श्री लघु स्तोत्रम् एक अत्यंत प्रभावशाली एवं रहस्यमय स्तुति है जो त्रिपुराभैरवी देवी को समर्पित है। इसे वृद्धसारस्वत ऋषि द्वारा रचित माना जाता है। यह स्तोत्र देवी की शब्दशक्ति, वाणी, विद्या, योगिनी स्वरूप, एवं सर्वसिद्धिदायिनी शक्ति का गूढ़ वर्णन करता है। इसमें देवी के मंत्रात्मक, तांत्रिक और दर्शनिक स्वरूपों का अत्यंत प्रभावशाली चित्रण हुआ है।
श्लोकों के माध्यम से देवी की कुंडलिनी शक्ति, वाक्शक्ति, हृदय में स्थित दिव्य ज्योति, और सर्वसिद्धिदात्री रूप का ध्यान करने की विधि बताई गई है। यह स्तोत्र केवल भक्ति नहीं, अपितु मंत्र सिद्धि, कवित्व, तर्क, वेद-विज्ञान, और सांसारिक सफलता के लिए भी अत्यंत उपयोगी माना जाता है।
श्री लघु स्तोत्रम् न केवल देवी के अनेक रूपों को नमस्कार करता है, बल्कि यह साधक के जीवन में चमत्कारिक बदलाव लाने में समर्थ है। यह स्तोत्र सिद्ध साधकों के बीच एक रहस्यमयी और पूज्य स्तुति मानी जाती है।
श्री लघु स्तोत्रम् (Shri Laghu Stotram)
आधारे तरुणार्कबिम्बरूचिरं सोमप्रभं वाग्भवं
बीजं मनमथमिंद्रगोपकनिभं ह्रत्पंकजे संस्थितम् ।
रन्ध्रे ब्रह्मपदे च शाक्तमपरं चन्द्रप्रभाभासुरं ये
ध्यायंति पदत्रयं तव शिवे ते यांति सौख्यं पदम् ।। 1 ।।
ॐ अस्य श्रीलघुस्तोत्रस्य वृद्धसारस्वतऋषि: ।
त्रिपुराभैरवी देवता । शार्दूलविक्रीडितं छंद: ।
मम सर्वकामफलप्राप्त्र्थे जपे विनियोग: ।
ॐ ऐन्द्रस्येव शरासनस्य दधतो मध्ये ललाटप्रभां
शौक्लीं कान्तिमनुष्य गोरिव शिरस्यातन्वती सर्वत: ।
एषाऽसौ त्रिपुरा ह्रदि द्युतिरिवोष्मांशो: सदा संस्थिता
छिद्यान्न: सहसा पदैस्त्रिभिरघं ज्योतिर्मयी वांगमयी ।। 1 ।।
या मात्रा त्रिपुषोलता तनुलसत्तंतुसिथतिस्पर्धिनी
वाग्बीजे प्रथमे स्थिता तव सदा तां मन्महे ते वयम् ।
शक्ति कुण्डलिनीति विश्वजननव्यापारबद्धोद्यमां
ज्ञात्वेत्थं न पुन: स्प्रशंति जननीगर्भेर्भवत्वं नरा: ।। 2 ।।
दृष्ट्वा संभ्रमकारि वस्तु सहसा ऐं ऐमिति व्याह्रतं
येनाकूतवशादपीह वरदे बिंदु बिनाप्यक्षरम् ।
तस्यापि ध्रुवमेव देवितरसा जाते तवानुग्रहे वाच:
सूक्तिसुधारसद्रवमुचो निर्यान्ति वक्त्रोदरात् ।। 3 ।।
यन्नित्ये तव कामराजमपरं मन्त्राक्षरं निष्कलं
तत्सारस्वतमित्यवैति विरल: कश्र्चिद्बुधश्रेचद्भुवि ।
आख्यां प्रतिपर्व सत्यतपसो यत्कीर्तयन्तो द्विजा:
प्रारम्भे प्रणवास्पदं प्रणयितुं नित्योंच्चरंति स्फुटम् ।। 4 ।।
यत्सदयो वचसां प्रव्रत्तिकरणे दृष्टप्रभावं बुधै:
तात्तीयं तदहं नमामि मनसा तद्वीजमिंदुप्रभम् ।
