“पितृ स्तोत्र” एक अत्यंत पवित्र और प्रभावशाली स्तोत्र है, जो पितरों की स्तुति, स्मरण और तृप्ति के लिए रचा गया है। यह स्तोत्र उन दिव्य आत्माओं के सम्मान में गाया जाता है जिन्होंने इस धरती पर जन्म लिया और फिर शरीर त्याग कर पितृलोक को प्राप्त हुए। श्राद्ध, तर्पण और पितृ पक्ष जैसे अवसरों पर इस स्तोत्र का पाठ करने से पितरों की आत्मा प्रसन्न होती है और वे अपने वंशजों को आशीर्वाद देते हैं।
इस स्तोत्र का पाठ करने से:
- पितरों की अक्षय तृप्ति होती है,
- घर में शांति, समृद्धि और संतति की प्राप्ति होती है,
- चाहे श्राद्ध में किसी प्रकार की कमी रह जाए, यह स्तोत्र उसे संपूर्णता प्रदान करता है,
- यह पितृदोष के निवारण में अत्यंत सहायक है।
इस स्तोत्र में पितरों के विभिन्न प्रकार – जैसे अग्निष्वात्त, बर्हिषद, सोमप आदि – की स्तुति की गई है और यह बताया गया है कि वे देवताओं, ऋषियों, तपस्वियों, गृहस्थों और यहां तक कि नागों, असुरों व यक्षों द्वारा भी पूजित हैं।
मार्कण्डेय ऋषि द्वारा वर्णित यह स्तोत्र स्वयं पितरों द्वारा अनुमोदित है। वे कहते हैं कि जो भी मनुष्य भक्ति भाव से इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे आरोग्य, आयु, धन, संतान, सुख और मोक्ष जैसे फल अवश्य प्राप्त होते हैं।
यह स्तोत्र केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि आत्मिक श्रद्धा और पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का माध्यम है। यह हमें यह भी सिखाता है कि पितरों की पूजा केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि एक ईश्वरतुल्य कर्तव्य है।
पितृ स्तोत्र (रूचि मुनि कृत)
- नमस्येऽहं पितृन् श्राद्धे ये वसन्त्यधिदेवताः।
देवैरपि हि तर्प्यंते ये च श्राद्धैः स्वधोत्तरैः॥ - नमस्येऽहं पितृन् स्वर्गे ये तर्प्यन्ते महर्षिभिः।
श्राद्धेर्मनोमयैर्भक्त्या भुक्ति-मुक्तिमभीप्सुभिः॥ - नमस्येऽहं पितृन् स्वर्गे सिद्धाः संतर्पयन्ति यान्।
श्राद्धेषु दिव्यैः सकलै रूपहारैरनुत्तमैः॥ - नमस्येऽहं पितृन्भक्त्या येऽर्च्यन्ते गुह्यकैरपि।
तन्मयत्वेन वांछिद्भिरृद्धिमात्यंतिकीं पराम्॥ - नमस्येऽहं पितृन् मर्त्यैरर्च्यन्ते भुवि ये सदा।
श्राद्धेषु श्रद्धयाभीष्ट लोक-प्राप्ति-प्रदायिनः॥ - नमस्येऽहं पितृन् विप्रैरर्च्यन्ते भुवि ये सदा।
वाञ्छिताभीष्ट-लाभाय प्राजापत्य-प्रदायिनः॥ - नमस्येऽहं पितृन् ये वै तर्प्यन्तेऽरण्यवासिभिः।
वन्यैः श्राद्धैर्यताहारैस्तपोनिर्धूतकिल्बिषैः॥ - नमस्येऽहं पितृन् विप्रैर्नैष्ठिकब्रह्मचारिभिः।
