“ब्रह्मास्त्र महाविद्या श्रीबगला स्तोत्र” तांत्रिक साधना में एक अत्यंत प्रभावशाली और रहस्यमय स्तोत्र है, जो देवी बगलामुखी की ब्रह्मास्त्र-स्वरूप शक्तियों का स्तवन करता है। यह स्तोत्र मुख्य रूप से शत्रु-दमन, वाणी-स्तम्भन, मानसिक शांति, और आत्म-रक्षा की सिद्धि के लिए प्रयोग में लाया जाता है। इसे “ब्रह्मास्त्र” कहा गया है क्योंकि इसमें निहित मंत्रशक्ति शत्रुओं पर वैसा ही प्रभाव डालती है जैसे युद्ध में ब्रह्मास्त्र डालता है — तत्काल और पूर्ण नाशकारी।
इस स्तोत्र का उल्लेख तांत्रिक ग्रंथ ‘श्रीरुद्रयामल उत्तरखण्ड’ में मिलता है, जहाँ नारद ऋषि ने इसे प्रकट किया और इसका विनियोग “विरोधियों की बुद्धि, वाणी और शक्ति को स्तम्भित करने” के लिए बताया गया है। इसमें ऋष्यादि न्यास, अंग न्यास, ध्यान, बीजमंत्र और स्तोत्र के साथ पूर्ण पूजा विधि को क्रमबद्ध रूप से बताया गया है।
ब्रह्मास्त्र महाविद्या श्रीबगला स्तोत्र (Brahmastra Mahavidya Shribagla Stotra)
विनियोगः- ॐ अस्य श्रीब्रह्मास्त्र-महा-विद्या-श्रीबगला-मुखी स्तोत्रस्य श्रीनारद ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, श्री बगला-मुखी देवता, मम सन्निहिता-नामसन्निहितानां विरोधिनां दुष्टानां वाङ्मुख-बुद्धिनां स्तम्भनार्थं श्रीमहा-माया-बगला मुखी-वर-प्रसाद सिद्धयर्थं जपे (पाठे) विनियोग:
।। ऋष्यादि न्यास ।।
श्रीनारद ऋषये नमः शिरसि,
त्रिष्टुप छन्दसे नमः मुखे,
श्री बगला-मुखी देवतायै नमः हृदि,
मम सन्निहिता-नामसन्निहितानां विरोधिनां दुष्टानां वाङ्मुख-बुद्धिनां स्तम्भनार्थं श्रीमहा-माया-बगला मुखी-वर-प्रसाद सिद्धयर्थं जपे (पाठे) विनियोगाय नमः सर्वांगे।
।। अंग न्यास ।।
ॐ ह्लीं अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
ॐ बगलामुखि तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
ॐ सर्व-दुष्टानां मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
ॐ वाचं मुखं पदं स्तम्भय अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुं
ॐ जिह्वां कीलय कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
ॐ बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्
हाथ में पीले फूल, पीले अक्षत और जल लेकर ‘ध्यान’ करे –
सौवर्णासन संस्थिता त्रिनयनां पीतांशुकोल्लासिनीम्,
हेमाभांगरुचिं शशांक मुकुटां सच्चम्पक स्रग्युताम् ।
हस्तैर्मुद्गर पाश वज्र रसनाः संबिभ्रतीं भूषणैर्व्याप्तांगीं,
बगलामुखीं त्रिजगतां संस्तम्भिनीं चिन्तयेत् ।।
।। मन्त्र ।।