अस्त्वौर्वोऽपि सरस्वतीमनुगते जाड्यांबुविच्छित्तये
गोशब्दो गिरिवर्तते सुनियतं योगं विना सिद्धित: ।। 5 ।।
एकैकं तव देवि जन्म हयनघं सव्यंजनाव्यंजनं
कूटस्थं यदि वा प्रथक क्रमगतं यद्वा स्थितं व्युत्क्रमात् ।
यं यं काममपेक्ष्य येन विधिना केनापि वा चिन्तितं
जप्तं वा सफलीकरोति तरसा तं तं समस्तं न्रणाम् ।। 6 ।।
वामे पुस्तकधारिणीमभयदां साक्षस्त्रजं दक्षिणे
भक्तेभ्या वरदानपेशलकरां कर्पूरकंदोज्ज्वलाम् ।
उज्ज्रम्भाम्बुजपत्रकान्तिनयनां स्त्रिग्धप्रभालोकिनीं
ये त्वामंब न शीलयन्ति मनसा तेषां कवित्वं कुत: ।। 7 ।।
ये त्वां पांडुरपुण्डरीकपटलस्पष्टाभिरामप्रभां
सिंचंतीममृतद्रवैरिव शिरो ध्यायंति मूर्ध्नि स्थिताम् ।
अश्रातं विकटं स्फुटाक्षरपदा निर्यान्ति वक्त्राम्बुजात्
तेषां भारति भारती सुरसरित्कल्लोललोलोर्मय: ।। 8 ।।
ये सिंदूरपरागपुंजपिहितां त्वत्तेजसा द्यामिमामुर्वीं
चापि विलीनयावकरसप्रस्तारमगनामिव ।
पश्यन्ति क्षणमप्यनन्यमनसस्तेषामनंगज्वरक्लांता
स्त्रस्तकुरंगदारकद्रशो वश्या भवानी ध्रुवम् ।। 9 ।।
चंचत्कांचनकुण्डलांगदधरामाबद्धकांचिस्रजं
ये त्वां चेतसि तदनतेक्षणमपि ध्यायन्ति कृत्वा स्थिराम् ।
तेषां वेश्मसु विभ्रमादहरह:कारीभवंत्यश्चिरं
माद्यत्कुंजकर्णतालतरला: स्थैर्यं भजंति श्रिय: ।। 10 ।।
आर्भक्याशशिखण्डमण्डित जटाजूटां न्रमुंडस्त्रजं
बंधूकप्रसवारुणांबरधरां प्रेतासनाध्यासिनीम् ।
त्वां ध्यायंति चतुर्भुजां त्रिनयनामापीनतुंगस्तनीं
मध्ये निम्नवलित्रयांकिततनुं त्वद्रूपकं चिन्तये ।। 11 ।।
जातोऽप्यल्पहरिच्छिदे क्षितिभुजां सामान्यमात्रे कुले
नि:शेषावनिचक्रवर्तिपदवीं लब्धवा प्रतापोन्नत: ।
यद्विद्याधरवृन्दवन्दितपद: श्रीवत्सराजोभवद्देवि
त्वंचरणांबुजप्रणतित: सोऽयं प्रसादोदय: ।। 12 ।।
चण्डी त्वं चरणाम्बुजार्चनकृते बिल्वीदलोल्लुण्ठनात्
त्रुट्यत्कंटककोटिभि: परिचयं येषां न जग्मु: करा: ।
ते दंडाकुशचक्रचापकुलिशश्रीवत्सवत्सांकितेर्जायन्ते
पृथिवीभुज: कथमिवाम्भोजप्रभै: पाणिभि: ।। 13 ।।
विप्रा: क्षोणिभुजो विशस्तदितरे क्षीराज्यमध्वासवैस्त्वां
देवि त्रिपुरे परां परकलां संतर्प्य पूजाविधौ ।
यां यां प्रार्थयते मन: स्थिरधियां येषां त एव ध्रुवं तां
तां सिद्धिमवापनुवन्ति तरसा विघ्नैरविघ्नीकृता: ।। 14 ।।
शब्दानां जननि त्वमत्र भुवने वाग्वादिनोत्युच्यसे
त्वत्त: केशववासवप्रभृतयोप्याविर्भवन्ति ध्रुवम् ।
लीयन्ते खलु यत्र कल्पवरिमे ब्रह्मादयस्तेऽप्यमी
सा त्वं काचिदचिन्त्यरूपगहना शक्ति: परा गीयसे ।। 15 ।।
देवानां त्रितयं त्रयीहुतभुजां शक्तित्रयं त्रिस्वरास्त्रैलोक्यं
