प्रहलादकृत नृसिंह स्तोत्र श्रीहरि विष्णु के नृसिंह अवतार को समर्पित एक अत्यंत प्रभावशाली स्तोत्र है, जिसकी रचना भक्त प्रह्लाद द्वारा स्वयं भगवान नृसिंहदेव की स्तुति करते समय की गई थी। यह स्तोत्र श्रीमद्भागवतम् के सातवें स्कंध में वर्णित है और कुल 48 श्लोकों में संपूर्ण है।
जब हिरण्यकशिपु जैसे अत्याचारी असुर का वध कर भगवान नृसिंह अत्यंत उग्र रूप में प्रकट हुए, तब उन्हें शांत करने हेतु भक्त प्रह्लाद ने यह स्तुति गायी। यह स्तोत्र केवल भगवान की महिमा का ही नहीं, बल्कि सच्ची भक्ति, श्रद्धा और आत्मसमर्पण की शक्ति का भी प्रतीक है।
इस स्तोत्र में प्रह्लाद, नृसिंह भगवान की स्तुति करते हुए कहते हैं कि वे किसी भी सांसारिक सुख, स्वर्ग, मोक्ष या वरदान की इच्छा नहीं रखते – वे केवल प्रभु की सेवा में रत रहना चाहते हैं। इसमें भक्त प्रह्लाद ईश्वर के सार्वभौमिक स्वरूप, उनकी लीला, माया, तत्त्वज्ञान और करुणा का गहन वर्णन करते हैं।
इस स्तोत्र का पाठ न केवल नृसिंह भगवान की कृपा प्राप्त करने हेतु किया जाता है, बल्कि यह शत्रु बाधा, भय, तांत्रिक प्रहार, रोग, दुःस्वप्न, और मानसिक अशांति से रक्षा करने वाला भी माना गया है। यह स्तोत्र भक्त को पूर्ण रूप से प्रभु की शरण में ले जाकर उसे आत्मिक शांति प्रदान करता है।
प्रहलादकृत नृसिंह स्तोत्र (Prahladkrit Narsimha Stotra)
प्रहलाद उवाच
ब्रह्मादयः सुरगणा मुनयोऽथ सिद्धाः सत्त्वैकतानमतयो वचसां प्रवाहैः ।
नाराधितुं पुरुगुणैरधुनापि पिप्रुः किं तोष्टुमर्हति स मे हरिरुग्रजातेः ॥1॥
मन्ये धनाभिजनरूपतपःश्रुतौजस्तेजः प्रभावबलपौरुषबुद्धियोगाः ।
नाराधनाय हि भवन्ति परस्य पुंसो भक्त्या तुतोष भगवान् गजयूथपाय ॥2॥
विप्राद्विषड्गुणयुतादरविन्दनाभपादारविन्दविमुखाच्छ्वपचं वरिष्ठम् ।
मन्ये तदर्पितमनोवचनेहितार्थ प्राणं पुनाति स कुलं न तु भूरिमानः ॥3॥
नैवात्मनः प्रभुरयं निजलाभपूर्णो मानं जनादविदुषः करुणो वृणीते ।
यदज्जनो भगवते विदधीत मानं तच्चात्मने प्रतिमुखस्य यथा मुखश्रीः ॥4॥
तस्मादहं विगतविक्लव ईश्वरस्य सर्वात्मना मम यथा मनीषमीयाः ।
नीचोऽजया गुणविसर्गमनुप्रविष्टः पूयेत येन हि पुमाननुवर्णितेन ॥5॥
सर्वे ह्यामी विधिकरास्तव सत्त्वधाम्नो ब्रह्मादयो वयमिवेश न चोद्विजन्तः ।
क्षेमाय भूतय उतात्मसुखाय चास्य विक्रीडितं भगवतो रूचिरावतारैः ॥6॥
