श्री त्रिपुरसुंदरी वेदसार स्तोत्रम् एक अत्यंत पावन और प्रभावशाली स्तोत्र है, जो आदिशक्ति माँ त्रिपुरसुंदरी की महिमा का सार प्रस्तुत करता है। यह स्तोत्र वेदों के सार को समेटे हुए, शक्ति की परम रूपा श्री ललिता त्रिपुरसुंदरी के विभिन्न दिव्य स्वरूपों, गुणों और लीलाओं का गुणगान करता है।
माँ त्रिपुरसुंदरी को त्रिलोकसुंदरी, श्रीविद्या स्वरूपिणी, राजराजेश्वरी, तथा महात्रिपुरसुंदरी नामों से भी जाना जाता है। वह श्रीचक्र की अधिष्ठात्री, परम करुणामयी, सौंदर्य की मूर्तिमान देवी, तथा समस्त विद्याओं की अधिदेवता हैं।
इस स्तोत्र के श्लोकों में माँ की अनुपम छवि का वर्णन किया गया है — जैसे वे संगीत बजाती हैं, ज्ञान की देवी के रूप में प्रकट होती हैं, योगियों के ध्यान में प्रत्यक्ष होती हैं, और भक्तों के समस्त क्लेशों का नाश करती हैं।
यह स्तोत्र ना केवल माँ के दिव्य स्वरूप का वर्णन करता है, बल्कि ध्यान, भक्ति और आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाने वाला मार्ग भी दिखाता है। इसमें माँ के विविध स्वरूपों के माध्यम से बताया गया है कि वे सृष्टि की रचयिता, पालनकर्ता, और संहारक — तीनों रूपों में एक साथ विद्यमान हैं।
श्री त्रिपुरसुंदरी वेदसार स्तोत्रम्
कस्तूरीपङ्कभास्वद्गलचलदमलस्थूलमुक्तावलीका
ज्योत्स्नाशुद्धावदाता शशिशिशुमकुटालंकृता ब्रह्मपत्नी ।
साहित्यांभोजभृङ्गी कविकुलविनुता सात्विकीं वाग्विभूतिं
देयान्मे शुभ्रवस्त्रा करचलवलया वल्लकीं वादयन्ती ॥ 1 ॥
एकान्ते योगिवृन्दैः प्रशमितकरणैः क्षुत्पिपासा विमुक्तैः
सानन्दं ध्यानयोगाद्बिसगुणसदृशी दृश्यते चित्तमध्ये ।
या देवी हंसरूपा भवभटहरणं साधकानां विधत्ते
सा नित्यं नादरूपा त्रिभुवनजननी मोदमाविष्करोतु ॥ 2 ॥
ईक्षित्री सृष्टिकाले त्रिभुवनमथ या तत्क्षणेऽनुप्रविश्य
स्थेमानं प्रापयन्ती निजगुणविभवैः सर्वदा व्याप्य विश्वम् ।
संहर्त्री सर्वभासां विलयनसमये स्वात्मनि स्वप्रकाशा
सा देवी कर्मबन्धं मम भवकरणं नाशयित्वादिशक्तिः ॥ 3 ॥
लक्ष्या या चक्रराजे नवपुरलसिते योगिनीवृन्दगुप्ते
सौवर्णे शैलशृङ्गे सुरगणरचिते तत्त्वसोपानयुक्ते ।
मन्त्रिण्या मेचकाङ्ग्या कुचभरनतया कोलमुख्या च सार्धं
सम्राज्ञी सा मदीयं मदगजगमना दीर्घमायुस्तनोतु ॥ 4 ॥
ह्रींकाराम्भोजभृङ्गी हयमुखविनुता हानिवृध्यादिहीना
हंसोऽहम् मन्त्रराज्ञी हरिहयवरदा हादिमन्त्राक्षरूपा ।
हस्ते चिन्मुद्रिकाद्या हतबहुदनुजा हस्तिकृत्तिप्रिया मे
हार्दं शोकातिरेकं शमयतु ललिताधीश्वरी पाशहस्ता ॥ 5 ॥
हस्ते पङ्केरुहाभे सरससरसिजं बिभ्रती लोकमाता
क्षीरोदन्वत्सुकन्या करिवरविनुता नित्यपुष्टाऽब्जगेहा ।