ये संयतात्मभिर्नित्यं संतर्प्यन्ते समाधिभिः॥ - नमस्येऽहं पितृन् श्राद्धै राजन्यास्तर्पयंति यान्।
कव्यैरशेषैर्विधिवल्लोकत्रयफलप्रदान्॥ - नमस्येऽहं पितृन् वैष्यैरर्च्यन्ते भुवि ये सदा।
स्वकर्माभिरतैर्नित्यं पुष्पधूपान्नवारिभिः॥ - नमस्येऽहं पितृन् श्राद्धैर्ये शूद्रैरपि च भक्तितः।
संतृप्यन्ते जगत्यत्र नाम्ना ज्ञाताः सुकालिनः॥ - नमस्येऽहं पितृन् श्राद्धैः पाताले ये महासुरैः।
संतर्प्यन्ते स्वधाहारैस्त्यक्तदम्भमदैः सदा॥ - नमस्येऽहं पितृन् श्राद्धैरर्च्यन्ते ये रसातले।
भोगैरशेषैर्विधिवन्नागैः कामानभीप्सुभिः॥ - नमस्येऽहं पितृन् श्राद्धैः सर्पैः संतर्पितान् सदा।
तत्रैव विधिवन्मंत्रभोगसंपत्समन्वितैः॥ - पितृन्नमस्ये निवसन्ति साक्षाद्ये देवलोके च तथा महीतले।
सूरादिपूज्यास्ते मे प्रयच्छन्तु मयोपनीतम्॥ - पितृन्नमस्ये परमार्थभूता ये वै विमाने निवसंति मूर्त्ताः।
यजन्ति यानस्तमलैर्मनोभिर्यौगीश्वराः क्लेशविमुक्तिहेतून्॥ - पितृन्नमस्ये दिवि ये च मूर्त्ताः स्वधाभुजः काम्यफलाभिसंधौ।
प्रदानशक्ताः सकलेप्सितानां विमुक्तिदा येऽनभिसंहितेषु॥ - तृप्यंतु तेऽस्मिन् पितरः समस्ता इच्छावतां ये प्रदिशंति कामान्।
सुरत्वमिन्द्रत्वमितोऽधिकं वा सुतान् पशून् स्वानि बलं गृहाणि॥ - सोमस्य ये रष्मिषु येऽर्कबिम्बे शुक्ले विमाने च सदा वसन्ति।
तृप्यंतु तेऽस्मिन् पितरोऽन्नतोयैर्गन्धादिना पुष्टिमितो व्रजंतु॥ - येषां हुतेऽग्नौ हविषा च तृप्तिर्ये भुञ्जते विप्रशरीरसंस्था।
ये पिंडदानेन मुदं प्रयांति तृप्यन्तु तेऽस्मिन् पितरोऽन्नतोयैः॥ - ये खड्गमांसेन सुरैरभीष्टैः कृष्णैस्तिलैर्दिव्यमनोहरैश्च।
कालेनशाकेन महर्षिवर्यैः संप्रीणितास्ते मुदमत्र यान्तु॥ - कव्यान्यशेषाणि च यान्यभीष्टान्यतीव तेषां मम पूजितानाम्।
तेषां तु सान्निध्यमिहास्तु पुष्पगन्धाम्बुभोज्येषु मया कृतेषु॥ - दिनेदिने ये प्रतिगृह्णतेर्ष्यां मासान्तपूज्या भुवि येऽष्टकासु।
येवत्सरान्तेऽभ्युदये च पूज्याः प्रयान्तु ते मे पितरोऽत्र तुष्टिम्॥ - पूज्याद्विजानां कुमुदेन्दुबासो ये क्षत्रियाणां च नवार्कवर्णाः।
तथा विशां ये कनकावदाता नीलीप्रभाः शूद्रजनस्य ये च॥ - तेऽस्मिन् समस्ता मम पुष्पगन्धधूपाम्बुभोज्यादि निवेदनेन।
तथाग्निहोमेन च यांतु तृप्तिं सदा पितृभ्यः प्रणतोऽस्मि तेभ्यः॥ - ये देवपूर्वाण्यतितृप्तिहेतोरश्नंति कव्यानि शुभाहृतानि।
तृप्ताश्च ये भूतिसृजो भवन्ति तृप्यन्तु तेऽस्मिन् प्रणतोऽस्मि तेभ्यः॥ - रक्षांसि भूतान्यसुरांस्तथोग्रान्निर्णाशयन्तस्त्व शिवं प्रजानाम्।
आद्याः सुराणाममरेशपूज्यास्तृप्यन्तु तेऽस्मिन् प्रणतोऽस्मि तेभ्यः॥ - अग्निश्वात्ता बर्हिषदा आज्यपाः सोमपास्तथा।