त्रिपदी त्रिपुष्करमथो त्रिर्ब्रह्मकर्णास्त्रय: ।
यत्किंचिंज्जगति त्रिधा नियमितं वस्तु त्रिवर्गादिकं
तत्सर्व त्रिपुरेति नाम भगवत्यन्वेति ते सत्तवत: ।। 16 ।।
लक्ष्मीं राजकुले जयं रणमुखे क्षेमकंरीमध्वनि
क्रव्यादद्विपसर्पभाजि शबरीकांतारदुर्गे गिरौ ।
भूतप्रेतपिशाचज्रम्भकभयं स्मृत्वा महाभैरवीं
व्यामोहे त्रिपुरां तरन्ति विपदस्तारांचतां यत्प्लवे ।। 17 ।।
या या कुण्डलिनी क्रिया मधुमती काली कलामालिनी
मातंगी विजया जया भगवती देवी शिवा शाम्भवी ।
शक्ति शंकरवल्लभा त्रिनयना वाग्वादिनी भैरवी
ह्रींकारी त्रिपुरा परापरमयी माता कुमारीत्यसि ।। 18 ।।
आईपल्लवितै: परस्परयुतैर्द्वित्रिक्रमाद्यक्षरै: काद्यै:
क्षान्तगतै: स्वरादिभिरथ क्षांतैश्च तै: सस्वरै: ।
नामानि त्रिपुरे भवन्ति खलु या नित्यं तु गुह्यानि ते
तेभ्यो भैरवपत्नि विंशतिसहस्त्रेभ्य: परेभ्यो नम: ।। 19 ।।
बोद्धव्या निपुणं बुधै: स्तुतिरियं कृत्वा मनस्तदन्तं
भारत्यास्त्रिपुरेत्यनन्यमनसा यत्राद्यवृत्ति: स्फुटम् ।
एकद्वित्रिपदक्रमेण कथितस्तत्पादसंख्या-
क्षरैर्मन्त्रोद्धारविधिर्विशेषसहित: सत्संप्रदायान्वित: ।। 20 ।।
सावद्यं निरवद्यमस्तु यदि वा किंवाऽनया चिन्तया
नूनं स्तोत्रमिदं पठिष्यति जनो यस्यास्ति भक्तिस्त्वयि ।
संचिन्त्यापि लघुत्वमात्मनि दृढ संजायमानं हठात्
वद्भक्त्या मुखरीकृतेन रचितं यत्स्यान्मयाऽपि ध्रुवम् ।। 21 ।।
आनन्दोद्भवकम्पघूर्णंनयनं निद्राट्टहासादिकं
वेदव्याकरणावगाहकवितातर्कोक्तिमुक्तिप्रदम् ।
वश्याकर्षपुरप्रवेशनगरक्षोभादिसिद्धयष्टकं
लघ्वाचार्य इदं करोति सततं सौभाग्यमारोग्यताम् ।। 22 ।।
गौरि त्र्यम्बकपत्नि पार्वति सति त्रैलोक्यगाने शिवे
शर्वाणि त्रिपुरे भवानि वरदे रुद्राणि कात्यायनि ।
भीमे भैरवि चण्डि सर्ववरदे कालेक्षये शूलिनि
त्वत्पादप्रणतं
।। इति श्री लघु स्तोत्रम् संपूर्णम् ।।
श्री लघु स्तोत्रम् (हिंदी अनुवाद) (Shri Laghu Stotram (Hindi translation))
आधार में स्थित, अरुण सूर्य के समान, सोम के समान शोभायुक्त वाग्भव बीज, जो मन को आकर्षित करने वाला, इंद्रगोप के समान वर्ण का है, हृदय-कमल में स्थित है। जो साधक शिवा के इस तीन पादों वाले स्वरूप का ध्यान करते हैं, वे सुख के परम पद को प्राप्त करते हैं।।1।।
ॐ इस श्रीलघु स्तोत्र के ऋषि वृद्धसारस्वत हैं। देवता त्रिपुराभैरवी हैं। छंद शार्दूलविक्रीडित है। इसका जप सभी इच्छाओं की पूर्ति के लिए किया जाता है।