पद्माक्षी हेमवर्णा मुररिपुदयिता शेवधिस्संपदां या
सा मे दारिद्र्यदोषं दमयतु करुणादृष्टिपातैरजस्रम् ॥ 6 ॥
सच्चिद्ब्रह्मस्वरूपां सकलगुणयुतां निर्गुणां निर्विकारां
रागद्वेषादिहन्त्रीं रविशशिनयनां राज्यदानप्रवीणाम् ।
चत्वारिंशत्त्रिकोणे चतुरधिकसमे चक्रराजे लसन्तीं
कामाक्षीं कामितानां वितरणचतुरां चेतसा भावयामि ॥ 7 ॥
कन्दर्पे शान्तदर्पे त्रिनयनज्योतिषा देववृन्दैः
साशङ्कं साश्रुपातं सविनयकरुणं याचिता कामपत्न्या ।
या देवी दृष्टिपातैः पुनरपि मदनं जीवयामास सद्यः
सा नित्यं रोगशान्त्यै प्रभवतु ललिताधीश्वरी चित्प्रकाशा ॥ 8 ॥
हव्यैः कव्यैश्च सर्वैर्श्रुतिचयविहितैः कर्मभिः कर्मशीलाः
ध्यानाद्यैरष्टभिश्च प्रशमितकलुषा योगिनः पर्णभक्षाः ।
यामेवानेकरूपां प्रतिदिनमवनौ संश्रयन्ते विधिज्ञा
सा मे मोहान्धकारं बहुभवजनितं नाशयत्वादिमाता ॥ 9 ॥
लक्ष्या मूलत्रिकोणे गुरुवरकरुणालेशतः कामपीठे
यस्यां विश्वं समस्तं बहुतरविततं जायते कुण्डलिन्या ।
यस्या शक्तिप्ररोहादविरलममृतं विन्दते योगिवृन्दं
तां वन्दे नादरूपां प्रणवपदमयीं प्राणिनां प्राणधात्रीम् ॥ 10 ॥
ह्रींकाराम्बोधिलक्ष्मीं हिमगिरितनयां ईश्वराणां
ह्रींमन्त्राराध्यदेवीं श्रुतिशतशिखरैर्मृग्यमाणां मृगाक्षीम् ।
ह्रींमन्त्रान्तैस्त्रिकूटैः स्थिरतरमहिभिर्धार्यमाणां ज्वलन्तीं
ह्रीं ह्रीं ह्रीमित्यजस्रं हृदयसरसिजे भावयेऽहं भवानीम् ॥ 11 ॥
सर्वेषां ध्यान मथ्रातः सविथुरु दरगं चोदयन्थि मनीषां,
सविथ्री ततः पदर्त्ठ ससि युथ मकुट पञ्च शीर्षा त्रिनेथ्रा ।
हस्थाग्रै शङ्ख चक्रध्य अखिल जन पर्थ्रण दक्षयुधानां,
भिभ्रणा वृन्द मम्ब विसदयथु मथिं ममकीनां महेसि ॥ 12 ॥
कर्त्री लोकस्य लीलाविलसितविधिना कारयित्री क्रियाणां
भर्त्री स्वानुप्रवेशाद्वियदनिलमुखैः पञ्चभूतैः स्वसृष्टैः ।
हर्त्री स्वेनैवधाम्ना पुनरपि वलये कालरूपं दधाना
हन्यादामूलमस्मत्कलुषभरमुमा भुक्तिमुक्तिप्रदात्री ॥ 13 ॥
लक्ष्या या पुण्यजालैः गुरुवरचरणाम्भोजसेवाविशेषात्
दृश्या स्वान्ते सुधीभिर्दरदलितमहापद्मकोशेनतुल्ये ।
लक्षं जप्त्वापि यस्या मनुवरमणिमादिसिद्धिमन्तो महान्तः
सा नित्यं मामकीने हृदयसरसिजे वासमङ्गीकरोतु ॥ 14 ॥
ह्रीं श्रीं ऐं मन्त्ररूपा हरिहरविनुताऽगस्त्यपत्नीप्रतिष्ठा
हादिकाद्यर्णतत्त्वा सुरपतिवरदा कामराजप्रतिष्ठा ।
दुष्टानां दानवानां मनभरहरणा दुःखहन्त्री बुधानां
सम्राज्ञी चक्रराज्ञी प्रदिशतु कुशलं मह्यमोंकाररूपा ॥ 15 ॥
श्रीमन्त्रार्थस्वरूपा श्रितजनदुरितध्वान्तहन्त्री शरण्या
श्रौतस्मार्तक्रियाणामविकलफलदा फालनेत्रस्य धारा ।
श्रीचक्रान्तर्निषण्णा गुहवरजननी दुष्टहन्त्री वरेण्या