।। ॐ ह्ल्रीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिह्वां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्ल्रीं ॐ स्वाहा ।।
।। स्तोत्रम ।।
मध्ये सुधाब्धि-मणि-मण्डप-रत्न-वेद्यां, सिंहासनो-परि-गतां परिपीत-वर्णाम् । पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषितांगीं, देवीं स्मरामि धृत-मुद्-गर-वैरि-जिह्वाम् ।। १ ।।
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीं, वामेन शत्रून् परि-पीडयन्तीम् ।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन, पीताम्बराढ्यां द्विभुजां नमामि ।। २ ।।
त्रिशूल-धारिणीमम्बां सर्वसौभाग्यदायिनीम् ।
सर्वश्रृंगारवेशाढ्यां देवीं ध्यात्वा प्रपूजयेत् ।। ३ ।।
पीतवस्त्रां त्रिनेत्रां च द्विभुजां हाटकोज्ज्वलाम् ।
शिलापर्वतहस्तां च स्मरेत् तां बगलामुखीम् ।। ४ ।।
रिपुजिह्वां देवीं पीतपुष्पविभूषिताम् ।
वैरिनिर्दलनार्थाय स्मरेत् तां बगलामुखीम् ।। ५ ।।
गम्भीरा च मदोन्मत्तां स्वर्ण-कान्ति-समप्रभाम् ।
चतुर्भुजां त्रिनेत्रां च कमलासन-संस्थिताम् ।। ६ ।।
मुद्गरं दक्षिणे पाशं वामे जिह्वां च वज्रकम् ।
पीताम्बरधरां सान्द्र-दृढ़-पीन-पयोधराम् ।। ७ ।।
हेम-कुण्डल-भूषां च पीत चन्द्रार्द्ध-शेखरां ।
पीत-भूषण-पीतांगीं स्वर्ण-सिंहासने स्थिताम् ।। ८ ।।
एवं ध्यात्वा जपेत् स्तोत्रमेकाग्रकृतमानसः ।
सर्व-सिद्धिमवाप्नोति मन्त्र-ध्यानपुरः सरम् ।। ९ ।।
आराध्या जगदम्ब दिव्यकविभिः सामाजिकैः स्तोतृभिः ।
माल्यैश्चन्दन-कुंकुमैः परिमलैरभ्यर्चिता सादरात् ।।
सम्यङ्न्यासिसमस्तभूतनिवहे सौभाग्यशोभाप्रदे ।
श्रीमुग्धे बगले प्रसीद विमले दुःखापहे पाहि माम् ।। १० ।।
आनन्दकारिणी देवी रिपुस्तम्भनकारिणी ।
मदनोन्मादिनी चैव प्रीतिस्तम्भनकारिणी ।। ११ ।।
महाविद्या महामाया साधकस्य फलप्रदा ।
यस्याः स्मरणमात्रेण त्रैलोक्यं स्तम्भयेत् क्षणात् ।। १२ ।।
वामे पाशांकुशौ शक्तिं तस्याधस्ताद् वरं शुभम् ।
दक्षिणे क्रमतो वज्रं गदा-जिह्वाऽँयानि च ।। १३ ।।
विभ्रतीं संसमरेन्नित्यं पीतमाल्यानुलेपनाम् ।
पीताम्बरधरां देवीं ब्रह्मादिसुरवन्दिताम् ।। १४ ।।
केयूरांगदकुण्डलभूषां बालार्कद्युतिरञ्जितवेषाम् ।
तरुणादित्यसमानप्रतिमां कौशेययांशुकबद्धनितम्बाम् ।। १५ ।।
कल्पद्रुमतलनिहितशिलायां प्रमुदितचित्तौल्लासदलकान्ताम् ।
पञ्चप्रेतनिकेतनबद्धां भक्तजनेभ्यो वितरणशीलाम् ।। १६ ।।
एवं विधां तां बगलां ध्यात्वा मनसि साधकः ।
सर्व-सम्पत् समृद्धयर्थं स्तोत्रमेतदुदीरयेत् ।। १७ ।।
चलत्-कनक-कुण्डलोल्लसित-चारु-गण्ड-स्थलाम् ।
लसत्-कनक-चम्पक-द्युतिमदिन्दु-बिम्बाननाम् ।।