तदच्छ मन्युमसुरश्च हतस्त्वयाध मोदेत साधुरपि वृश्चिकसर्पहत्या ।
लोकाश्च निर्व्रतिमिताः प्रतियन्ति सर्वे रूपं नृसिंह विभयाय जना स्मरन्ति ॥7॥
नाहं बिभेम्यजित तेऽतिभयानकास्य जिह्वार्कनेत्रभ्रुकुटीरभसोग्रदंष्ट्रात् ।
आंत्रस्त्रजः क्षतजकेसरशंकुकर्णान्निर्ह्रादभीतदिगिभादरिभिन्नखाग्रात् ॥8॥
त्रस्तोऽस्म्यहं कृपणवत्सल दुःसहोग्रसंसारचक्रकदनाद्ग्रसतां प्रणीतः ।
बद्धः स्वकर्मभिरुशत्तम तेऽङ्घ्रिमूलं प्रीतोऽपवर्गशरणं भवतः कदा नु ॥9॥
यस्मात्प्रियाप्रियवियोगसयोगजन्मशोकाग्निना सकलयोनिषु दह्यमानः ।
दुःखौषधं तदपि दुःखमतद्धियाहं भूमन् भ्रमामि वद मे तव दास्ययोगम् ॥10॥
सोऽहं प्रियस्य सुह्रदः परदेवताया लीलाकथास्तव नृसिंह विरिञ्च गीता: ।
अञ्जस्तितम्र्यनुग्रणन् गुणविप्रमुक्तो दुर्गाणि ते पदयुगालयहंससंगः ॥11॥
बालस्य नेह शरणं पितरौ नृसिंह नार्तस्य चागदमुदन्वति मज्जतो नौ: ।
तप्तस्य तत्प्रतिविधिर्य इहाञ्जसेष्टस्तावद्विभो तनुभृतां त्वदुपेक्षितानाम् ॥12॥
यस्मिमन्यतो यर्हि येन च यस्य यस्माधस्मै यथा यदुत यस्त्वपरः परो वा ।
भावः करोति विकरोति पृथक्स्वभावः सञ्चोदितस्तदखिलं भवतः स्वरूपम् ॥13॥
माया मनः स्रजति कर्ममयं बलीयः कालेन चोदितगुणानुमतेन पुंसः ।
छन्दोमयं यदजयार्पितषोडशारं संसारचक्रमज कोऽतितरेत्त्वदन्यः ॥14॥
स त्वं हि नित्यविजितात्मगुणः स्वधाम्ना कालो वशीकृतविसृज्यविसर्गशक्ति: ।
चक्रे विसृष्टमजयेश्वर षोडशारे निष्पीडयमानमुपकर्ष विभो प्रपन्नम् ॥15॥
दृष्टा मया दिवि विभोऽखिलधिष्ण्यपानामायु: श्रियो विभव इच्छति याञ्जनोऽयम् ।
येऽस्मत्पितु: कुपितहासविज्रम्भितभ्रूविस्फूर्जितेन लुलिता: स तु ते निरस्तः ॥16॥
तस्मादमूस्तनुभृतामहमाशिषो ज्ञ आयु: श्रियं विभवमैन्द्रियमाविरिंचात् ।
नेच्छामि ते विलुलितानुरूविक्रमेण कालात्मनोपनय मां निजभृत्यपाशर्वम् ॥17॥
कुत्राशिषः श्रुतिसुखा मृगतृष्णिरूपाः क्वेदं कलेवरमशेषरुजां विरोहः ।
निर्विधते न तु जनो यदपीति विद्वान् कामानलं मधुलवैः शमयंदुरापैः ॥18॥
क्वाहं रजः प्रभव ईश तमोऽधिकेऽस्मिञ्जातः सुरेतरकुले क्व तवानुकम्पा ।
न ब्रह्माणो न तु भवस्य न वै रमाया यन्मेऽर्पितः शिरसि पद्मकरःप्रसादः ॥19॥
नैषा परावरमतिर्भवतो ननु स्याज्जन्तो यथाऽऽत्मसुह्रदो जगतस्तथापि ।
संसेवया सुरतरोरिव ते प्रसादः सेवानुरूपमुदयो न परावरत्वम् ॥20॥
एवं जनं निपतितं प्रभवाहिकूपे कामाभिकाममनु यः प्रपतन् प्रसंगात् ।