व्रजन्तु तृप्तिं श्राद्धेऽस्मिन् पितरस्तर्पितामया॥ - अग्निष्वात्ताः पितृगणाः प्राचीं रक्षन्तु मे दिशम्।
तथा बर्हिषदः पान्तु याम्यां पितरः सदा॥ - प्रतीचीमाज्यपास्तद्वदुदीचीमपि सोमपाः।
रक्षोभूतपिशाचेभ्यस्तथैवासुरदोषतः॥ - सर्वतः पितरो रक्षां कुर्वन्तु मम नित्यशः।
विश्वो विश्वभुगाराध्यो धर्म्यो धन्यः शुभाननः॥ - भूतिदो भूतिकृद्भूतिः पितृणां ये गणा नव।
कल्याणः कल्पतः कर्ता कल्पः कल्पतराश्रयः॥ - कल्पताहेतुरनघः षडिमे ते गणाः स्मृताः।
वरो वरेण्यो वरदः पुष्टिदस्तुष्टिदस्तथा॥ - विश्वपाता तथा धाता सप्तैवैते गणाः स्मृताः।
महान् महात्मा महितो महिमावान्महाबलः॥ - गणाः पञ्च तथैवेते पितृणां पापनाशनाः।
सुखदो धनदश्चान्यो धर्मदोऽन्यश्च भूतिदः॥ - पितृणां कथ्यते चैतत्तथा गणचतुष्टयम्।
एकत्रिंशत्पितृगणा यैर्व्याप्तमखिलं जगत्॥ - ते मेऽनुतृप्तास्तुष्यंतु यच्छन्तु च सदा हितम्।
मार्कण्डेय उवाच एवं तु स्तुवतस्तस्य तेजसो राशिरुच्छ्रितः॥ - प्रादुर्बभुव सहसा गगनव्याप्तिकारकः।
तद्दृष्ट्वा सुमहत्तेजः समाच्छाद्य स्थितं जगत्॥ - जानुभ्यामवनीं गत्वा रुचिः स्तोत्रमिदं जगौ।
अमूर्त्तानां च मूर्त्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम्॥ - नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्।
इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा॥ - सप्तर्षीणां तथान्येषां तान्नमस्यामि कामदान्।
मन्वादीनां मुनीन्द्राणां सूर्यचन्द्रमसोस्तथा॥ - तान्नमस्याम्यहं सर्वान् पितरश्चार्णवेषु च।
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा॥ - द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलिः।
प्रजापतेः कश्यपाय सामाय वरुणाय च॥ - देवर्षीणां ग्रहाणां च सर्वलोकनमस्कृतान्।
योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृतांजलिः॥ - नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु।
स्वायम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे॥ - सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा।
नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम्॥ - अग्निरूपांस्तथैवान्यान्नमस्यामि पितृनहम्।
अग्निसोममयं विश्वं यत एतदशेषतः॥ - ये च तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्त्तयः।
जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः॥ - तेभ्योऽखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः।
नमोनमो नमस्तेऽस्तु प्रसीदन्तु स्वधाभुजः॥ - मार्कण्डेय उवाच एवं स्तुतास्ततस्तेन तेजसो मुनिसत्तमाः।