गदा-हत-विपक्षकां कलित-लोल-जिह्वां चलाम् ।
स्मरामि बगला-मुखीं विमुख-वाङ्-मनस-स्तम्भिनीम् ।। १८ ।।
पीयूषोदधि-मध्य-चारु-विलसद्-रत्नोज्जवले मण्डपे । तत्-सिंहासन-मूल-पातित-रिपुं प्रेतासनाध्यासिनीम् ।।
स्वर्णाभां कर-पीडितारि-रसनां भ्राम्यद् गदां विभ्रमाम् । यस्त्वां ध्यायति यान्ति तस्य विलयं सद्योऽथ सर्वापदः ।। १९ ।।
देवि ! त्वच्चरणाम्बुजार्चन-कृते यः पीत-पुष्पाञ्जलिम्, मुद्रां वाम-करे निधाय च पुनर्मन्त्री मनोज्ञाक्षरम् ।।
पीता-ध्यान-परोऽथ कुम्भक-वशाद् बीजं स्मरेत् पार्थिवम् । तस्यामित्र-मुखस्य वाचि हृदये जाड्यं भवेत् तत्क्षणात् ।। २० ।।
मन्त्रस्तावदलं विपक्ष-दलने स्तोत्रं पवित्रं च ते । यन्त्रं वादि-नियन्त्रणं त्रि-जगतां जैत्रं च चित्रं च तत् ।।
मातः ! श्रीबगलेति नाम ललितं यस्यास्ति जन्तोर्मुखे । त्वन्नाम-स्मरणेन संसदि मुख-स्तम्भो भवेद् वादिनाम् ।। २१ ।।
वादी मूकति रंकति क्षिति-पतिर्वैश्वानरः शीतति । क्रोधी शाम्यति दुर्जनः सुजनति क्षिप्रानुगः खञ्जति ।।
गर्वी खर्बति सर्व-विच्च जडति त्वद् यन्त्रणा यन्त्रितः । श्री-नित्ये, बगला-मुखि ! प्रतिदिनं कल्याणि ! तुभ्यं नमः ।। २२ ।।
दुष्ट-स्तम्भनमुग्र-विघ्न-शमनं दारिद्र्य-विद्रावणम् । भूभृत्-सन्दमनं च यन्मृग-दृशां चेतः समाकर्षणम् ।।
सौभाग्यैक-निकेतनं सम-दृशां कारुण्य-पूर्णेक्षणे । शत्रोर्मारणमाविरस्तु पुरतो मातस्त्वदीयं वपुः ।। २३ ।।
मातर्भञ्जय मद्-विपक्ष-वदनं जिह्वां च संकीलय । ब्राह्मीं यन्त्रय मुद्रयाशु-धिषणामुग्रां गतिं स्तम्भय ।।
शत्रूश्चूर्णय चूर्णयाशु गदया गौरांगि, पीताम्बरे ! विघ्नौघं बगले ! हर प्रणमतां कारुण्य-पूर्णेक्षणे ! ।। २४ ।।
मातर्भैरवि ! भद्र-कालि विजये ! वाराहि ! विश्वाश्रये ! श्रीविद्ये ! समये ! महेशि ! बगले ! कामेशि ! वामे रमे ! मातंगि ! त्रिपुरे ! परात्पर-तरे ! स्वर्गापवर्ग-प्रदे ! दासोऽहं शरणागतोऽस्मि कृपया विश्ववेश्वरि ! त्राहि माम् ।। २५ ।।
त्वं विद्या परमा त्रिलोक-जननी विघ्नौघ-संच्छेदिनी । योषाकर्षण-कारिणि त्रिजगतामानन्द-सम्वर्द्धिनी ।।
दुष्टोच्चाटन-कारिणी पशु-मनः-सम्मोह-सन्दायिनी । जिह्वा-कीलय वैरिणां विजयसे ब्रह्मास्त्र-विद्या परा ।। २६ ।।
मातर्यस्तु मनोरमं स्तवमिमं देव्याः पठेत् सादरम् धृत्वा यन्त्रमिदं तथैव समरे बाह्वोः करे वा गले ।।
राजानो वरयोषितोऽथ करिणः सर्पामृगेन्द्राः खलास्ते वै यान्ति विमोहिता रिपुगणा लक्ष्मीः स्थिरा सर्वदा ।। २७ ।।
अनुदिनमभिरामं साधको यस्त्रि-कालम्, पठति स भुवनेऽसौ पूज्यते देव-वर्गैः ।।