कृत्वाऽऽत्मसात्सुरर्षिणा भगवंन्ग्रहीतः सोऽहं कथं नु विस्रजे तव भृत्यसेवाम् ॥21॥
मत्प्राणरक्षणमनन्त पितुर्वधश्च मन्ये स्वभृत्यऋषिवाक्यमृतं विधातुम् ।
खडगं प्रग्रहा यदवोचदसद्विधित्सुस्त्वामीश्वरो मदपरोऽवतु कं हरामि ॥22॥
एकस्त्वमेव जगदेतदमुष्य यत्त्वमाधन्तयोः पृथगवस्यसि मध्यतश्च ।
सृष्ट्वा गुणव्यतिकरं निजमाययेदं नानेव तैरवसितस्तदनुप्रविष्टः ॥23॥
त्वं वा इदं सदसदीश भवांस्ततोऽन्यो माया यदात्मपरबुद्धिरियं ह्रापार्था ।
यधस्य जन्म निधनं स्थितिरीक्षणं च तद्वै तदेव वसुकालवद्ष्टितर्वोः ॥24॥
न्यस्येदमात्मनि जगद्विलयाम्बुमध्ये शेषेऽऽत्मना निजसुखानुभवो निरीहः ।
योगेन मीलितदृगात्मनिपीतनिद्रस्तु ये स्थितो न तु तमो न गुणांश्च युंगक्षे ॥25॥
तस्यैव ते वपुरिदं निजकालशक्त्या सञ्चोदितप्रकृतिधर्मण आत्मगूढम् ।
अम्भस्यनन्तशयनाद्विरमत्समाधेर्नाभेरभूत्स्वकणिकावटवन्महाब्जम् ॥26॥
तत्सम्भवः कविरतोऽन्यदपश्यमानस्त्वां बीजमात्मनि ततं स्वबहिर्विचिन्त्य ।
नाविन्ददब्दशतमप्सु निमज्जमानो जातेऽन्कुरे कठमु होपलभेत बीजम् ॥27॥
स त्वात्मयोनिरतिविस्मित आस्थितोऽब्जं कालेन तीव्रतपसा परिशुद्धभावः ।
त्वामात्मनीश भुवि गन्धमिवातिसूक्ष्मं भूतेन्द्रियाशयमये विततं ददर्श ॥28॥
एवं सहस्त्रवद्नांगघ्रिशिरःकरोरूनासास्यकर्णनयनाभरणायुधाढयम् ।
मायामयं सदुपलक्षितसन्निवेशं दृष्ट्वा महापुरुषमाप मुदं विरिञ्चः ॥29॥
तस्मै भवान् हयशिरस्तनुवं च बिभ्रद्वेदद्रुहावतिबलौ मधुकैटभाख्यौ ।
हत्वाऽऽनयच्छुतिगणांस्तु रजस्तमश्च सत्त्वं तव प्रियतमां तनुमामनन्ति ॥30॥
इत्थं नृतिर्यगृषिदेवझषावतारैर्लोकान् विभावयसि हंसि जगत्प्रतीपान् ।
धर्मं महापुरुष पासि युगानुवृत्तं छन्नः कलौ यदभवस्त्रिगोऽथ स त्वम् ॥31॥
नैतन्मनस्तव कथासु विकुण्ठनाथ सम्प्रीयते दुरितदुष्टमसाधु तीव्रम् ।
कामातुरं हर्षशोकभयैषणार्तं तस्मिन् कथं तव गतिं विम्रशामि दीनः ॥32॥
जिहवैकतोऽच्युत विकर्षति मावितृप्ता शिश्नोऽन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कुतश्चित् ।
घ्राणोऽन्यतश्चपलदृक् क्व च कर्मशक्तिर्बहव्यः सपत्न्य इव गेहपतिं लुनन्ति ॥33॥
एवं स्वकर्मपतितं भववैतरण्यामन्योन्यजन्ममरणाशनभीतभीतम् ।
पश्यञ्जनं स्वपरविग्रहवैरमैत्रं ह्न्तेति पारचर पीप्रहि मूढमध ॥34॥
को न्वत्र तेऽखिलगुरो भगवन् प्रयास उत्तारणेऽस्य भवसम्भवलोपहेतोः ।
मूढेषु वै महदनुग्रह आर्तबन्धो किं तेन ते प्रियजनाननुसेवतां नः ॥35॥
