“श्री भगवच्छरण स्तोत्र” एक अत्यंत भावपूर्ण और आत्मनिरीक्षण से युक्त स्तोत्र है, जो मानव जीवन की क्षणभंगुरता, सांसारिक मोह के बंधनों, और आत्मा की परम सत्य की ओर उन्मुख होने की आवश्यकता को उजागर करता है। यह स्तोत्र न केवल एक प्रार्थना है, बल्कि एक साधक की आत्मस्वीकृति भी है, जहाँ वह अपनी भूलों, असमर्थताओं और अधूरी साधनाओं को स्वीकार करता हुआ, पूर्णतः भगवान की शरण में जाने की प्रार्थना करता है।
इस स्तोत्र में जीवन की अनिश्चितताओं – जैसे रोग, वृद्धावस्था, मृत्यु, कामनाएं, अहंकार, अज्ञान – का चित्रण किया गया है और इनसे मुक्ति पाने के लिए ईश्वर की कृपा को ही एकमात्र उपाय बताया गया है। यह स्तोत्र एक प्रकार से आत्मचिंतन और पश्चाताप का दर्पण है, जिसमें व्यक्ति अपने भीतर झांककर यह अनुभव करता है कि जीवन की दौड़ में वह परम सत्य से कितनी दूर चला गया है।
“तस्मात्त्वमध शरणं मम दीनबन्धो” जैसे पदों के माध्यम से साधक बार-बार यही कहता है कि अब केवल प्रभु की शरण ही उसका अंतिम आश्रय है।
यह स्तोत्र उन भक्तों के लिए विशेष रूप से उपयोगी है जो आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते हैं, लेकिन सांसारिक विकर्षणों और अपनी कमजोरियों के कारण बाधित हो जाते हैं। इसके पाठ से आत्मविवेक जाग्रत होता है और ईश्वर के प्रति समर्पण की भावना दृढ़ होती है।
श्री भगवच्छरण स्तोत्र
Shri Bhagavachharana Stotra
सच्चिदानन्दरूपाय भक्तानुग्रहकारिणे ।
मायानिर्मितविश्वाय महेशाय नमो नम: ।। 1 ।।
रोगा हरन्ति सततं प्रबला: शरीरं कामादयोऽप्यनुदिनं प्रदहन्ति चित्तम् ।
मृत्युश्च नृत्यति सदा कलयन् दिनानि तस्मात्त्वमध शरणं मम दीनबन्धो ।। 2 ।।
देहो विनश्यति सदा परिणामशीलश्चित्तं च खिधति सदा विषयानुरागि ।
बुद्धि: सदा हि रमते विषयेषु नान्तस्तस्मात् ।। 3 ।।
आयुर्विनश्यति यथामघटस्थतोयं विद्युत्प्रभेव चपला बत यौवनश्री: ।
वृद्धा प्रधावति यथा मृगराजपत्नी । तस्मात् ।। 4 ।।
आयाद्व्ययो मम भवत्यधिकोऽविनीते कामादयो हि बलिनो निबला: शमाधा: ।
मृत्युर्यदा तुदति मां बत किं वदेयं । तस्मात् ।। 5 ।।
तप्तं तपो न हि कदापि मयेह तन्वा वाण्या तथा न हि कदापि तपश्च तप्तम् ।
मिथ्याभिभाषणपरेण न मानसं हि । तस्मात् ।। 6 ।।
स्तब्धं मनो मम सदा न हि याति सौम्यं चक्षुश्च मे न तव पश्यति विश्वरूपम् ।
वाचा तथैव न वदेन्मम सौम्यवाणीं । तस्मात् ।। 7 ।।
सत्त्वं न मे मनसि याति रजस्तमोभ्यां विद्धे तथा कथमहो शुभकर्मवार्ता ।
साक्षात्परम्परतया सुखसाधनं तत्तस्मात ।। 8 ।।
पूजा कृता न हि कदापि मया त्वदीया मन्त्रं त्वदीयमपि मे न जपेद्रसज्ञा ।
चित्तं न मे स्मरति ते चरणौ ह्रावाप्य । तस्मात् ।। 9 ।।
यज्ञो न मेऽस्ति हुतिदानदयादियुक्तो ज्ञानस्य साधनगणो न विवेकमुख्य: ।
ज्ञानं क्व साधनगणेन विना क्व मोक्षस्तस्मात् ।। 10 ।।
सत्संगतिर्हि विदिता तव भक्तिहेतु: साप्यद्य नास्ति बत पण्डितमानिनो मे ।
तामन्तरेण न हि सा क्व च बोधवार्ता । तस्मात् ।। 11 ।।
दृष्टिर्न भूतविषया समताभिधाना वैषम्यमेव तदियं विषयीकरोति ।
शान्ति: कुतो मम भवेत्समता न चेत्स्यात्तस्मात् ।। 12 ।।