जिस प्रकार इंद्र के धनुष की मध्य रेखा में ललाट पर शोभायमान प्रकाश होता है, उसी प्रकार यह त्रिपुरा देवी हर दिशा में अपनी शोभा फैलाती हैं। यह देवी ह्रदय में सूर्य के समान तेजस्विनी होकर स्थित है, जो त्रिविध पथों से पाप को काट देती हैं। यह ज्योतिर्मयी वाणीस्वरूपिणी है।।1।।
जो मात्रा तीन रेखाओं से बनी हुई, कोमल रेशम के तंतु के समान है, वाणी बीज के प्रथम भाग में स्थित है, उसे हम सदा तुम्हारा मानते हैं। उसे शक्ति, कुण्डलिनी और विश्व सृजन की प्रेरक शक्ति कहा जाता है। जो इसे जान लेते हैं, वे पुनः माता के गर्भ में नहीं आते।।2।।
जो कोई सहसा ऐं ऐं बोलता है और बिना बिंदु और अक्षर के उच्चारण करता है, उसके भीतर भी तुम्हारी कृपा से वाणी का अमृतसदृश रस प्रवाहित होता है और उसके मुख से अमृत के समान वाक्य निकलते हैं।।3।।
तव नित्य मंत्र “कामराज बीज” वास्तव में निष्कल (निर्दोष) है। वही सारस्वत रूप में जाना जाता है। कुछ विरले ज्ञानी ही इसे समझ पाते हैं। जो ब्राह्मण सत्य और तप में लीन हैं, वे इस मंत्र को प्रणव के साथ नित्य उच्चारण करते हैं।।4।।
जो तृतीय बीज है, जो वाणी की प्रवृत्ति का कारण है, जिसे बुद्धिमान जानते हैं, उसे मैं मन से नमस्कार करता हूँ। जो इसे जान लेता है, उसकी जड़ता नष्ट होती है। वाणी बिना अभ्यास के सिद्ध हो जाती है।।5।।
देवी! तुम्हारे प्रत्येक जन्म का अक्षर स्वर, व्यंजन, संयुक्त और पृथक रूप में हो या उल्टे क्रम में, जिस किसी विधि से, किसी भी कामना से जपा जाए – वह निश्चित ही उस कामना को सिद्ध करता है।।6।।
जो लोग तुम्हें वाम हाथ में पुस्तक, दाहिने में वरद मुद्रा में कर्पूर के समान उज्ज्वल स्तनों वाली रूप में ध्यान करते हैं, जो कमल पत्र जैसी आँखों वाली हैं, वे ही काव्य-शक्ति प्राप्त करते हैं। अन्य नहीं।।7।।
जो तुम्हें श्वेत कमल के समान सिर पर अमृत की धारा से सिंचित रूप में ध्यान करते हैं, उनके मुख से भारती (सरस्वती) की वाणी बहती है। वह वाणी सरस्वती की तरंगों की तरह बहती है।।8।।
जो तुम्हें सिंदूर के रंग से ढकी हुई, तेज से पृथ्वी और आकाश को विलीन करने वाली के रूप में क्षणभर भी एकाग्रचित्त होकर देखते हैं, उनके लिए स्त्रियाँ भी वश में हो जाती हैं।।9।।
जो तुम्हें सोने के कुण्डल, कंगन, कमरबंद आदि से सुसज्जित रूप में, क्षणभर के लिए भी स्थिर मन से ध्यान करते हैं, उनके घरों में सदा लक्ष्मी का निवास होता है।।10।।
जो तुम्हें बाल्यकाल से चंद्र कलाओं से सजी जटाजूट, नरमुंड की माला, रक्तवर्ण वस्त्रों में, शवासन पर बैठी, चार भुजाओं वाली, त्रिनेत्रा, उन्नत स्तनों वाली और मध्य में तीन रेखाओं से युक्त शरीर वाली के रूप में ध्यान करते हैं, उनका ध्यान सफल होता है।।11।।