नैवोद्विजे पर दुरत्ययवैतरण्यास्त्वद्विर्यगायनमहामृतमग्नचित्तः ।
शोचे ततो विमुखचेतस इन्द्रियार्थमायासुखाय भरमुद्वहतो विमूढान् ॥36॥
प्रायेण देव मुनयः स्वविमुक्तिकामा मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः ।
नैतान् विहाय कृपणान् विमुमुक्ष एको नान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये ॥37॥
यन्मैथुनादि ग्रहमेधिसुखं हि तुच्छं कंडूयनेन करयोरिव दुःखदुखम् ।
तृप्यन्ति नेह कृपणा बहुदुःखभाजः कंडूतिवन्मनसिजं विषहेत धीरः ॥38॥
मौनव्रतश्रुततपोऽध्ययनस्वधर्मव्याख्यारहोजपसमाधय आपवग्र्याḥ ।
प्रायः परं पुरुष ते त्वजितेन्द्रियाणां वार्ता भवन्त्युत न वात्र तु दाम्भिकानाम् ॥39॥
रुपे इमे सदसती तव वेदसृष्टे बीजांकुराविव न चान्यदरूपकस्य ।
युक्ताः समक्षमुभयत्र विचिन्वते त्वां योगेन विहिनमिव दारूषु नान्यतः स्यात् ॥40॥
त्वं वायुरग्निरवनिर्वियदम्बुमात्राः प्राणेन्द्रियाणि ह्रदयं चिदनुग्रहश्च ।
सर्वं त्वमेव सगुणो विगुणश्च भूमन् नान्यत् त्वदस्त्यपि मनोवचसा निरूक्तम् ॥41॥
नैते गुणा न गुणिनो महदादय ो ये सर्वे मनःप्रभृतयः सहदेवमत्र्या: ।
आधन्तवन्त उरुगाय विदन्ति हि त्वामेवं विमृश्य सुधियो विरमन्ति शब्दात् ॥42॥
तत् तेऽर्हत्तम नमः स्तुतिकर्मपूजा: कर्म स्मृतिश्चरणयो: श्रवणं कथायाम् ।
संसेवया त्वयि विनेति षडंगया किं भक्तिं जनः परमहंसगतौ लभेत ॥43॥
नारद उवाच
एतावद्वर्णितगुणो भक्त्या भक्तेन निर्गुणः ।
प्रह्लादं प्रणतं प्रीतो यतमन्युरभाषत ॥44॥
श्रीभगवानुवाच
प्रहलाद भद्र भद्रं ते प्रीतोऽहं तेऽसुरोत्तम ।
वरं वृणीष्वाभिमतं कामपूरोऽस्म्यहं नृणाम् ॥45॥
मामप्रीणत आयुष्मन् दर्शनं दुर्लभं हि मे ।
दृष्ट्वा मां न पुनर्जन्तुरात्मानं तप्तुमर्हति ॥46॥
प्रीणन्ति हि मां धीरा: सर्वभावेन साधवः ।
श्रेयस्कामा महाभागाः सर्वासामाशिषां पतिम् ॥47॥
एवं प्रलोभ्यमानोऽपि वरैर्लोकप्रलोभनैः ।
एकान्तित्वाद् भगवति नैच्छत् तानसुरोत्तमः ॥48॥
।। इति प्रहलादकृत नृसिंह स्तोत्र सम्पूर्णम् ।।
प्रहलादकृत नृसिंह स्तोत्र का हिंदी अनुवाद
प्रहलाद उवाच
1. ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि, सिद्ध पुरुष, जो केवल सात्त्विक भाव में लीन रहते हैं, वे भी अपने वाणी प्रवाह से प्रभु की स्तुति नहीं कर सके — तो मैं उस उग्र रूप वाले श्री हरि की कैसे स्तुति कर सकता हूँ?