श्रीमत्सिंहासनेशी प्रदिशतु विपुलां कीर्तिमानन्दरूप ॥ 16 ॥
॥ इति श्री त्रिपुरसुंदरी वेदसार स्तोत्रम् संपूर्णम् ॥
श्री त्रिपुरसुंदरी वेदसार स्तोत्रम् – हिंदी अनुवाद (Sri Tripurasundari Vedsar Stotram – Hindi Translation)
मस्तक पर केशर से लिपटी, गले में सुंदर, स्वच्छ, विशाल मोती की माला धारण करने वाली,
शुद्ध चंद्रमा जैसी उज्ज्वल, बालचंद्र से सुशोभित मुकुट धारण करने वाली ब्रह्माजी की पत्नी।
काव्य के कमल की मधुमक्खी, कवियों द्वारा वंदनीय, सात्विक वाणी की देवी,
शुभ्र वस्त्र पहन कर, हाथों में कांच की चूड़ियाँ धारण कर, वीणा बजाती हुई मुझे वाणी दें ॥ 1 ॥
एकांत में, योगियों द्वारा जो इंद्रियों के नियंत्रण व भूख-प्यास से मुक्त होकर
आनंदपूर्वक ध्यानयोग के द्वारा हृदय में कमल के समान दिखाई देती हैं।
जो देवी हंसस्वरूपा होकर साधकों के सभी संकटों को हरती हैं,
वे नित्य नादस्वरूपा, त्रिलोक जननी देवी मुझे आनंद प्रदान करें ॥ 2 ॥
जो सृष्टिकाल में त्रिलोक को दृष्टिगत कर तत्क्षण उसमें प्रविष्ट हो
अपने गुणों की विभूतियों से सदा सम्पूर्ण विश्व में व्यापक रूप से स्थित रहती हैं।
जो सभी प्रकाशों की संहारक हैं और विलयन समय में स्वयं में स्थित होकर प्रकाशित होती हैं,
वह आदिशक्ति देवी मेरे कर्मबन्धन और संसार के कारणों को नष्ट करें ॥ 3 ॥
जो देवी नवपुरों से युक्त चक्रराज में, योगिनियों द्वारा संरक्षित,
स्वर्णमय पर्वत शिखर पर स्थित, देवगणों द्वारा पूजित, तत्त्वों की सीढ़ियों से सुसज्जित हैं।
मंत्रिणी, मचका अंगवाली, स्तनों के भार से झुकी, कोलमुख्या के साथ,
वह सम्राज्ञी, मदमस्त गजगामिनी देवी मुझे दीर्घायु प्रदान करें ॥ 4 ॥
ह्रीं बीज के कमल की मधुमक्खी के समान, हयमुख द्वारा पूजिता, हानि व वृद्धि से परे,
“हंसः अहम्” मंत्र की स्वामिनी, हरिहय को वरदान देने वाली, आदि मंत्र अक्षरस्वरूपा।
हाथ में ज्ञानमुद्रा धारण करने वाली, अनेक दैत्यों का संहार करने वाली, हाथी की खाल प्रिय,
वह पाशधारी ललितेश्वरी मेरे हृदय का अत्यधिक शोक दूर करें ॥ 5 ॥
हाथ में कमल के समान कमल धारण करने वाली, समस्त लोकों की माता,
क्षीरसागर की पुत्री, हाथी द्वारा पूजिता, सदा पुष्ट, कमलवासिनी।
कमलनयनी, स्वर्णवर्णा, विष्णुप्रिया, जो समस्त संपत्तियों की निधि हैं,
वह देवी मेरी दरिद्रता को अपनी कृपादृष्टि से सदा के लिए दूर करें ॥ 6 ॥
सच्चिदानंद स्वरूपा, सभी गुणों से युक्त होकर भी निर्गुण और विकाररहित,
राग-द्वेष को नष्ट करने वाली, सूर्य और चंद्रमा जैसी नेत्रों वाली, राज्य प्रदान करने में निपुण।