सकलममल-कृत्यं तत्त्व-द्रष्टा च लोके, भवति परम-सिद्धा लोक-माता पराम्बा ।। २८ ।।
पीत-वस्त्र-वसनामरि-देह-प्रेतजासन-निवेशित-देहाम् ।
फुल्ल-पुष्प-रवि-लोचन-रम्यां दैत्य-जाल-दहनोज्जवल-भूषां ।।
पर्यंकोपरि-लसद्-द्विभुजां कम्बु-हेम-नत-कुण्डल-लोलाम् ।
वैरि-निर्दलन-कारण-रोषां चिन्तयामि बगलां हृदयाब्जे ।। २९ ।।
चिन्तयामि सुभुजां श्रृणिहस्तां सद्-भुजांचसुर-वन्दित चरणाम् ।
षष्ठिसप्ततिशतैधृतशस्त्रैर्बाहुभिः परिवृतां बगलाम्बाम् ।। ३१ ।।
चौराणां संकटे च प्रहरणसमये बन्धने वारिमध्ये ।
वह्नौ वादे विवादे प्रकुपितनृपतौ दिव्यकाले निशायाम् ।।
वश्ये वा स्तम्भने वा रिपुवधसमये प्राणबाधे रणे वा ।
गच्छंस्तिष्ठस्त्रिकालं स्तवपठनमिदं कारयेदाशु धीरः ।। ३२ ।।
विद्यालक्ष्मीः सर्वसौभाग्यमायुः पुत्राः सम्पद् राज्यमिष्टं च सिद्धिः ।
मातः श्रेयः सर्ववश्यत्वसिद्धिः प्राप्तं सर्वं भूतले त्वत्परेण ।। ३३ ।।
गेहं नाकति गर्वितः प्रणमति स्त्रीसंगमो मोक्षति द्वेषी मित्रति पातकं सुकृतति क्ष्मावल्लभो दासति ।।
मृत्युर्वैद्यति दूषणं गुणति वै यत्पादसंसेवनात् तां वन्दे भवभीतिभञ्जनकरीं गौरीं गिरीशप्रियाम् ।। ३४ ।।
यत्-कृतं जप-सन्ध्यानं चिन्तनं परमेश्वरि !
श्रत्रुणां स्तम्भनार्थाय, तद् गृहाण नमोऽस्तु ते ।। ३५ ।।
ब्रह्मास्त्रमेतद् विख्यातं, त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ।
गुरु-भक्ताय दातव्यं, न देयं यस्य कस्यचित् ।। ३६ ।।
पीताम्बरां च द्वि-भुजां , त्रि-नेत्रां गात्र-कोज्ज्वलाम् ।
शिला-मुद्-गर-हस्तां च, स्मरेत् तां बगला-मुखीम् ।। ३७ ।।
सिद्धिं सध्येऽवगन्तुं गुरु-वर-वचनेष्वार्ह-विश्वास-भाजाम् ।
स्वान्तः पद्मासनस्थां वर-रुचिं-बगलां ध्यायतां तार-तारम् ।।
गायत्री-पूत-वाचां हरि-हर-मनने तत्पराणां नराणाम्, प्रातर्मध्याह्न-काले स्तव-पठनमिदं कार्य-सिद्धि-प्रदं स्यात् ।। ३८ ।।
।। श्रीरुद्र-यामले उत्तर-खण्डे श्रीब्रह्मास्त्र-महा-विद्या श्रीबगला-मुखी स्तोत्रम् ।।
लाभ (Benefits):
ब्रह्मास्त्र महाविद्या श्रीबगला स्तोत्र साधना से साधक को निम्नलिखित चमत्कारी लाभ प्राप्त होते हैं:
- शत्रु स्तम्भन (Enemy Control):
शत्रुओं की वाणी, बुद्धि और प्रयासों को स्तम्भित करने की शक्ति देती है। यह स्तोत्र एक रक्षा-कवच की तरह कार्य करता है। - कानूनी मामलों में विजय:
कोर्ट केस, झूठे आरोप, सरकारी बाधाएं आदि में न्याय और सफलता दिलाने वाला है। - वाक् शक्ति की वृद्धि:
वाणी में प्रभाव, शांति, आकर्षण और बौद्धिक स्थिरता आती है।