मैत्री समेषु न च मेऽस्ति कदापि नाथ दीने तथा न करुणा मुदिता च पुण्ये ।
पापेऽनुपेक्षणवतो मम मुत्कथं स्यात्तस्मात् ।। 13 ।।
नेत्रादिकं मम बहिर्विषयेषु सक्तं नान्तर्मुखं भवति तानविहाय तस्य ।
क्वांतर्मुखत्वमपहाय सुखस्य वार्ता । तस्मात् ।। 14 ।।
त्यक्तं गृहा द्यपि मया भवतापशान्त्यै नासीदसौ ह्रतह्रदो मम मायया ते ।
सा चाधुना किमु विधास्यति नेति जाने । तस्मात् ।। 15 ।।
प्राप्ता धनं ग्रहकुटुंबगजाश्वदारा राज्यं यदैहिकमठेन्द्रपुरश्च नाथ ।
सर्वं विनश्वरमिदं न फलाय कस्मै । तस्मात ।। 16 ।।
प्राणान्निरुध्य विधिना न कृतो हि योगो योगं विनास्ति मनस: स्थिरता कुतो मे ।
तां वै विना मम न चेतसि शान्तिवार्ता । तस्मात् ।। 17 ।।
ज्ञानं यथा मम भवेत्क्रपया गुरुणां सेवां तथा न विधिनाकरवं हि तेषाम् ।
सेवापि साधनतयाविदितास्ति चित्ते । तस्मात् ।। 18 ।।
तीर्थादिसेवनमहो विधिना हि नाथ नाकारि येन मनसो मम शोधनं स्यात् ।
शुद्धिं विना न मनसोऽवगमापवर्गौ । तस्मात् ।। 19 ।।
वेदांतशीलनमपि प्रमितिं करोति ब्रह्मात्मन: प्रमितिसाधनसंयुतस्य ।
नैवास्ति साधनलवो मयि नाथ तस्यास्तस्मात् ।। 20 ।।
गोविन्द शंकर हरे गिरिजेश मेश शम्भो जनार्दन गिरीश मुकुन्द साम्ब ।
नान्या गतिर्मम कथञ्चन वां विहाय तस्मात्प्रभो मम गति: कृपया विधेया ।। 21 ।।
एवं स्तवं भगवदाश्रयणाभिधानं य मानवा: प्रतिदिनं प्रणता: पठन्ति ।
ते मानवा: भवरतिं परिभूय शान्तिं गच्छन्ति किं च परमात्मनि भक्तिमद्धा ।। 22 ।।
।। इति श्री भगवच्छरण स्तोत्र सम्पूर्णम् ।।
श्री भगवच्छरण स्तोत्र
Shri Bhagavachharana Stotra (हिंदी अनुवाद)
सच्चिदानन्द रूप वाले, भक्तों पर कृपा करने वाले,
माया से रचे इस जगत के स्वामी, हे महेश, आपको बार-बार नमस्कार है।॥1॥
रोग निरंतर शरीर को सताते हैं, कामादि वासनाएं मन को जलाती हैं,
मृत्यु हर पल हमारे जीवन को घटाती है — इसलिए हे दीनबन्धु! मैं आपकी शरण में हूँ।॥2॥
यह शरीर हमेशा नष्ट होता रहता है, चित्त सदा विषयों में उलझा रहता है,
बुद्धि निरंतर इंद्रिय विषयों में रमण करती है — इसलिए…॥3॥
जीवन वैसे ही समाप्त होता है जैसे घड़े में रखा पानी,
और यौवन बिजली की तरह क्षणभंगुर है — वृद्धावस्था शीघ्र ही आती है — इसलिए…॥4॥
मेरे व्यय आय से अधिक हो जाते हैं,
कामना शक्तिशाली हैं, और संयम कमजोर है — मृत्यु जब मुझे आ घेरेगी, तब क्या करूँगा? — इसलिए…॥5॥
मैंने तन से कभी तप नहीं किया, वाणी से भी तप नहीं,
मन भी मिथ्या बातों में व्यस्त रहा — इसलिए…॥6॥
मेरा मन कभी शांत नहीं होता,
नेत्र आपके विश्वरूप को नहीं देख पाते, वाणी भी मधुर नहीं है — इसलिए…॥7॥
मेरे मन में सत्त्व नहीं है, रज और तमो गुणों से घिरा है,
फिर शुभ कर्म और सुख की बात कहाँ से हो? — इसलिए…॥8॥
मैंने आपकी पूजा कभी नहीं की, आपके मंत्र का जप भी नहीं किया,
मेरा मन आपके चरणों का स्मरण भी नहीं करता — इसलिए…॥9॥
न कोई यज्ञ, न दान, न दया, न ज्ञान,
न कोई साधन, न विवेक, फिर मोक्ष कैसे मिलेगा? — इसलिए…॥10॥
मैंने कभी सत्संग भी नहीं किया, जो भक्ति का मूल है,
उसके बिना तो ज्ञान का भी कोई आधार नहीं — इसलिए…॥11॥
मेरी दृष्टि विषयों पर ही जाती है, समता नहीं है,