2. मैं मानता हूँ कि धन, कुलीनता, सौंदर्य, तपस्या, विद्या, बल, यश आदि से भगवान की आराधना नहीं होती। भगवान ने तो हाथी के राजा (गजेन्द्र) की भक्ति से संतोष पाया।
3. जो ब्राह्मण ज्ञान और सभी गुणों से युक्त है, परन्तु भगवान के चरणों से विमुख है, वह किसी भी चांडाल से भी गया-गुजरा है। परन्तु जिसने मन, वाणी, कर्म और प्राण भगवान को समर्पित कर दिए, वह अपने पूरे कुल को पवित्र कर देता है।
4. भगवान स्वयं में पूर्ण हैं, किसी से मान-सम्मान की अपेक्षा नहीं करते। जो भी भक्त उन्हें मान देता है, वह वास्तव में स्वयं का ही आदर करता है — जैसे दर्पण में मुख देखना।
5. इसीलिए मैं अपनी योग्यता के अनुसार अपने सम्पूर्ण हृदय से प्रभु का गुणगान करता हूँ। भले ही मैं नीच जन्म का हूँ, परन्तु भगवान की महिमा गाने से मैं और सब पवित्र हो जाते हैं।
6. हे प्रभु! ब्रह्मा आदि सभी देवता और हम जैसे जीव — आपसे नहीं डरते, क्योंकि आप समस्त भूतों के कल्याण और सुख के लिए अवतार लेते हैं।
7. हे नृसिंहदेव! आपने जिस दैत्य का वध किया वह आपके क्रोध का पात्र था, और सज्जन लोग बिच्छू और साँप के वध से जैसे प्रसन्न होते हैं, वैसे ही वे प्रसन्न हैं। लोग आपके इस रूप को स्मरण करते हैं।
8. हे अजेय प्रभु! मुझे आपके अत्यंत भयावह रूप से डर नहीं लगता — जिसमें अग्नि जैसे नेत्र, तीव्र दाँत, रक्त से सना हुआ शरीर और सिंह जैसे कान हैं।
9. लेकिन मैं संसार के चक्र से डरता हूँ — यह दुखमय चक्र मुझे खा रहा है। मैं अपने कर्मों से बंधा हुआ हूँ। हे कृपालु नृसिंह! कब आप मुझे अपने चरणों की शरण देंगे?
10. इस संसार में जो प्रियता या वियोग होता है, उससे जो आग जलती है — वह केवल आपकी भक्ति से शांति पाती है। मुझे बताइए प्रभु, मैं आपकी सेवा कब कर पाऊँगा?
11. मैं वही प्रहलाद हूँ जो आपको सर्वाधिक प्रिय मानता है। आपकी कथाएँ मेरी आत्मा को प्रसन्न करती हैं। आप की चरणकमलों की सेवा से बड़े-बड़े संकट दूर हो जाते हैं।
12. हे नृसिंहदेव! बालक की रक्षा माता-पिता नहीं कर सकते, डूबते हुए को नाव नहीं बचा सकती। वही व्यक्ति बचता है जिस पर आपकी कृपा होती है।
13. ब्रह्मा से लेकर अन्य कोई भी जब, जैसे, जिस कारण से कर्म करता है — वह सब आपके स्वरूप से प्रेरित होता है।
14. जीव की माया शक्तिशाली है, वह अपने मन से कर्म के जाल में बंधता है, परंतु इस चक्र को कोई नहीं पार कर सकता — सिवाय आपके।
15. हे प्रभु! आप सदा आत्म-संयमी रहते हुए इस कालचक्र को नियंत्रित करते हैं, और अपने भक्तों को इससे निकालते हैं।
16. मैंने आपके अंशों को, जो ब्रह्मा आदि के रूप में प्रकट हुए हैं, देखा है — वे भी आपकी भृकुटी से नष्ट हो जाते हैं।
17. इसलिए मैं कोई भौतिक वर नहीं चाहता — न आयु, न संपत्ति, न इन्द्रियाँ। मैं बस आपकी सेवा चाहता हूँ।
18. सुख की लालसा मृगतृष्णा है। शरीर रोगों से भरा है। ज्ञानी लोग वासनाओं की अग्नि को शान्त करते हैं — जैसे मधु से अग्नि शान्त होती है।
19. मैं अधम कुल में जन्मा, तामसिक स्वभाव वाला — फिर भी आप की कृपा मेरे ऊपर हुई। यह कृपा न ब्रह्मा को मिली, न शिव को, न लक्ष्मी को।
20. आपकी कृपा सेवा से मिलती है — ऊँच-नीच नहीं देखती। जैसे वृक्ष की सेवा करने से फल प्राप्त होता है।
21. जो व्यक्ति इच्छाओं के कारण संसार के गड्ढे में गिरता है, उसे आप सेवक बना लेते हैं — फिर मैं आपकी सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ?