निश्चक्रमस्ते पितरो भासयन्तो दिशो दश॥ - निवेदनं च यत्तेन पुष्पगन्धानुलेपनम्।
तदभूषितानथ स तान् ददृशे पुरतः स्थितान्॥ - प्रणिपत्य रुचिर्भक्त्या पुरेव कृतांजलिः।
नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यमित्याह पृथगादृतः॥ - पितर ऊचुः स्तोत्रेणानेन च नरो यो मां स्तोष्यति भक्तितः।
तस्य तुष्टा वयं भोगानात्मज्ञानं तथोत्तमम्॥ - शरीरारोग्यमर्थं च पुत्रपौत्रादिकं तथा।
प्रदास्यामो न संदेहो यच्चान्यदभिवांछितम्॥ - तस्मात्पुण्यफलं लोके वांछिद्भिः सततं नरैः।
पितृणां चाक्षयां तृप्तिं स्तव्या स्तोत्रेण मानवैः॥ - वाञ्छद्भिः सततं स्तव्यां स्तोत्रेणानेन वै यतः।
श्राद्धे च य इमं भक्त्या अस्मत्प्रीतिकरं स्तवम्॥ - पठिष्यंति द्विजाग्र्याणां भुजंतां पुरतः स्थिताः।
स्तोत्रश्रवणसंप्रीत्या सन्निधाने परेकृते॥ - अस्माकं क्षयं श्राद्धं तद्भविष्यत्यसंशयम्।
यद्यप्यश्रोत्रियं श्राद्धं यद्यप्युपहतं भवेत्॥ - अन्यायोपात्तवित्तेन यदि वा कृतमन्यथा।
अश्राद्धार्हैरूपहृतैरूपहारैस्तथा कृतम्॥ - अकालेऽप्यथवाऽदेशे विधिहीनमथापि वा।
अश्रद्धया वा पुरूषैर्दंभमाश्रित्य वा कृतम्॥ - अस्माकं तृप्तये श्राद्धं तथाप्येतदुदीरणात्।
यत्रैतत्पठ्यते श्राद्धे स्तोत्रमस्मत्सुखावहम्॥ - श्रावणीयं महाभाग अस्माकं पुष्टिहेतुकम्।
इत्युक्त्वा पितरस्तस्य स्वर्गता मुनिसत्तम॥
।। श्रीमार्कण्डेयपुराणे रूचिमनुना कृतं रूचिस्तवं सप्तार्चिस्तवं च पितृस्तोत्रम् ।।
हिंदी अनुवाद
मैं उन पितरों को नमन करता हूँ जो श्राद्ध में देवताओं के साथ स्थित होकर तर्पण से संतुष्ट होते हैं।। 1 ।।
मैं उन स्वर्गस्थ पितरों को प्रणाम करता हूँ जिन्हें ऋषि भक्ति भाव से श्राद्ध में तृप्त करते हैं।। 2 ।।
मैं उन पितरों को प्रणाम करता हूँ जिन्हें सिद्धजन दिव्य रूपों और आभूषणों से श्राद्ध में तर्पण करते हैं।। 3 ।।
मैं उन पितरों को नमन करता हूँ जिनकी पूजा दिव्यगण भी करते हैं, जो महान ऐश्वर्य की इच्छा रखते हैं।। 4 ।।
मैं उन पितरों को नमन करता हूँ जिन्हें मनुष्यों द्वारा श्रद्धापूर्वक श्राद्ध में तर्पण किया जाता है।। 5 ।।
मैं उन पितरों को नमन करता हूँ जिनकी पूजा ब्राह्मण लोग प्रजापति की कृपा पाने के लिए करते हैं।। 6 ।।
मैं वनवासियों द्वारा तपस्या और संयम के साथ किए गए वन्यश्राद्ध से तृप्त होने वाले पितरों को नमन करता हूँ।। 7 ।।
मैं उन ब्रह्मचारी और संयमी विप्रों द्वारा श्राद्ध में पूजित पितरों को नमन करता हूँ।। 8 ।।
मैं उन पितरों को नमन करता हूँ जिन्हें क्षत्रिय लोग नियमपूर्वक कव्य अर्पण कर तृप्त करते हैं।। 9 ।।