विषमता ही मेरा स्वभाव बन गई है — समता के बिना शांति कैसे मिलेगी? — इसलिए…॥12॥
मेरे मन में न मित्रता है, न दीनों पर दया,
न पुण्य में प्रसन्नता, न पापी के प्रति तटस्थता — फिर मुक्ति कैसे मिलेगी? — इसलिए…॥13॥
मेरी इंद्रियाँ बाहर की वस्तुओं में लगी रहती हैं,
भीतर की ओर कभी नहीं जाती — ऐसे में अंतर्मुखता और आनंद की बात कैसे होगी? — इसलिए…॥14॥
मैंने घर और संसार तो छोड़ा पर मन की लहरें शांत नहीं हुईं,
आपकी माया अभी भी मुझे भ्रमित कर रही है — अब वह क्या करेगी, मुझे नहीं पता — इसलिए…॥15॥
धन, परिवार, राज्य, भवन, सब मिला है —
पर ये सब नश्वर हैं, किसी काम के नहीं — इसलिए…॥16॥
मैंने योग विधिपूर्वक नहीं किया,
मन की स्थिरता नहीं आई — बिना योग के मन में शांति कैसे होगी? — इसलिए…॥17॥
गुरुओं की सेवा भी मैंने नहीं की,
गुरु सेवा बिना ज्ञान कैसे मिलेगा? — इसलिए…॥18॥
तीर्थ आदि की सेवा भी नहीं की, जिससे मन शुद्ध हो,
और बिना शुद्धि के आत्मज्ञान और मुक्ति कैसे होगी? — इसलिए…॥19॥
वेदांत पढ़ने से ब्रह्मज्ञान होता है,
पर साधनहीन होने से मेरा लाभ नहीं — इसलिए…॥20॥
हे गोविंद! हे शंकर! हे हरे! हे गिरिजापति! हे प्रभु! हे शंभो! हे जनार्दन! हे गिरिश! हे मुकुंद! हे सांब!
आपको छोड़ कर मेरी कोई गति नहीं — इसलिए, कृपा करके मेरी गति निश्चित करें।॥21॥
जो मनुष्य प्रतिदिन इस “भगवदाश्रयण स्तोत्र” को श्रद्धा से पढ़ते हैं,
वे इस संसार सागर को पार कर शांति प्राप्त करते हैं, और परमात्मा में भक्ति पाते हैं।॥22॥
।। इति श्री भगवच्छरण स्तोत्र सम्पूर्णम् ।।
श्री भगवच्छरण स्तोत्र के लाभ (लाभ):
- आत्मिक शुद्धि और जागृति: यह स्तोत्र मन, बुद्धि और चित्त को शुद्ध कर आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाता है।
- अहंकार और विकारों का क्षय: अहंकार, राग, द्वेष, मोह आदि का शमन होता है।
- सच्चे समर्पण की भावना: व्यक्ति ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का अनुभव करता है।
- शांति और संतुलन: मानसिक तनाव, व्याकुलता और बेचैनी से मुक्ति मिलती है।
- ईश्वरीय कृपा: ईश्वर की शरण में जाने वाले साधक को अनंत कृपा प्राप्त होती है।
- आध्यात्मिक उन्नति: सत्संग, भक्ति और वैराग्य की भावना दृढ़ होती है।
पाठ विधि (Vidhi) :
- स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- पूजा स्थान पर दीपक और अगरबत्ती जलाकर भगवान (विशेषकर श्रीहरि विष्णु, शिव या जिस देवता में श्रद्धा हो) का ध्यान करें।
- भगवान के चरणों में पुष्प अर्पित करें और शुद्ध मन से स्तोत्र का पाठ करें।
- पाठ के समय मन एकाग्र और शांत रखें।
- स्तोत्र का उच्चारण स्पष्ट और श्रद्धापूर्वक करें।
- अंत में भगवान से प्रार्थना करें: “हे प्रभो! मुझे शरण दो, मेरे दोष क्षमा करो, और मुझे सन्मार्ग पर चलने की शक्ति दो।”
जप / पाठ का समय (Jap Time):
- प्रातः काल: सूर्योदय के समय (4:30 AM – 6:00 AM) सर्वोत्तम।
- संध्या समय: सूर्यास्त के बाद (6:00 PM – 7:30 PM) भी लाभकारी।
- विशेष अवसर: अमावस्या, पूर्णिमा, एकादशी, व्रत के दिन या किसी संकट के समय प्रतिदिन पाठ करें।