“श्री वीरविंशतिकाव्यं श्रीहनुमत्स्तोत्रम्” एक अत्यंत प्रभावशाली स्तोत्र है, जिसमें भगवान श्री हनुमानजी के पराक्रम, भक्तिभाव, और दिव्यता का सुंदर काव्यमय वर्णन किया गया है। “वीरविंशति” शब्द का अर्थ है – बीस (20) वीरता से भरपूर श्लोक, जो श्रीहनुमान की महानता का गान करते हैं। इस स्तोत्र में कुल 21 श्लोक हैं, जिनमें अंतिम श्लोक स्तोत्र की स्तुति और फलश्रुति है।
यह स्तोत्र एक उच्च कोटि की संस्कृत कविता (काव्य) है, जिसमें लेखक ने श्रीहनुमान के समुद्र लांघने, अशोक वाटिका में सीता माता से भेंट, लंका दहन, रावण-दूत संवाद, और श्रीराम के प्रति निष्ठा जैसे प्रसंगों को अत्यंत कलात्मकता और वीर रस में वर्णित किया है। इसे पढ़ते समय पाठक श्रीहनुमान के अद्वितीय साहस, भक्ति और विवेक को जैसे नेत्रों के सामने सजीव अनुभव करता है।
इस स्तोत्र का पाठ न केवल आध्यात्मिक बल देता है, बल्कि भय, निराशा, शत्रु बाधा और आलस्य जैसे मानसिक दोषों को भी दूर करता है। यह स्तुति शिवभक्तों, रामभक्तों और विशेष रूप से हनुमानजी के उपासकों के लिए अत्यंत फलदायक मानी जाती है।
संक्षेप में, यह स्तोत्र एक ऐसा दिव्य स्तव है जो न केवल श्रीहनुमान की महिमा का गायन करता है, बल्कि हमें भी उनकी तरह निडर, विनम्र, और धर्मनिष्ठ बनने की प्रेरणा देता है।
लांगूलमृष्टवियदम्बुधिमध्यमार्ग-
मुत्प्लुत्य यान्तममरेन्द्रमुदो निदानम् ।
आस्फालितस्वकभुजस्फुटिताद्रिकाण्डं
द्राङ्मैथिलीनयननन्दनमद्य वन्दे ॥ १ ॥
मध्येनिशाचरमहाभयदुर्विषह्यं
घोराद्भुतव्रतमिदं यददश्चचार ।
पत्ये तदस्य बहुधापरिणामदूतं
सीतापुरस्कृततनुं हनुमन्तमीडे ॥ २ ॥
यः पादपङ्कजयुगं रघुनाथपत्न्या
नैराश्यरूषितविरक्तमपि स्वरागैः ।
प्रागेव रागि विदधे बहु वन्दमानो
वन्देऽञ्जनाजनुषमेव विशेषतुष्ट्यै ॥ ३ ॥
ताञ्जानकीविरहवेदनहेतुभूतान्
द्रागाकलय्य सदशोकवनीयवृक्षान् ।
लङ्कालकानिव घनानुदपाटयद्य-
स्तं हेमसुन्दरकपिं प्रणमामि पुष्ट्यै ॥ ४ ॥
घोषप्रतिध्वनितशैलगुहासहस्र-
संभ्रान्तनादितवलन्मृगनाथयूथम् ।
अक्षक्षयक्षणविलक्षितराक्षसेन्द्र-
मिन्द्रं कपीन्द्रपृतनावलयस्य वन्दे ॥ ५ ॥
हेलाविलङ्घितमहार्णवमप्यमन्दं
घूर्णद्गदाविहतिविक्षतराक्षसेषु ।
स्वम्मोदवारिधिमपारमिवेक्षमाणं
वन्देऽहमक्षयकुमारकमारकेशम् ॥ ६ ॥
जम्भारिजित्प्रसभलम्बितपाशबन्धं
ब्रह्मानुरोधमिव तत्क्षणमुद्वहन्तम् ।
रौद्रावतारमपि रावणदीर्घदृष्टि-
सङ्कोचकारणमुदारहरिं भजामि ॥ ७ ॥
दर्पोन्नमन्निशिचरेश्वरमूर्धचञ्च-
त्कोटीरचुम्बि निजबिम्बमुदीक्ष्य हृष्टम् ।
पश्यन्तमात्मभुजयन्त्रणपिष्यमाण-
तत्कायशोणितनिपातमपेक्षि वक्षः ॥ ८ ॥
अक्षप्रभृत्यमरविक्रमवीरनाश-
क्रोधादिव द्रुतमुदञ्चितचन्द्रहासाम् ।
निद्रापिताभ्रघनगर्जनघोरघोषैः
संस्थम्भयन्तमभिनौमि दशास्यमूर्तिम् ॥ ९ ॥
आशंस्यमानविजयं रघुनाथधाम
शंसन्तमात्मकृतभूरिपराक्रमेण ।
दौत्ये समागमसमन्वयमादिशन्तं
वन्दे हरेः क्षितिभृतः पृतनाप्रधानम् ॥ १० ॥
यस्यौचितीं समुपदिष्टवतोऽधिपुच्छं
दम्भान्धितां धियमपेक्ष्य विवर्धमानः ।