22. आपने मेरी रक्षा की, पिता का वध किया — क्योंकि आपके भक्त की बात झूठ नहीं हो सकती। आपने यह कार्य इसलिए किया कि मेरा अनिष्ट न हो।
23. आप ही यह सम्पूर्ण सृष्टि हैं। आप ही रचते, पालन करते और संहार करते हैं। गुणों में रचकर स्वयं उनमें प्रवेश करते हैं।
24. आप ही सत्य और असत्य हैं। माया केवल भ्रम है। जन्म, मरण, रक्षा और दृष्टि — सब आप ही हैं।
25. इस सृष्टि को अपने में समेटकर आप जल के भीतर शेषनाग पर सो जाते हैं, और पूर्ण आत्म-सुख में लीन रहते हैं।
26. ब्रह्मा आपके नाभिकमल से उत्पन्न हुए, परन्तु वे आपको नहीं पहचान सके।
27. उन्होंने वर्षों तक जल में तप किया, फिर जाकर उन्होंने आपको पाया — जैसे बीज से अंकुर निकलता है।
28. तप करने के बाद, उन्होंने आपके सूक्ष्मतम रूप को आत्मा में देखा।
29. ब्रह्मा ने आपकी हजार मुखों वाली, अस्त्र-शस्त्रों से युक्त, दिव्य रूप को देखा — और वह प्रसन्न हुआ।
30. आपने हयग्रीव रूप में वेदों की रक्षा की और मधु-कैटभ नामक असुरों का वध किया। सत्वगुण आपकी प्रिय शक्ति है।
31. आप मत्स्य, कूर्म, वराह आदि अनेक रूपों में आते हैं और अधर्म का नाश करते हैं। कलियुग में आप छिपे रहते हैं।
32. हे प्रभु! मेरा चित्त आपकी कथाओं में नहीं लग रहा — क्योंकि वह वासनाओं में डूबा है। मैं दुख, हर्ष, भय से ग्रसित हूँ। मुझे आपकी प्राप्ति कैसे होगी?