मैं उन पितरों को नमन करता हूँ जिन्हें वैश्य लोग पुष्प, धूप, अन्न, जल से पूजते हैं।। 10 ।।
मैं उन पितरों को प्रणाम करता हूँ जिन्हें शूद्र भी भक्तिपूर्वक श्रद्धा से पूजते हैं।। 11 ।।
मैं पाताल में रहने वाले असुरों द्वारा तर्पित किए गए पितरों को प्रणाम करता हूँ।। 12 ।।
मैं उन पितरों को प्रणाम करता हूँ जिन्हें रसातल में नाग जाति द्वारा भोग से संतुष्ट किया जाता है।। 13 ।।
मैं उन पितरों को नमन करता हूँ जिन्हें सर्प जाति भी विधिपूर्वक तर्पण कर तृप्त करते हैं।। 14 ।।
जो पितर देवलोक, आकाश, और पृथ्वी में रहते हैं, वे मेरे इस समर्पण को स्वीकार करें।। 15 ।।
मैं उन दिव्य विमानों में रहने वाले पितरों को प्रणाम करता हूँ जो योगबल से स्वयं को पूजित करते हैं।। 16 ।।
मैं उन पितरों को प्रणाम करता हूँ जो स्वधाभुक होकर काम्यफल प्रदान करते हैं।। 17 ।।
वे सभी पितर तृप्त हों जो इच्छाओं को पूर्ण करते हैं – स्वर्ग, पुत्र, पशु, संपत्ति देने वाले।। 18 ।।
जो पितर सोम, सूर्य, और विमानों में स्थित हैं, वे अन्न, जल और सुगंध से तृप्त हों।। 19 ।।
वे पितर जो ब्राह्मण के माध्यम से भोजन करते हैं, वे इस तर्पण से तृप्त हों।। 20 ।।
जो पितर खड्गमांस, सुरा, तिल, और महर्षियों द्वारा तर्पित होते हैं, वे प्रसन्न हों।। 21 ।।
मेरे द्वारा की गई पूजा में पुष्प, गंध, अन्न के माध्यम से पितरों की उपस्थिति बनी रहे।। 22 ।।
जो पितर प्रतिदिन, मासांत, अष्टका, और वर्षांत में पूजित होते हैं, वे तृप्त हों।। 23 ।।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के अनुसार विविध वर्णों वाले पितर पूजित हों।। 24 ।।
वे सभी पितर इस पुष्प, गंध, धूप, अन्न और हवन से तृप्त हों।। 25 ।।
वे देवपितर जो शुभ हवन ग्रहण करते हैं, वे तृप्त हों और मुझे कृपा दें।। 26 ।।
जो पितर राक्षसों और असुरों का नाश करते हैं और प्रजा की रक्षा करते हैं, वे संतुष्ट हों।। 27 ।।
अग्निश्वात्त, बर्हिषद, आज्यप, सोमप – सभी पितर इस श्राद्ध में तृप्त हों।। 28 ।।
पूर्व दिशा की रक्षा अग्निश्वात्त पितर करें और दक्षिण दिशा की बर्हिषद पितर।। 29 ।।
पश्चिम की आज्यप पितर रक्षा करें और उत्तर दिशा की सोमप पितर।। 30 ।।
यमराज सर्वदिशाओं से मेरी रक्षा करें; वे धर्म के अधिष्ठाता और शुभ स्वरूप हैं।। 31 ।।
नौ पितृगण जो भूतिदायक हैं, वे सभी कल्याणप्रद बनें।। 32 ।।
ये सभी पितृगण वर, वरदाता, पुष्टि और संतोष देने वाले माने जाते हैं।। 33 ।।
ये सभी पितर महान, महात्मा, और अत्यंत शक्तिशाली हैं।। 34 ।।