नक्तञ्चराधिपतिरोषहिरण्यरेता
लङ्कां दिधक्षुरपतत्तमहं वृणोमि ॥ ११ ॥
क्रन्दन्निशाचरकुलां ज्वलनावलीढैः
साक्षाद्गृहैरिव बहिः परिदेवमानाम् ।
स्तब्धस्वपुच्छतटलग्नकृपीटयोनि-
दन्दह्यमाननगरीं परिगाहमानाम् ॥ १२ ॥
मूर्तैर्गृहासुभिरिव द्युपुरं व्रजद्भि-
र्व्योम्नि क्षणं परिगतं पतगैर्ज्वलद्भिः ।
पीताम्बरं दधतुमुच्छ्रितदीप्ति पुच्छं
सेनां वहद्विहगराजमिवाहमीडे ॥ १३ ॥
स्थम्भीभवत्स्वगुरुवालधिलग्नवह्नि-
ज्वालोल्ललद्ध्वजपटामिव देवतुष्ट्यै ।
वन्दे यथोपरि पुरो दिवि दर्शयन्त-
मद्यैव रामविजयाजिकवैजयन्तीम् ॥ १४ ॥
रक्षक्षयैकचितकक्षकपूश्चितौ यः
सीताशुचो निजविलोकनतो मृतायाः ।
दाहं व्यधादिव तदन्त्यविधेयभूतं
लाङ्गूलदत्तदहनेन मुदे स नोऽस्तु ॥ १५ ॥
आशुद्धये रघुपतिप्रणयैकसाक्ष्ये
वैदेहराजदुहितुः सरिदीश्वराय ।
न्यासं ददानमिव पावकमापतन्त-
मब्धौ प्रभञ्जनतनूजनुषं भजामि ॥ १६ ॥
रक्षस्स्वतृप्तिरुडशान्तिविशेषशोण-
मक्षक्षयक्षणविधानुमितात्मदाक्ष्यम् ।
भास्वत्प्रभातरविभानुभरावभासं
लङ्काभयङ्करममुं भगवन्तमीडे ॥ १७ ॥
तीर्त्वोदधिं जनकजार्पितमाप्य चूडा-
रत्नं रिपोरपि पुरं परमस्य दग्ध्वा ।
श्रीरामहर्षगलदश्र्वभिषिच्यमानं
तं ब्रह्मचारिवरवानरमाश्रयेऽहम् ॥ १८ ॥
यः प्राणवायुजनितो गिरिशस्य शान्तः
शिष्योऽपि गौतमगुरुर्मुनिशंकरात्मा ।
हृद्यो हरस्य हरिवद्धरितां गतोऽपि
धीधैर्यशास्त्रविभवेऽतुलमाश्रये तं ॥ १९ ॥
स्कन्धेऽधिवाह्य जगदुत्तरगीतिरीत्या
यः पार्वतीश्वरमतोषयदाशुतोषम् ।
तस्मादवाप च वरानपरानवाप्यान्
तं वानरं परमवैष्णवमीशमीडे ॥ २० ॥
उमापतेः कविपतेः स्तुतिर्बाल्यविजृम्भिता ।
हनूमतस्तुष्टयेऽस्तु वीरविंशतिकाभिधा ॥ २१ ॥
॥ इति श्री वीरविंशतिकाव्यं श्रीहनुमत्स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥
“श्री वीरविंशतिकाव्यं श्रीहनुमत्स्तोत्रम्” का हिंदी अनुवाद (Hindi translation of “Shri Veervinshatikavyam Shri Hanumatsotram”)
जिसने पूँछ को मोड़कर आकाश और समुद्र के बीच के मार्ग में उड़ान भरी, इन्द्र आदि देवों के आश्चर्य का कारण बना,
अपने भुजदंडों के प्रहार से पर्वतों को चूर किया — उस मैथिली (सीता) के नयनानंदन श्रीहनुमान को मैं आज प्रणाम करता हूँ ॥ १ ॥
जो निशाचरों के महान भय को पार कर, अद्भुत व्रत का पालन करता हुआ रात में चला,
और श्रीराम के लिए अनेक परिणामों के दूत बनकर पहुँचा — उस सीता सहित स्वरूप को धारण करने वाले हनुमान की मैं स्तुति करता हूँ ॥ २ ॥
जिसने रघुनाथ की पत्नी (सीता) के चरणों की सेवा को, उनका निराश मन देखकर,
अपने प्रेम से अलंकृत किया और बारंबार नमस्कार किया — उस अंजना के पुत्र को मैं विशेष संतोष हेतु प्रणाम करता हूँ ॥ ३ ॥
जो जानकी के विरह से उत्पन्न वेदना का कारण बने अशोकवन के वृक्षों को पहचानकर,
उन्हें काले बादलों की तरह उखाड़ फेंका — उस स्वर्णरूपी सुंदर कपि को मैं पोषण के लिए प्रणाम करता हूँ ॥ ४ ॥
जिसके घोष से पर्वतगुहाएँ गूँज उठीं, मृगों के झुंड डर से भाग उठे,