चालीस त्रिकोणों वाले चक्रराज में, चार और त्रिकोण से घिरी हुई जो विराजमान हैं,
उन कामाक्षी देवी को मैं अपने मन से स्मरण करता हूँ जो मनचाही वस्तुएँ प्रदान करती हैं ॥ 7 ॥
कामदेव के गर्व को शांत करने वाली, त्रिनयन प्रभा से देवताओं द्वारा भयभीत,
कातर, अश्रुपूरित नेत्रों से, विनय और करुणा सहित कामदेव की पत्नी द्वारा विनती की गई।
जिन्होंने पुनः अपनी दृष्टिपात से कामदेव को जीवित किया,
वे ललिताधीश्वरी देवी रोगों की शांति के लिए मेरी सहायता करें ॥ 8 ॥
हविष्य, कव्य और वेदों द्वारा विहित सभी कर्मों को करने वाले,
ध्यान आदि आठ साधनों से शुद्ध होकर पर्णभक्षी योगीजन,
जो नाना रूपवाली देवी को प्रतिदिन इस पृथ्वी पर आश्रय लेते हैं,
वह आदिमाता देवी मेरे जन्म-जन्मांतर के अज्ञान-तम को नष्ट करें ॥ 9 ॥
जो मूल त्रिकोण में, गुरु की थोड़ी-सी कृपा से, कामपीठ में लक्ष्य की जाती हैं,
जिनसे सम्पूर्ण विश्व कुंडलिनी रूप में उत्पन्न होता है,
जिनकी शक्ति से निरंतर अमृत प्रवाहित होता है और योगीगण उसे पाते हैं,
उन नादस्वरूपा, प्रणवमयी, प्राणियों की प्राणधात्री देवी को मैं वंदन करता हूँ ॥ 10 ॥
ह्रीं बीजमंत्र रूपी समुद्र की लक्ष्मी, हिमालय पुत्री, ईश्वरों की देवी,
ह्रीं मंत्र द्वारा पूजिता, शतशः वेदों द्वारा खोजी जाती मृगनयनी।
ह्रीं मंत्रान्तर्गत त्रिकूटियों से स्थिर नागों द्वारा धारित, जाज्वल्यमान रूपा,
ह्रीं ह्रीं ह्रीं का निरंतर जाप करते हुए मैं अपने हृदय कमल में भवानी का ध्यान करता हूँ ॥ 11 ॥
सभी ध्यानों से श्रेष्ठ, मनीषियों के द्वारा जानी जाती,
सावित्री के समान स्वरूप, चंद्रमंडल के मुकुट से सुशोभित, पंचमुख, त्रिनेत्रा।
हाथों में शंख, चक्र आदि से युक्त, समस्त जीवों की रक्षा में सक्षम,
वह माँ का समूह मेरी बुद्धि को सद्बुद्धि प्रदान करे, हे महेश्वरी ॥ 12 ॥
जो लीला द्वारा सृष्टि का निर्माण करती हैं,
पंचमहाभूतों के द्वारा अपने आत्मस्वरूप से उसमें प्रवेश करती हैं।
काल रूप धारण कर पुनः सबका संहार करती हैं,
वह उमा देवी मेरे समस्त पापों को नष्ट कर भुक्ति और मुक्ति प्रदान करें ॥ 13 ॥
जो पुण्य के संग्रह से गुरु चरण कमलों की विशेष सेवा से लक्ष्य होती हैं,
स्वांतः हृदय में बुद्धिमानों द्वारा कमल के कोष के समान देखी जाती हैं।
जिनका मंत्र लाखों बार जपने पर भी सिद्ध पुरुषों को महान सिद्धियाँ प्रदान करता है,
वह देवी सदा मेरे हृदय कमल में निवास करें ॥ 14 ॥
ह्रीं, श्रीं, ऐं बीजमंत्रस्वरूपा, हरि व हर द्वारा पूजिता, अगस्त्यपत्नी के रूप में प्रतिष्ठित,
हादि आदि वर्णों की तत्वस्वरूपा, इंद्र को वर देने वाली, कामराज की अधिष्ठात्री।
