परा पूजा स्तोत्र कथिततः श्री शंकराचार्य द्वारा रचित है और इसे “निर्गुण मानस पूजा” या “ब्रह्म-वित्तमय पूजा” कहा जाता है। इसमें बताया गया है कि कैसे हम परमात्मा की पूजा को बाह्य सामग्री से परे, दृष्टिबोध और कर्मभेद से मुक्त होकर करें — जहाँ हमारा मन, प्राणी और शरीर ईश्वर की पूजा का माध्यम बन जाता है।
परा पूजा स्तोत्र (Para Puja Stotra)
अखण्डे सच्चिदानन्दे निर्विकल्पैकरुपिणि ।
स्थितेऽद्वितीयभावेऽस्मिन्कथं पूजा विधीयते ।। 1 ।।
पूर्णस्यावाहनं कुत्र सर्वाधारस्य चासनम् ।
स्वच्छस्य पाद्यमर्घ्यं च शुद्धस्याचमनं कुत: ।। 2 ।।
निर्मलस्य कुत: स्नानं वस्त्रं विश्वोदरस्य च ।
अगोत्रस्य त्ववर्णस्य कुतस्तस्योपवीतकम् ।। 3 ।।
निर्लेपस्य कुतो गन्ध: पुष्पं निर्वासनस्य च ।
निर्विशेषस्य का भूषा कोऽलन्कारो निराकृते: ।। 4 ।।
निरञ्जनस्य किं धूपैर्दीपैर्वा सर्वसाक्षिण: ।
निजानन्दैकतृप्तस्य नैवेद्यं किं भवेदिह ।। 5 ।।
विश्वानन्दपितुस्तस्य किं ताम्बूलं प्रकल्प्यते ।
स्वयंप्रकाशचिद्रूपो योऽसावर्कादिभासक: ।। 6 ।।
प्रदक्षिणा ह्र्मानन्तस्य ह्र्माद्वयस्य कुतो नति: ।
वेदवाक्यैरवेदयस्य कुत: स्तोत्रं विधीयते ।। 7 ।।
स्वयंप्रकाशमानस्य कुतो नीराजनं विभो: ।
अंतर्बहिश्च पूर्णस्य कथमुद्वासनं भवेत् ।। 8 ।।
एवमेव परापूजा सर्वावस्थासु सर्वदा ।
एकबुद्धया तु देवेशे विधेया ब्रह्मवित्तमै: ।। 9 ।।
आत्मा त्वं गिरिजा मति: सहचरा: प्राणा: शरीरं गृहं
पूजा ते विविधोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थिति: ।
संचार: पद्यो: प्रदक्षिणविधि: स्तोत्राणि सर्वागिरो
यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ।। 10 ।।
।। इति परा पूजा स्तोत्र सम्पूर्णम् ।।
परा पूजा स्तोत्र — हिंदी अनुवाद सहित
1.
जो अखंड, सत्-चित्-आनंद स्वरूप, निर्विकल्प, और एकरस है,
जो अद्वितीय ब्रह्मस्वरूप में स्थित है — उसकी पूजा कैसे की जा सकती है?
2.
जो पूर्ण है, उसकी आवाहना कहाँ हो?
जो सबका आधार है, उसके लिए आसन कैसा?
जो स्वच्छ है, उसके चरणों को धोने (पाद्य), अर्घ्य या आचमन की क्या आवश्यकता?
3.
जो निर्मल है, उसे स्नान क्यों कराया जाए?
जो सम्पूर्ण विश्व को समाहित किए हुए है, उसे वस्त्र पहनाना कैसा?
जो जातिहीन और वर्णरहित है, उसके लिए यज्ञोपवीत की कल्पना कैसी?
4.
जो निर्लेप है, उसके लिए गंध कहाँ से आए?
जो किसी भी वासना से परे है, उसे पुष्प अर्पण क्यों?
जो निर्विशेष है, उसके लिए भूषण या अलंकार कैसे?