जो पृथ्वी के सामान्य कुल में जन्मा, साधारण इच्छा रखने वाला हो, वह भी यदि तुम्हारे चरणों में झुके तो सब राजाओं का अधिपति हो सकता है – जैसे श्रीवत्सराज बना था।।12।।
जो तुम्हारे चरणों की सेवा में बिल्वपत्रों से पूजा करते हैं, उनके हाथों ने कभी कंटकों से नहीं हटे, फिर भी वे चक्र, गदा आदि चिन्हों से युक्त राजाओं के रूप में जन्म लेते हैं।।13।।
जो विप्र, राजा आदि तुम्हारी पूजन विधि में घी, दूध आदि से तुम्हें संतुष्ट करते हैं, वे जो भी सिद्धि मन में चाहते हैं, उन्हें निर्विघ्न प्राप्त करते हैं।।14।।
शब्दों की जननी तुम हो, तुम वाक्पटु कहलाती हो, तुम्हारी कृपा से ही केशव, इंद्र आदि उत्पन्न होते हैं। ब्रह्मा आदि भी तुम्हारी लीलाओं में विलीन हो जाते हैं। तुम अपरंपार शक्ति हो।।15।।
देवता त्रय, वेदत्रयी, अग्नि, शक्ति, स्वर, तीनों लोक, त्रिपदी, त्रिपुष्कर, तीन ब्रह्मकर्ण – यह सब तीन भागों में स्थित हैं और त्रिपुरा देवी के नाम में ही अंतर्निहित हैं।।16।।
जो तुम्हें युद्ध में विजयदायिनी, जंगल में रक्षक, भूत-प्रेतों से बचाने वाली, मोह से तारने वाली त्रिपुरा मानते हैं, वे सभी प्रकार की आपत्तियों से मुक्त हो जाते हैं।।17।।
तुम्हारे नाम कुण्डलिनी, मधुमती, काली, कलामालिनी, मातंगी, विजया, जया, भगवती, देवी, शिवा, शाम्भवी, शक्ति, शंकरवल्लभा, त्रिनयना, वाग्वादिनी, भैरवी, ह्रींकारी, त्रिपुरा, परापरा, माता, कुमारी – ऐसे सभी नामों में विख्यात हो।।18।।
क, ख, ग आदि वर्णों के त्रिकों से उत्पन्न अक्षरों में जो तुम्हारे नाम छिपे हैं, वे नित्य गोपनीय हैं। हे भैरव पत्नी! उन 20 हजार श्रेष्ठ नामों को मैं नमस्कार करता हूँ।।19।।
इस स्तुति को विद्वान लोग मन से जानें, इसका अर्थ समझें और त्रिपुरा देवी के नाम का ध्यान करें। एक, दो, तीन चरणों के क्रम से बताए गए मंत्र पदों की संख्या, मंत्र उद्धारण की विधि विशेष सहित संतों की परंपरा में ही जानी जाती है।।20।।
चाहे यह स्तोत्र दोषयुक्त हो या निर्दोष, यदि इसे कोई श्रद्धालु भक्तिपूर्वक पढ़ता है, तो उसमें भी चमत्कारिक शक्ति उत्पन्न होती है। मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति द्वारा भी यह रचना की गई है।।21।।
जो इस लघु स्तोत्र का नित्य पाठ करता है, उसे आँखों में आनंद से कंपन, नींद, हँसी, वेद वाक्य, व्याकरण, कविता, तर्क, मुक्ति आदि की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। वह वशीकरण, आकर्षण, नगर प्रवेश, नगर में प्रभाव आदि आठ सिद्धियाँ प्राप्त करता है और सौभाग्य, आरोग्यता प्राप्त करता है।।22।।
