“परमेश्वर स्तुतिसार स्तोत्र” उच्चतम ईश्वर की महिमा का स्तुतिगान है, जिसमें शिव और विष्णु—दोनों का उल्लेख होता है, लेकिन यह एक ऐसे परमेश्वर को समर्पित है जो किसी रूप या विशेषता से परे है। यह गीतात्मक रचना आमतौर पर स्तोत्र रत्नावली से ली गई है और अन्य स्तोत्र या कीर्तन के अंत में, या शुभ समारोहों की समाप्ति पर उच्चारित की जाती है ।
परमेश्वर स्तुतिसार स्तोत्र (Parmeshwar Stutisaar Stotra)
त्वमेक: शुद्धोऽसि त्वयि निगमबाह्य मलमयं प्रपंचं पश्यन्ति भ्रमपरवशा: पापनिरता: ।
बहिस्तेभ्य: कृत्वा स्वपदशरणं मानय विभो गजेन्द्रे दृष्टं ते शरणद वदान्यं स्वपददम् ।। 1 ।।
न सृष्टेस्ते हानिर्यदि हि कृपयातोऽवसि च मां त्वयानेके गुप्ता व्यसनमिति तेऽस्ति श्रुतिपथे ।
अतो मामुद्धर्तुं घटय मयि दृष्टिं सुविमलां न रिक्तां मे याच्ञां स्वजनरत कर्तुं भव हरे ।। 2 ।।
कदाहं भो स्वामिन्नियतमनसा त्वां ह्रदि भजन्नभद्रे संसारे ह्रानवरतदु:खेऽतिविरस: ।
लभेयं तां शान्तिं परममुनिभिर्या ह्राधिगता दयां कृत्वा मे त्वं वितर परशान्तिं भवहर ।। 3 ।।
विधाता चेद्विश्वं सृजति सृजतां मे शुभकृतिं विधुश्चेत्पाता मावतु जनिमृतेर्दु:खजलधे: ।
हर: संहर्ता संहरतु मम शोकं सजनकं यथाहं मुक्त: स्यां किमपि तु तथा ते विदधताम् ।। 4 ।।
अहं ब्रह्मानन्दस्त्वमपि च तदाख्य: सुविदित स्ततोऽहं भिन्नो नो कथमपि भवत्त: श्रुतिदृशा ।
तथा चेदानीं त्वं त्वयि मम विभेदस्य जननीं स्वमायां संवार्य प्रभव मम भेदं निरसितुम् ।। 5 ।।
कदाहं हे स्वामिञ्जनिमृतिमयं दुःखनिबिडं भवं हित्वा सत्येऽनवरतसुखे स्वात्मवपुषि ।
रमे तस्मिन्नित्यं निखिलमुनयो ब्रह्मरसिका रमन्ते यस्मिंस्ते कृतसकलकृत्या यतिवरा: ।। 6 ।।
पठ्न्त्येके शास्त्रं निगममपरे तत्परतया यजन्त्यन्ये त्वां वै ददति च पदार्थांस्तव हितान् ।
अहं तु स्वामिंस्ते शरणमगमं संसृतिभयाधथा ते प्रीति: स्याद्धितकर तथा त्वं कुरु विभो ।। 7 ।।
अहं ज्योतिर्नित्यो गगनमिव तृप्त: सुखमय: श्रुतौ सिद्धोऽद्वैत: कथमपि न भिन्नोऽस्मि विधुत: ।
इति ज्ञाते तत्वे भवति च पर: संसृतिलयादतस्तत्त्वज्ञानं मयि सुघटयेस्त्वं हि कृपया ।। 8 ।।
अनादौ संसारे जनिमृतिमये दुःखितमना मुमुक्षु: संकश्चिद्भजति हि गुरुं ज्ञानपरमम् ।
ततो ज्ञात्वा यं वै तुदति न पुन: क्लेशनिवहैर्भजेऽहं तं देवं भवति च परो यस्य भजनात् ।। 9 ।।
विवेको वैराग्यो न च शमदमाद्या: षडपरे मुमुक्षा मे नास्ति प्रभवति कथं ज्ञानममलम् ।
अत: संसाराब्धेस्तरणसरणिं मामुपदिशन् स्वबुद्धिं श्रौतीं मे वितर भगवंस्त्वं हि कृपया ।। 10 ।।