दुष्टों और दानवों के अभिमान को नष्ट करने वाली, दु:खों को हरने वाली,
वह सम्राज्ञी, चक्रराज्ञी, ओंकारस्वरूपा देवी मुझे कल्याण प्रदान करें ॥ 15 ॥
श्रीमंत्र के अर्थ की स्वरूपा, भक्तों के पापों को हरने वाली, शरणदात्री,
श्रुति और स्मृति की विधियों द्वारा फलों को प्रदान करने वाली, त्रिनेत्रधारी भगवान शिव की धारणा।
श्रीचक्र के भीतर विराजमान, गुह्यविद्या की जननी, दुष्टों की संहारक, श्रेष्ठा,
वह श्रीमत सिंहासन पर विराजमान, आनंदस्वरूप देवी मुझे महान कीर्ति प्रदान करें ॥ 16 ॥
॥ इति श्री त्रिपुरसुंदरी वेदसार स्तोत्रम् संपूर्णम् ॥
स्तोत्र के प्रमुख लाभ (Main benefits of stotra)
- आर्थिक समृद्धि: दारिद्र्य, कर्ज़ और अभाव दूर करने में सहायता।
- स्वास्थ्य एवं रोगहरण: शारीरिक–मानसिक रोगों की शांति, आयुर्वृद्धि।
- बुद्धि–ज्ञान व साधना प्रगति: अध्ययन, स्मरणशक्ति और अध्यात्मिक उन्नति।
- चक्र जागरण एवं नादबिंदु अनुभव: ऊर्जा केंद्रों का सक्रिय होना, ध्यान में गहनता।
- संकटमोचन व भयउद्धार: भय, शत्रु बाधा, ग्रहदोष (विशेषकर बुध) का नाश।
- दिव्य आशीर्वाद: समस्त कल्याण और माँ त्रिपुरसुंदरी की कृपा–रक्षा का अनुभव।
पाठ विधि (विधिवत् तरीके से पढ़ने की तैयारी)
- पवित्र स्थान: स्नानादि से शुद्ध हो कर, घर के पूजा कमरे या समशीतल शांत स्थान पर निश्चय करें।
- मूर्ति/दिव्य चित्र: देवी ललिता या त्रिपुरसुंदरी की तस्वीर/मूर्ति स्थापित करें।
- समाग्री:
- एक दीप (तिल का तेल या घी)
- धूप–दीवानी (अगरबत्ती या पफलदान)
- पुष्प–माला (कमल/गुलाब)
- लाल/पीला वस्त्र (आवरण के लिए)
- प्रारम्भ:
- दीप प्रज्ज्वलित कर स्वास्तिक चिन्ह बनाएं।
- तीन बार ओं नमो भगवती त्रिपुरसुंदर्यै प्रणम्य स्वंकल्प करें: “ॐ श्री त्रिपुरसुंदरी वेदसार स्तोत्र–पाठार्थं समर्पयामि।”
- पाठ:
- शुद्ध धाराप्रवाह हिंदी पाठ या संस्कृत पाठ (यदि संविद् हो) करें।
- प्रत्येक श्लोक के अंत में “ॐ श्री त्रिपुरसुंदर्यै नमः” कहा जा सकता है।
- समापन:
- पुनः दीप प्रज्ज्वलित कर आहुति स्वरूप पुष्प अर्पित करें।
- ३ बार “ॐ नमो भगवती त्रिपुरसुंदर्यै” कहकर प्रणाम करें।
- अंत में प्रसाद (फलों या मिठाई) का वितरण।
उचित जप समय
- भोर का मुहूर्त (ब्रह्ममुहूर्त)
सुबह ४:३०–५:३० के बीच कंठस्थ जप करने से शीघ्र फल मिलता है। - शुक्रवार या बुधवार
इन दिनों देवी कृपा अधिक विशेष होती है। - जप माला
– १०८ माला प्रतिदिन (कम से कम ३ दिन अविराम)
– या ३६ माला × ३ दिन लगातार - बड़े उत्सव या नवदुर्गा के दिन
नवमी, दशमी, सप्तमी में विशेष रूप से जप अधिक फलदायक।