हे गौरी, त्र्यम्बक पत्नी, पार्वती, सती, तीनों लोकों में पूज्य शिवा, शर्वाणी, त्रिपुरा, भवानी, वरदा, रुद्राणी, कात्यायनी, भीमा, भैरवी, चण्डी, सर्ववरदा, कालसंहारिणी, शूलधारिणी – मैं तुम्हारे चरणों में प्रणाम करता हूँ।
।। इति श्री लघु स्तोत्रम् संपूर्णम् ।।
श्री लघु स्तोत्रम् के लाभ (Benefits)
- वाक्शक्ति और वाणी में प्रभाव: यह स्तोत्र वाणी और बुद्धि की देवी त्रिपुराभैरवी को समर्पित है। इसका नित्य पाठ वाक् सिद्धि देता है — वाणी मधुर, प्रभावशाली और सम्मोहक होती है।
- विद्या, तर्क और कवित्व की प्राप्ति: विद्यार्थियों, वक्ताओं, लेखकों, कवियों और पंडितों के लिए यह स्तोत्र विशेष फलदायी है। यह ज्ञान के सभी स्रोतों को प्रकट करता है।
- कुंडलिनी जागरण में सहायक: स्तोत्र में कुण्डलिनी शक्ति और त्रिपुरा स्वरूप का वर्णन किया गया है, जो साधक को आंतरिक चेतना की उच्च अवस्था तक ले जाता है।
- सर्वकामना पूर्ति: मन में जो भी सकारात्मक इच्छा या संकल्प हो, उसे यह स्तोत्र सिद्ध करता है।
- सिद्धि, वशीकरण एवं आकर्षण: तांत्रिक परंपरा के अनुसार यह स्तोत्र वशीकरण, आकर्षण, नगरप्रवेश, नगरक्षोभ आदि शक्तियों को जाग्रत करता है।
- सौभाग्य और आरोग्यता की प्राप्ति: इसका नियमित पाठ सौभाग्य, स्वास्थ्य, और शांतिपूर्ण जीवन प्रदान करता है।
पाठ विधि (Vidhi)
- स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनें।
- पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके आसन पर बैठें।
- सामने त्रिपुराभैरवी माता या किसी शक्ति स्वरूप देवी की प्रतिमा या चित्र रखें।
- दीपक, अगरबत्ती, पुष्प, अक्षत आदि से पूजन करें।
- शांतचित्त होकर स्तोत्र का पाठ करें।
(यदि संपूर्ण पाठ न हो पाए तो 1, 7, 11, 15, 21 अथवा 22 श्लोकों का पाठ भी किया जा सकता है।) - अंत में देवी से अपनी कामना कहें और कृतज्ञता प्रकट करें।
जप/पाठ का श्रेष्ठ समय (Best Time for Chanting)
- प्रातः काल (सुबह 4:00 से 6:00 बजे तक ब्रह्ममुहूर्त) — उच्चतम फलदायक समय।
- संध्याकाल (शाम 6:00 से 8:00 बजे) — मानसिक शांति और सिद्धि के लिए श्रेष्ठ।
- अष्टमी, नवमी, पूर्णिमा, अमावस्या तिथियों पर — विशेष फल की प्राप्ति होती है।
- नवरात्रि में — नित्य पाठ करने से महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली का संयुक्त आशीर्वाद मिलता है।