पांच पितृगण – सुखदायक, धनदायक, धर्मदायक और भूतिदायक हैं।। 35 ।।
कुल मिलाकर चार गणों में 31 पितृगण हैं जिन्होंने सम्पूर्ण जगत को व्याप्त किया है।। 36 ।।
वे जो अब तक तृप्त नहीं हुए हैं, वे इस स्तोत्र के प्रभाव से तृप्त हो जाएँ।। 37 ।।
मैं तेजस्वी, ध्यानमग्न दिव्य दृष्टिवाले पितरों को सदा नमन करता हूँ।। 38 ।।
इन्द्र, दक्ष, मरीचि, सप्तर्षि, मनु, सूर्य और चन्द्र को भी मैं नमन करता हूँ।। 39 ।।
मैं सभी नक्षत्रों, ग्रहों, वायु, अग्नि और नभ में स्थित पितरों को प्रणाम करता हूँ।। 40 ।।
पृथ्वी, आकाश, कश्यप, वरुण और अन्य देवताओं को भी मैं नमन करता हूँ।। 41 ।।
सातों लोकों में स्थित योगेश्वर और गणों को भी नमन करता हूँ।। 42 ।।
ब्रह्मा, सोम और योग स्वरूपधारी पितरों को मैं नमन करता हूँ।। 43 ।।
मैं उन अग्निरूप और सोमरूप पितरों को नमन करता हूँ जो जगत के पालनकर्ता हैं।। 44 ।।
ये सभी पितर तेजस्वी, सोम, सूर्य और अग्निरूप में स्थित हैं।। 45 ।।
मैं इन ब्रह्मस्वरूप पितरों को नमन करता हूँ – वे स्वधा ग्रहण करते हैं और प्रसन्न हों।। 46 ।।
पितरों ने कहा – जो मनुष्य इस स्तोत्र का पाठ करेगा, उसे हम ज्ञान और भोग देंगे।। 47 ।।
हम उसे आरोग्य, धन, पुत्र-पौत्र और इच्छित फल देंगे – इसमें संदेह नहीं है।। 48 ।।
इसलिए जो भी मनुष्य पुण्यफल चाहता है, उसे पितरों की तृप्ति के लिए यह स्तोत्र पढ़ना चाहिए।। 49 ।।
जो श्राद्ध में इस स्तोत्र को भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं, वे पितरों को अत्यंत प्रिय होते हैं।। 50 ।।
ब्राह्मणों के भोजन से पूर्व यदि यह स्तोत्र श्रवण किया जाए, तो पितर तृप्त होते हैं।। 51 ।।
भले ही श्राद्ध अशुद्ध या अपूर्ण हो, यह स्तोत्र उसे पूर्ण करता है।। 52 ।।
यदि श्राद्ध अनुचित धन से या अधार्मिक विधि से किया गया हो तो भी यह स्तोत्र तृप्ति प्रदान करता है।। 53 ।।
विधिहीन, असमय या बिना श्रद्धा से किया गया श्राद्ध भी इस स्तोत्र से पूर्णता प्राप्त करता है।। 54 ।।
जहाँ यह स्तोत्र श्राद्ध में पढ़ा जाता है, वहाँ हमारे लिए तृप्ति होती है।। 55 ।।
यदि यह स्तोत्र शीतकाल में पढ़ा जाए तो यह 12 वर्षों तक पितरों को तृप्त करता है।। 56 ।।
वसंत में यह 16 वर्षों की तृप्ति प्रदान करता है।। 57 ।।
ग्रीष्म में भी यह श्राद्धकर्म को सफल बनाता है।। 58 ।।
वर्षा ऋतु में पढ़ा गया यह स्तोत्र पितरों को अक्षय तृप्ति देता है59
जिनके घर में यह स्तोत्र लिखा हुआ रहता है, वहाँ पितरों की उपस्थिति बनी रहती है।। 60 ।।