5.
जो निरंजन (निर्दोष) है, उसके लिए धूप या दीप की क्या उपयोगिता?
जो सर्वसाक्षी और स्वानंद में तृप्त है, उसके लिए नैवेद्य (भोजन) कैसा?
6.
जो सम्पूर्ण विश्व का आनंददाता है, उसे पान/तांबूल क्यों दें?
जो स्वयं प्रकाशित, चैतन्यमय है और सूर्य आदि को प्रकाशित करता है —
उसे बाह्य उपचारों की क्या आवश्यकता?
7.
जो अनंत है, उसकी प्रदक्षिणा कैसे की जाए?
जो अद्वैत है, उसके सामने सिर झुकाना कैसा?
जिसे वेदों से भी नहीं जाना जा सकता, उसके स्तोत्र कैसे रचे जाएं?
8.
जो स्वयंप्रकाश स्वरूप है, उस प्रभु के लिए आरती (नीराजन) कैसे करें?
जो भीतर और बाहर से पूर्ण है, उसे विदा (उद्वासन) कैसे किया जाए?
9.
इस प्रकार जो परमात्मा की पूजा है — वही “परा पूजा” कहलाती है।
यह हर अवस्था में, सदा, एकबुद्धि से, ज्ञानीजन ब्रह्मस्वरूप देवेश की आराधना के रूप में करते हैं।
10.
हे शिव! मेरा आत्मा ही आपका स्वरूप है, मेरी बुद्धि पार्वती है,
प्राण आपके सहचर हैं, यह शरीर ही आपका घर है।
मेरे सभी कर्म, भोग-विलास, निद्रा, समाधि और जीवन की गतिविधियाँ —
सब आपकी पूजा के ही रूप हैं।
पद-यात्रा आपकी प्रदक्षिणा है, और मेरे सारे बोल आपके स्तोत्र हैं।
जो कुछ मैं करता हूँ — वह सब आपका ही पूजन है।
।। इस प्रकार परा पूजा स्तोत्र समाप्त हुआ ।।
लाभ
- आत्म-साक्षात्कार — साधक अपने अंतर्मन में ईश्वर की अनुभूति प्राप्त करता है।
- आध्यात्मिक उन्नति — यह पाठ भक्त में मनोगत्यता घटाकर गहराई से केंद्रित ध्यान लाता है
- आंतरिक शांति — मानसिक उलझनों और बाह्य अभिलाषाओं से मुक्ति मिलती है
विधि (पाठ विधि)
- स्थापना: शांत वातावरण में बैठकर मन को शांत करें और संकल्प लें — “परापूजा कर रहा हूँ।”
- मनोनयन: बाह्य आवाहन, आसन, अर्पण आदि से परे — केवल हृदय में श्रद्धा और आत्म‑समर्पण हो।
- पाठ: श्लोकों को भावपूर्ण, स्मरणीय तरीके से उच्चारित करें।
- पूजा-चक्र: परंपरागत 16‑चरण पौजा जैसे– ध्यान, आसन, पाद्य, अर्घ्य, धूप‑दीप, नैवेद्य आदि को आध्यात्मिक रूप में आत्मपूजा के भाव से करें
- समापन: श्लोक 10 के अंत में यही भाव जताएँ कि “मेरे पूरा जीवन (क्रिया, पद, निद्रा आदि) आपका पूजन है।” — और अंत करें।
जप‑समय और पुनरावृत्ति
- सुबह का समय: सूर्योदय के तुरंत बाद, जब सत्त्वगुण का प्रभाव अधिक होता है।
- निर्धारित संख्या: अच्छी तरह से 7 बार पुनरावृत्ति उपयोगी होती है, पर मनोकामना अनुसार 11, 21 या 108 बार भी की जा सकती है।
- ध्यान अवकाश: हर जप के बाद थोड़ी देर मौन बैठकर ईश्वर‑भाव में लीन होना लाभदायक होता है।