जिसने अक्ष और राक्षसों का वध किया — उस कपियों के सेनापति को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ५ ॥
जिसने विशाल समुद्र को क्रीड़ा में ही पार कर लिया, गदा के प्रहार से राक्षसों को पराजित किया,
और अपने आनंद के समुद्र की सीमा न देख पाने वाला — उस अक्षकुमार को मारने वाले को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ६ ॥
जो यमराज को भी जीत चुका है, बलपूर्वक पाश में बाँध लिया गया,
और ब्रह्मा के आदेश से ही एक क्षण को उसे बंधन सहना पड़ा — उस रौद्र रूप धारी, रावण को संकोच में डालने वाले श्रीहरि को मैं भजता हूँ ॥ ७ ॥
जिसने राक्षसों के राजा के मुकुट को अपने शरीर के तेज से स्पर्श कराया,
और अपनी भुजाओं से उसे दबा दिया — उसके खून से सने वक्षस्थल को देखने वाले उस हनुमान को प्रणाम ॥ ८ ॥
जिसने अक्ष आदि राक्षसों का वध किया, चन्द्रहास तलवार उठाने वाले को भी शांत कर दिया,
जिसकी गर्जना से मेघों की भी गड़गड़ाहट मंद पड़ गई — उस दशमुख (रावण) के भय को दूर करने वाले को नमस्कार ॥ ९ ॥
जो श्रीराम के घर की विजय की आशा बताता है,
अपने कार्यों द्वारा पराक्रम प्रकट करता है, दूत रूप में एकत्रीकरण करता है — उस धरती पर श्रीहरि के सेनापति को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १० ॥
जिसने राम के संदेश के अनुरूप अपनी पूँछ दिखाई,
और राक्षसराज रावण की अंध-बुद्धि को देखते हुए,
उसके नगर को जलाने के लिए उड़ान भरी — उस महावानर को मैं नमन करता हूँ ॥ ११ ॥
जिसने निशाचरों के कुल को रुला दिया, अग्नि की लपटों से उनके भवनों को लील लिया,
जिससे लंका नगरी रोती-चिल्लाती दिखाई दी — उस अग्निदेव की भांति प्रज्वलित पूँछ वाले को नमस्कार ॥ १२ ॥
जो जलते हुए घरों के समान स्वर्ग को गमन करने वाले अग्निशिखाओं जैसे वानर समूहों के बीच,
पीतांबर धारण किए हुए, ऊपर उठती पूँछ के साथ गरुड़ की तरह प्रकट हुआ — उस वीर को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १३ ॥
जिसकी पूँछ में लगी अग्नि ध्वज के समान लहराती थी,
जो आकाश में खड़ा होकर विजय की घोषणा करता प्रतीत होता था —
उस हनुमान को प्रणाम, जो आज ही श्रीराम की विजय-ध्वजा को दर्शाता है ॥ १४ ॥
जिसने सीता के दर्शन से मृतप्राय अवस्था को भी भस्म कर दिया,
और अपनी पूँछ से अंतिम संस्कार-सा कर डाला — उस पूँछ से दहन करने वाले हनुमान को शुभकामना सहित नमस्कार ॥ १५ ॥
जो रघुनाथ की प्रीति का साक्षी बनकर,
वैदेह की अमानत को सागर-देव को सौंपता हुआ
जैसे अग्नि में कूदता है — उस पवनपुत्र को मैं भजता हूँ ॥ १६ ॥
जिसकी क्रोध से राक्षसों की शक्ति कम हुई,
जिसने रावण के पुत्रों को नष्ट किया,
जो भास्कर के समान प्रभा को धारण करता है — उस लंका को भयभीत करने वाले श्रीहनुमान को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ १७ ॥
जो समुद्र को पार कर, जानकी द्वारा दिया गया चूड़ामणि लेकर लौटा,
रावण की लंका को जलाया, और श्रीराम के चरणों में आनंदाश्रु से अभिषेकित हुआ — उस ब्रह्मचारी श्रेष्ठ वानर को मैं शरण लेता हूँ ॥ १८ ॥