श्राद्ध में जब यह स्तोत्र पढ़ा जाए और ब्राह्मण भोजन कर रहे हों, तब यह पितरों को अत्यंत प्रिय होता है।\।। 62 ।।
पितरों ने कहा – यह स्तोत्र हमारे पुष्टिकर है, अतः इसे अवश्य पढ़ा जाए।। 62 ।।
पितृ स्तोत्र के लाभ (Benefits of Pitra Stotra):
- पितृ दोष से मुक्ति:
कुंडली में मौजूद पितृ दोष (Pitra Dosha) के प्रभाव को शांत करने में यह स्तोत्र अत्यंत उपयोगी है। - पितरों की आत्मा को तृप्ति:
जिन पितरों का विधिवत श्राद्ध नहीं हो पाया है या जिन्हें कोई अपेक्षा है, वे इस स्तोत्र के पाठ से तृप्त होते हैं। - संतान सुख में वृद्धि:
संतान प्राप्ति में विलंब या संतान से संबंधित कष्टों को दूर करता है। - कुल-परिवार में सुख-शांति:
पितरों के आशीर्वाद से घर में सुख, समृद्धि, आरोग्य और आपसी सौहार्द बना रहता है। - श्राद्ध में दोष शांति:
यदि श्राद्ध में त्रुटि हो जाए, जैसे – अश्राद्धार्ह को भोजन, अश्रद्धा से अर्पण, अयोग्य समय, बिना ब्राह्मण के आदि – तो भी यह स्तोत्र उस श्राद्ध को सफल बनाता है। - आध्यात्मिक उन्नति:
इस स्तोत्र के जप से आत्मा में श्रद्धा, सेवा भावना और पूर्वजों के प्रति आभार की भावना बढ़ती है।
विधि (Pitra Stotra Paath Vidhi):
- स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण करें – विशेषतः सफेद या हल्के पीले वस्त्र उपयुक्त होते हैं।
- पूर्व या दक्षिण दिशा की ओर मुख करके बैठें – दक्षिण दिशा पितरों की दिशा मानी जाती है।
- आसन पर बैठकर दीपक जलाएं, तिलक करें और जल से आचमन करें।
- अपने पितरों का नाम स्मरण करें और उनके लिए शुद्ध श्रद्धा भाव रखें।
- तांबे या पीतल की थाली में जल, तिल, पुष्प, धूप-दीप, नैवेद्य आदि रखें और पितरों को अर्पण भावना से स्तोत्र पाठ करें।
- पाठ समाप्ति के बाद “पितरों को प्रणाम” करें और यदि संभव हो तो पिंडदान, तर्पण या भोजन दान (ब्राह्मणों को) करें।
- भोजन या नैवेद्य कौवों, गायों या ज़रूरतमंदों को भी अर्पण करें।
जप का समय (Pitra Stotra Jaap Time):
- श्राद्ध पक्ष (पितृ पक्ष):
भाद्रपद पूर्णिमा से अश्विन अमावस्या (16 दिन) तक रोज़ पाठ अत्यंत पुण्यदायक होता है। - अमावस्या तिथि:
हर महीने की अमावस्या को इस स्तोत्र का पाठ करने से पितृ कृपा बनी रहती है। - पितरों की पुण्यतिथि / वार्षिक श्राद्ध:
विशेष रूप से उनके निर्वाण तिथि पर पाठ करना उत्तम है। - प्रातःकाल या संध्या काल (सुबह 6-9 बजे या शाम 4-6 बजे):
यह समय पवित्र माना जाता है और पितरों को समर्पित माना गया है। - समयाभाव में:
केवल एक बार पूरे स्तोत्र का श्रद्धा से पाठ भी फलदायक होता है।