33. मेरी इन्द्रियाँ अलग-अलग दिशाओं में भागती हैं — जैसे बहु-पत्नियाँ पति को खींचती हैं।
34. संसार में जनम-मरण का भय और द्वेष है — हे प्रभो! कृपा कर इस मूढ़ को पार लगा दो।
35. प्रभु! आपकी कृपा पाने के लिए हमें और क्या चाहिए? आप ही सबसे बड़े गुरु और रक्षक हैं।
36. मैं संसार से नहीं डरता, क्योंकि मैं आपकी कथाओं में मग्न रहता हूँ। लेकिन जो लोग आपसे विमुख हैं — उनके लिए मुझे दुख होता है।
37. अनेक ऋषि एकांत में मौन रहते हैं, लेकिन मैं आपकी सेवा करता हूँ — क्योंकि आपसे बढ़कर कोई शरण नहीं है।
38. गृहस्थ जीवन का सुख तुच्छ और दुखमय है। बुद्धिमान पुरुष वासनाओं को सहकर संयम रखता है।
39. मौन, व्रत, स्वाध्याय, ध्यान आदि महान साधन हैं — परंतु ये भी आपके बिना निष्फल हैं।
40. ये दृश्य और अदृश्य रूप भी आपके ही हैं, और किसी के नहीं। योग से जो समझे वही जानता है।
41. आप ही वायु, अग्नि, जल, आकाश, इन्द्रियाँ, हृदय और करुणा हैं। आप ही सगुण और निर्गुण ब्रह्म हैं।
42. महत्त्व के साथ जो गुण और इन्द्रियाँ हैं — वे सब आपके ही स्वरूप हैं। ज्ञानी लोग इस सत्य को जानकर वाणी से विरत हो जाते हैं।
43. हे प्रभो! आपके चरणों की सेवा, श्रवण, कीर्तन, पूजन ही भक्त को उच्च स्थिति तक पहुंचाते हैं।
नारद उवाच
44. इस प्रकार प्रह्लाद ने भक्ति से निर्गुण प्रभु की स्तुति की। तब प्रभु प्रीत होकर बोले —
भगवान बोले:
45. हे प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ। जो भी वर माँगना चाहो — माँग लो। मैं इच्छाओं को पूर्ण करने वाला हूँ।
46. मेरे दर्शन दुर्लभ हैं, जो मुझे देख लेता है, वह फिर संसार में नहीं भटकता।
47. साधु पुरुष मुझे अपने समस्त भावों से संतुष्ट करते हैं — क्योंकि वे कल्याण की कामना रखते हैं।
48. मैं अनेक भोगों के प्रस्ताव के बाद भी एकनिष्ठ प्रह्लाद ने उन्हें ठुकरा दिया — क्योंकि वह केवल भगवत्भक्ति का इच्छुक था।
लाभ (Benefits)
- दुश्मनों से सुरक्षा – शत्रु-विरोधी और राह-रूकावटों को दूर करने में सहायक; ये स्तोत्र अंधकारमय शक्तियों, तंत्र-प्रयोग तथा दुर्घटनाओं से रक्षा करता है।
- नकारात्मक ऊर्जा का निवारण – सेड़ी, दोष, पिशाच-प्रेत-बाधाओं और तंत्र-मंत्र के प्रभावों से राहत दिलाता है।
- शांति, स्वास्थ्य और समृद्धि – पारिवारिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति, व्यवसाय-ऑफिस जीवन तथा ऋण मुक्ति में लाभकारी ।
- न्याय में सफलता – शत्रु या प्रतिद्वंदियों द्वारा चल रहे मुकदमों में सहायक; कोर्ट और व्यापार-समस्याओं में विजय दिलाता है।
विधि (Method)
- शुद्धि और पूजा की तैयारी
प्रातः स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहनें, ईशान कोण या तटस्थ दिशा में भगवान नृसिंह की मूर्ति/चित्र स्थापित करें, धूप-दीप, पंचामृत, चंदन, जल-स्नान आदि करें। - मंत्र जाप शुरू करें
बीज-मंत्र जैसे: 1.ॐ श्रीं नरसिंहाय नमः 2. ॐ श्री लक्ष्मी नृसिंहाय नमः - कवच या मुख स्तुति
- समापन विधि
पाठ के अंत में प्रसाद चढ़ाएं—दही, मक्खन, सुपारी, मिश्री आदि, और मंत्रोच्चार समाप्त हो जाने के पश्चात जल छिड़कें या गंगा जल से शुद्धि करें ।
जप समय (Japa Timing)
- संध्याकाल (गोधूली बेला) — दिन और रात के मिलनकाल में जाप करने से तांत्रिक व आध्यात्मिक बाधाएं दूर होती हैं।
- शर्करा पूजा अवधियाँ — साप्ताहिक रूप से मंगलवार और शनिवार को जप को विशेष लाभदायी माना गया है ।
- जप संख्या – बीज मंत्र कम से कम 108 बार, और कवच/मुख स्तुति 33 या 54 बार 33 या 108 का महत्त्वपूर्ण रूप।
- 33 दिन तक सुबह–शाम दोहराना सर्वोत्तम ।