साथ ही वाद-विवाद या भाषण में जीत के लिए उपयोगी है। - मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति:
साधक को साहस, आत्मविश्वास और स्थिर मन प्रदान करता है।
अवसाद, भ्रम और भय से मुक्ति मिलती है। - नकारात्मक शक्तियों से रक्षा:
यह स्तोत्र टोटका, जादू-टोना, नजर दोष, और तांत्रिक प्रयोगों से रक्षा करता है।
विधि (Puja Vidhi):
सामग्री: पीला वस्त्र, पीला आसन, पीले पुष्प, चन्दन, हल्दी, अक्षत, जल, दीप, धूप, घी, शुद्ध जल
- शुद्धिकरण व तैयारी:
स्नान कर, पीले वस्त्र धारण करें। एकांत में पीला आसन लगाएं। सामने मां बगलामुखी का चित्र या यंत्र रखें। - पूजन आरंभ:
दीपक जलाएं। देवी को पीले पुष्प, हल्दी, चन्दन अर्पित करें।
मन ही मन संकल्प लें कि आप शत्रुनाश, वाणी शुद्धि और सुरक्षा के लिए स्तोत्र कर रहे हैं। - ऋष्यादि और अंग न्यास:
स्तोत्र में बताए अनुसार शिरसि, मुखे, हृदि, आदि अंगों में बीजमंत्रों के साथ न्यास करें। - ध्यान करें:
“सौवर्णासन संस्थिता…” से देवी का ध्यान करें। पीली आभा, जिह्वा स्तम्भन मुद्रा, और गदा-पाश धारण किए स्वरूप की कल्पना करें। - स्तोत्र का पाठ करें:
पूरे भाव से “ब्रह्मास्त्र महाविद्या श्रीबगला स्तोत्र” का पाठ करें।
पाठ के बाद देवी से रक्षा, शक्ति और विजय की प्रार्थना करें। - अंत में पुष्पांजलि और क्षमा प्रार्थना करें।
जप / पाठ का समय (Timing):
समय | उपयुक्तता |
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ब्रह्ममुहूर्त (सुबह 4–6 बजे) | सर्वोत्तम – तांत्रिक प्रभाव सर्वाधिक होता है |
अमावस्या / कृष्णपक्ष | शत्रु नाश, वशीकरण, बाधा निवारण के लिए उत्तम |
मंगलवार / शनिवार | बगलामुखी साधना के लिए शुभ दिन |
रात्रि समय (9–12 बजे) | तांत्रिक प्रयोगों हेतु गुप्त साधना हेतु प्रयुक्त |
पाठ संख्या:
- आरंभ में 11, 21, या 108 बार जप से शुरू करें।
- विशेष प्रयोग में 1008 पाठ या 7, 11, 21 दिन तक नियमित पाठ किया जाता है।
इस स्तोत्र की प्रमुख विशेषताएँ:
- देवी बगलामुखी की पीताम्बरा, स्तम्भनी, और वैरि-विनाशिनी स्वरूप में उपासना।
- मंत्र और स्तोत्र का सम्मिलन, जिससे साधक को सर्वसिद्धि, रक्षा, और विजय की प्राप्ति होती है।
- इसमें वर्णित ध्यान और न्यास साधक के शरीर, मन और वाणी को शक्ति-संपन्न बनाते हैं।
कब और क्यों करें?
यह स्तोत्र विशेष रूप से तब जप करना चाहिए जब:
- शत्रु बाधाएं बढ़ रही हों
- न्यायालय या कानूनी संकट सामने हों
- मानसिक दुर्बलता, भ्रम, या बोलने में हिचक हो
- आत्म-संरक्षण, आत्म-बल और निर्णय क्षमता में वृद्धि की आवश्यकता हो