कदाहं भो स्वामिन्निगममतिवेधं शिवमयं चिदानन्दं नित्यं श्रुतिह्रतपरिच्छेदनिवहम् ।
त्वमर्थाभिन्नं त्वामभिरम इहात्मन्यविरतं मनीषामेवं मे सफलय वदान्य स्वकृपया ।। 11 ।।
यदर्थं सर्वं वै प्रियमसुधनादि प्रभवति स्वयं नान्यार्थो हि प्रिय इति च वेदे प्रविदितम् ।
स आत्मा सर्वेषां जनिमृतिमतां वेदगदितस्ततोऽहं तं वेधं सततममलं यामि शरणम् ।। 12 ।।
मया त्यक्तं सर्वं कथमपि भवेत्स्वात्मनि मतिस्त्वदीया माया मां प्रति तु विपरीतं कृतवती ।
ततोऽहं किं कुर्यां न हि मम मति: क्वापि चरति दयां कृत्वा नाथ स्वपदशरणं देहि शिवदम् ।। 13 ।।
नगा दैत्या: कीशा भवजलधिपारं हि गमितास्त्वया चान्ये स्वामिन्किमिति समयेऽस्मिञ्छयितवान् ।
न हेलां त्वं कुर्यास्त्वयि निहितसर्वे मयि विभो न हि त्वाहं हित्वा कमपि शरणं चान्यमगमम् ।। 14 ।।
अनन्ताधा विज्ञा न गुणजलधेस्तेऽन्तमगमन्नत: पारं यायात्तव गुणगणानां कथमयम् ।
गृणन्यावद्धि त्वां जनिमृतिहरं याति परमां गतिं योगिप्राप्यामिति मनसि बुद्ध्वाहमनवम् ।। 15 ।।
।। इति परमेश्वर स्तुतिसार स्तोत्र सम्पूर्णम् ।।
परमेश्वर स्तुतिसार स्तोत्र का हिंदी अनुवाद
हे प्रभु! आप ही एकमात्र शुद्ध हैं। आपके अतिरिक्त जो कुछ भी दृश्य है वह माया और अज्ञान से युक्त है, जिसे भ्रम में पड़े हुए पापी लोग सत्य मानते हैं। कृपया उन सबसे भिन्न होकर मुझे अपने चरणों की शरण में लें, जैसे आपने गजेन्द्र को दिया था।
।। 1 ।।
यदि आप कृपा करके मेरी रक्षा करते हैं, तो सृष्टि में कोई हानि नहीं है। शास्त्रों में कहा गया है कि आपने पहले भी अनेक संकट में पड़े भक्तों की रक्षा की है। इसलिए मेरी प्रार्थना को व्यर्थ न करें और मुझ पर अपनी निर्मल दृष्टि डालें।
।। 2 ।।
हे प्रभु! कब ऐसा होगा कि मैं एकाग्रचित्त होकर आपके ध्यान में लग जाऊँ और इस दुःखपूर्ण संसार से ऊबकर आपको हृदय में भजूं? आपकी कृपा से मुझे वह परम शांति प्राप्त हो जो महान मुनियों को प्राप्त हुई है।
।। 3 ।।
यदि ब्रह्मा सृष्टिकर्ता हैं तो वे मेरे लिए शुभता की सृष्टि करें। यदि चंद्रमा पालनकर्ता हैं तो वे मुझे जन्म और मृत्यु के दुःख से बचाएँ। यदि शिव संहारक हैं, तो वे मेरे शोक को समाप्त करें ताकि मैं मुक्त हो सकूँ।
।। 4 ।।
मैं ब्रह्मानंदस्वरूप आत्मा हूँ और आप भी वही हैं, फिर भी मुझमें और आप में भेद क्यों दिखता है? हे प्रभु! अपनी माया को रोककर मेरे भीतर के इस भेद को समाप्त करें।
।। 5 ।।
हे प्रभु! कब मैं जन्म-मरण रूपी दुखमय संसार को त्यागकर सत्य स्वरूप आत्मा में रमण करूंगा, जहाँ ब्रह्मरस में लीन महर्षि सदा रमते हैं और जिन्होंने सभी कर्मों को पूर्ण कर लिया है?
