ा देते हैं –
आपकी तीव्र शक्ति से वे सब,
जैसे आपने क्रौंच पर्वत को चूर्ण किया – वैसे ही विनष्ट हो जाएँ।
30.
जैसे माता-पिता अपने पुत्र के अपराधों को सह लेते हैं,
वैसे ही हे देवसेनापति,
मैं तो अत्यंत बालक हूँ, आप लोकपिता हैं,
कृपया मेरे समस्त अपराध क्षमा करें, हे महेश!
31.
मैं मयूर को, शक्ति (शस्त्र) को,
बकरे को, कुक्कुट को,
सागर को और समुद्र देश को प्रणाम करता हूँ,
फिर से हे स्कंदमूर्ति, आपको बारम्बार नमस्कार।
32.
हे आनंद भूमि के स्वामी!
हे पारब्रह्मधाम!
हे अचूक कीर्ति वाले!
हे मुक्ति दान करने वाले शिवपुत्र!
आप सदा जयवंत रहें।
33.
जो भी भक्तिपूर्वक इस भुजंग छंद में रचित स्तोत्र का पाठ करेगा,
और गुह (स्कंद) को नमस्कार करेगा –
वह पुत्र, पत्नी, धन, दीर्घायु और अंत में स्कंद का सायुज्य प्राप्त करेगा।
॥ इति श्री सुब्रह्मण्य भुजङ्ग स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥
लाभ (Benefits):
1. संकटों से रक्षा:
यह स्तोत्र भगवान स्कंद की कृपा से सभी प्रकार की आपदाओं, भय, और ग्रहबाधाओं से रक्षा करता है।
2. रोग निवारण:
श्लोक 25 में स्पष्ट कहा गया है कि अपस्मार, कुष्ठ, प्रमेह, ज्वर, गुल्म, उन्माद, पिशाचबाधा जैसे रोगों का नाश होता है।
3. संतान प्राप्ति और रक्षण:
भगवान स्कंद संतान के रक्षक माने जाते हैं। यह स्तोत्र संतान के कल्याण, विद्या, और सुरक्षा हेतु अति प्रभावी है।
4. दीर्घायु, धन और ऐश्वर्य की प्राप्ति:
अंतिम श्लोक (श्लोक 33) में बताया गया है कि जो व्यक्ति भक्ति से इसका पाठ करता है, वह पुत्र, कलत्र, धन, और दीर्घायु प्राप्त करता है।
5. भय, मानसिक क्लेश और मृत्यु समय की पीड़ा से मुक्ति:
श्लोक 20–23 में विशेष रूप से मृत्यु के समय भगवान से कृपा की याचना है, जिससे अंत में स्कंद सायुज्य (मोक्ष) प्राप्त होता है।
विधि (Pāṭh Vidhi – पाठ की विधि):
1. स्थान चयन:
शुद्ध और शांत स्थान पर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठें।
2. पूजन सामग्री:
भगवान स्कंद की प्रतिमा या चित्र के सामने दीपक, पुष्प, चंदन, अक्षत, और यदि संभव हो तो मयूर पंख या लाल पुष्प रखें।
3. प्रारंभ करें:
ॐ स्कंदाय नमः / ॐ षण्मुखाय नमः / ॐ गुहाय नमः कहकर ध्यान लगाएँ।
4. पाठ:
- स्तोत्र का शुद्ध उच्चारण से पाठ करें।
- पाठ के बाद भगवान स्कंद से मनोकामना कहें।
- आरती करें (यदि संभव हो तो “सुब्रह्मण्य आरती”)।
5. समर्पण:
अंत में हाथ जोड़कर प्रार्थना करें:
“हे देवसेनापति! मैं आपकी शरण में हूँ, मेरे कष्टों का निवारण करें।”
जाप का समय (Recommended Timing):
दिन:
- मंगलवार, शुक्रवार, और षष्ठी तिथि (Skanda Shashti)
- विशेष रूप से मार्गशीर्ष, वैशाख, और कार्तिक माह अत्यंत शुभ माने जाते हैं।
समय:
- प्रातःकाल (सुबह 5 से 8 बजे के बीच): मानसिक शांति और दिव्यता के लिए।
- सायंकाल (शाम 6 से 8 बजे के बीच): मनोकामना पूर्ति और रक्षा हेतु।
विशेष अवसर:
- Skanda Sashti (षष्ठी तिथि) पर व्रत रखकर इसका पाठ करने से विशेष फल प्राप्त होता है।
- बालकों के कल्याण हेतु माताएँ भी इसका पाठ कर सकती हैं।
विशेष सुझाव:
- प्रतिदिन कम से कम 1 बार पाठ करें, विशेष दिनों पर 3, 7 या 11 बार करें।
- यदि समय न हो, तो केवल श्लोक 1, 3, 19, 23 और 33 का पाठ भी किया जा सकता है।