जो प्राणवायु से उत्पन्न हुआ, महादेव का शांत रूप है,
गौतम ऋषि का शिष्य, मुनिशंकर का आत्मस्वरूप है,
हरि और हर दोनों को प्रिय, शास्त्र में अतुलनीय — उस धैर्यवान वीर को मैं शरण लेता हूँ ॥ १९ ॥
जिसने अपने कंधे पर पूरे जगत् की महिमा को उठाकर,
पार्वतीपति (महादेव) को संतुष्ट किया, और उनसे दुर्लभ वर प्राप्त किए —
उस वानररूप परम वैष्णव देवता को मैं नमन करता हूँ ॥ २० ॥
उमापति (शिव) और कवियों के स्वामी की यह स्तुति,
जो बचपन में ही रची गई थी —
हनुमान की प्रसन्नता हेतु “वीरविंशति” नाम से विख्यात हो ॥ २१ ॥
॥ इति श्री वीरविंशतिकाव्यं श्रीहनुमत्स्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥
स्तोत्र पाठ के लाभ (Benefits):
- भय, बाधा और संकटों से मुक्ति:
यह स्तोत्र हनुमानजी के अद्भुत पराक्रम का वर्णन करता है। इसका नियमित पाठ शत्रु भय, आकस्मिक संकट, और बुरी शक्तियों से रक्षा करता है। - धैर्य, शक्ति और साहस की प्राप्ति:
वीर रस से युक्त यह स्तोत्र मन, बुद्धि और शरीर में साहस और ऊर्जा भर देता है। - कर्मों में सफलता और आत्मविश्वास:
कार्यों में अड़चनें दूर होती हैं और आत्मबल में वृद्धि होती है। - हनुमानजी की कृपा और आराध्यता:
यह स्तोत्र भक्त को हनुमानजी के अत्यंत समीप ले जाता है, जिससे जीवन में भक्तिभाव, सेवा, विवेक और बल बढ़ता है। - रोग, दरिद्रता व नकारात्मकता का शमन:
खासकर मानसिक और भयजनित रोगों में विशेष लाभकारी माना गया है।
पाठ विधि (Pāṭh Vidhi):
- स्थान:
किसी शुद्ध और शांत स्थान पर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठें। मंदिर या पूजास्थल सर्वोत्तम। - स्नान और शुद्ध वस्त्र:
स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें (यदि संभव हो तो लाल वस्त्र धारण करें)। - हनुमानजी की प्रतिमा या चित्र:
दीपक, लाल फूल, चंदन, गुग्गुल धूप, लाल चोला या सिंदूर से हनुमानजी की पूजा करें। - नैवेद्य:
गुड़-चना, बेसन के लड्डू या केले अर्पित करें। - पाठ प्रारंभ:
“ॐ हं हनुमते नमः” बीज मंत्र से आरंभ कर स्तोत्र का श्रद्धापूर्वक पाठ करें। - समापन:
अंत में हनुमान चालीसा या बजरंग बाण का भी पाठ करें, और आरती करें।
जप / पाठ का श्रेष्ठ समय:
समय | विशेषता |
---|---|
प्रातः काल (सुबह 5 से 7 बजे) | यह समय अत्यंत शुभ माना गया है, ताजगी और एकाग्रता अधिक होती है। |
सायं काल (शाम 6 से 8 बजे) | दिन भर की बाधाएं और थकावट दूर करने हेतु उत्तम समय। |
मंगलवार एवं शनिवार | श्री हनुमानजी के विशेष दिन हैं, इस दिन इसका पाठ अधिक फलदायी होता है। |
👉 विशेष समस्या या अनिष्ट निवारण के लिए 21 दिनों तक निरंतर पाठ करने से अद्भुत फल प्राप्त होते हैं।
विशेष सुझाव:
अगर आप स्तोत्र के शुद्ध उच्चारण में कठिनाई महसूस करें, तो पहले इसका हिंदी अनुवाद पढ़कर भाव समझें, फिर धीरे-धीरे संस्कृत में पढ़ने का अभ्यास करें। भावना और श्रद्धा ही सबसे बड़ा साधन है।