।। 6 ।।
कुछ लोग वेदों का अध्ययन करते हैं, कुछ यज्ञ करते हैं और कुछ आपको प्रिय वस्तुएँ अर्पित करते हैं। लेकिन हे प्रभु! मैं तो केवल भयभीत होकर आपकी शरण में आया हूँ। कृपया मुझ पर कृपा करें।
।। 7 ।।
मैं नित्य हूँ, ज्योतिर्मय हूँ, आकाश के समान तृप्त और सुखस्वरूप हूँ। शास्त्रों में बताया गया है कि मैं अद्वैत हूँ और आपसे भिन्न नहीं हूँ। कृपा करके मुझे तत्वज्ञान कराकर इस संसार से मुक्त करें।
।। 8 ।।
अनादि काल से जन्म और मृत्यु के चक्र में फँसा हुआ मनुष्य जब मुक्ति चाहता है, तब वह एक ज्ञानरूपी गुरु की शरण लेता है। उस गुरु से ज्ञान प्राप्त कर वह परमात्मा की भक्ति करता है और संसार से मुक्त हो जाता है।
।। 9 ।।
मुझमें न विवेक है, न वैराग्य है, न ही शम, दम आदि छह गुण हैं। और न ही मुझमें मुक्ति की तीव्र इच्छा है। तब शुद्ध ज्ञान कैसे होगा? हे प्रभु! संसार रूपी समुद्र से पार होने का मार्ग बताइए और अपनी कृपा से मुझे श्रुतियों का ज्ञान दीजिए।
।। 10 ।।
हे स्वामी! कब मैं वेदों से परे परम शिवस्वरूप चिदानंद नित्य तत्व का अनुभव करूंगा जो मन, वाणी, और शास्त्रों की पहुँच से परे है? आप कृपया अपनी कृपा से मेरी यह इच्छा पूर्ण करें।
।। 11 ।।
जिसके कारण धन, प्रिय वस्तुएँ आदि प्रिय लगती हैं, वह आत्मा स्वयं ही प्रिय है — ऐसा वेदों में कहा गया है। वह आत्मा ही सभी जन्म-मरण वाले प्राणियों का सार है। मैं उसी शुद्ध परमात्मा की शरण लेता हूँ।
।। 12 ।।
मैंने संसार की सभी चीजें त्याग दी हैं, फिर भी मेरी बुद्धि आत्मस्वरूप में नहीं टिकती। यह आपकी माया का प्रभाव है, जो मुझे विपरीत दिशा में ले जा रही है। कृपा करके मुझे अपने चरणों की शरण दें और शिवस्वरूप सुख प्रदान करें।
।। 13 ।।
हे प्रभु! आपने पर्वत, दैत्यों और वानरों को भी भवसागर से पार किया है। फिर मुझे क्यों छोड़ा है? कृपया मुझे भी छोड़िए मत। मैंने आपके अतिरिक्त किसी और की शरण नहीं ली है।
।। 14 ।।
आपके गुणों की कोई सीमा नहीं है, उन्हें कोई नहीं जान पाया। तब मैं कैसे जान सकता हूँ? लेकिन जो व्यक्ति जन्म और मृत्यु को हरने वाले आपके नाम का स्मरण करता है, वह परम गति को प्राप्त करता है।
।। 15 ।।
।। इस प्रकार परमेश्वर स्तुतिसार स्तोत्र समाप्त हुआ ।।
लाभ
स्रोतों के अनुसार, इस स्तुति से निम्न लाभ प्राप्त होते हैं :
- जीवन में सफलता और प्रगति
- बुरी शक्तियों (negative energies) से सुरक्षा
- नए अवसरों के द्वार खुलना
- आत्म-विकास एवं सकारात्मक व्यक्तित्व निर्माण
विधि (पाठ-विधि)
- समय: किसी भी शुभ समय—सुबह, शाम या पूजन के बाद पढ़ सकते हैं।
- पर्यावरण: शांत, स्वच्छ, आरती दीप या धूप जलाएं।
- उपकरण (वैकल्पिक): कुछ लोग लाल फूल, अक्षत या तुलसी अर्पित करते हैं।
- आदरणीय भाव: भक्ति, विश्वास और विनय की भावना से पढ़ें।
- समापन: “|| इति परमेश्वर स्तुतिसार स्तोत्र सम्पूर्णम् ||” कहकर अंत करें।
- संयोजन: शुभ कार्यों के प्रारंभ या अन्य स्तोत्र/कीर्तन के अंत में पढ़ना उत्तम माना जाता है
जप समय और पुनरावृत्ति
- दैनिक जप: 3, 7, 11 या 21 बार। अक्सर 7 बार का जप शुभ माना जाता है।
- विशेष अवसरों: संकटमोचन या मनोकामना पूर्ति हेतु 108 बार जप भी किया जा सकता है।
- विराम: जप के बाद थोड़ा मौन बैठकर ध्यान करना सहायता करता है।