नृसिंह स्तोत्र भगवान विष्णु के चौथे अवतार—नृसिंह (नर-सिंह)—का स्तुतिगान है, जिसमें उनके उग्र, रक्षक और दिव्य रूप का वर्णन अत्यंत प्रभावपूर्ण भाषा में किया गया है। नारसिंह अवतार Hiranyakashipu राक्षस का संहार कर धर्म की पुन: स्थापना हेतु प्रकट हुए थे, और यही कथा उनकी वीरता, क्रोध और भक्त-रक्षा के प्रतीक रूप प्रस्तुत करती है
नृसिंह स्तोत्र (Narsingh Stotra)
उदयरवि सहस्रद्योतितं रूक्षवीक्षं प्रळय जलधिनादं कल्पकृद्वह्नि वक्त्रम्।
सुरपतिरिपु वक्षश्छेद रक्तोक्षिताङ्गं प्रणतभयहरं तं नारसिंहं नमामि।।
प्रळयरवि कराळाकार रुक्चक्रवालं विरळय दुरुरोची रोचिताशांतराल।
प्रतिभयतम कोपात्त्युत्कटोच्चाट्टहासिन् दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 1।।
सरस रभसपादा पातभाराभिराव प्रचकितचल सप्तद्वन्द्व लोकस्तुतस्त्त्वम्।
रिपुरुधिर निषेकेणैव शोणाङ्घ्रिशालिन् दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 2।।
तव घनघनघोषो घोरमाघ्राय जङ्घा परिघ मलघु मूरु व्याजतेजो गिरिञ्च।
घनविघटतमागाद्दैत्य जङ्घालसङ्घो दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 3।।
कटकि कटकराजद्धाट्ट काग्र्यस्थलाभा प्रकट पट तटित्ते सत्कटिस्थातिपट्वी।
कटुक कटुक दुष्टाटोप दृष्टिप्रमुष्टौ दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 4।।
प्रखर नखर वज्रोत्खात रोक्षारिवक्षः शिखरि शिखर रक्त्यराक्तसंदोह देह।
सुवलिभ शुभ कुक्षे भद्र गंभीरनाभे दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 5।।
स्फुरयति तव साक्षात्सैव नक्षत्रमाला क्षपित दितिज वक्षो व्याप्तनक्षत्रमागर्म्।
अरिदरधर जान्वासक्त हस्तद्वयाहो दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 6।।
कटुविकट सटौघोद्घट्टनाद्भ्रष्टभूयो घनपटल विशालाकाश लब्धावकाशम्।
करपरिघ विमदर् प्रोद्यमं ध्यायतस्ते दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 7।।
हठलुठ दल घिष्टोत्कण्ठदष्टोष्ठ विद्युत् सटशठ कठिनोरः पीठभित्सुष्ठुनिष्ठाम्।
पठतिनुतव कण्ठाधिष्ठ घोरांत्रमाला दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 8।।
हृत बहुमिहि राभासह्यसंहाररंहो हुतवह बहुहेति ह्रेपिकानंत हेति।
अहित विहित मोहं संवहन् सैंहमास्यम् दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 9।।
गुरुगुरुगिरिराजत्कंदरांतगर्तेव दिनमणि मणिशृङ्गे वंतवह्निप्रदीप्ते।
दधदति कटुदंष्प्रे भीषणोज्जिह्व वक्त्रे दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 10।।
अधरित विबुधाब्धि ध्यानधैयर्ं विदीध्य द्विविध विबुधधी श्रद्धापितेंद्रारिनाशम्।
विदधदति कटाहोद्घट्टनेद्धाट्टहासं दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 11।।
त्रिभुवन तृणमात्र त्राण तृष्णंतु नेत्र त्रयमति लघिताचिर्विर्ष्ट पाविष्टपादम्।
नवतर रवि ताम्रं धारयन् रूक्षवीक्षं दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 12।।
भ्रमद भिभव भूभृद्भूरिभूभारसद्भिद् भिदनभिनव विदभ्रू विभ्र मादभ्र शुभ्र।
ऋभुभव भय भेत्तभार्सि भो भो विभाभिदर्ह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 13।।
श्रवण खचित चञ्चत्कुण्ड लोच्चण्डगण्ड भ्रुकुटि कटुललाट श्रेष्ठनासारुणोष्ठ।
वरद सुरद राजत्केसरोत्सारि तारे दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 14।।
प्रविकच कचराजद्रत्न कोटीरशालिन् गलगत गलदुस्रोदार रत्नाङ्गदाढ्य।
कनक कटक काञ्ची शिञ्जिनी मुद्रिकावन् दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 15।।
अरिदरमसि खेटौ बाणचापे गदां सन्मुसलमपि दधानः पाशवयार्ंकुशौ च।
करयुगल धृतान्त्रस्रग्विभिन्नारिवक्षो दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 16।।
चट चट चट दूरं मोहय भ्रामयारिन् कडि कडि कडि कायं ज्वारय स्फोटयस्व।
जहि जहि जहि वेगं शात्रवं सानुबंधं दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 17।।
विधिभव विबुधेश भ्रामकाग्नि स्फुलिङ्ग प्रसवि विकट दंष्प्रोज्जिह्ववक्त्र त्रिनेत्र।
कल कल कलकामं पाहिमां तेसुभक्तं दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 18।।
कुरु कुरु करुणां तां साङ्कुरां दैत्यपूते दिश दिश विशदांमे शाश्वतीं देवदृष्टिम्।
जय जय जय मुर्तेऽनार्त जेतव्य पक्षं दह दह नरसिंहासह्यवीर्याहितंमे।। 19।।
स्तुतिरिहमहितघ्नी सेवितानारसिंही तनुरिवपरिशांता मालिनी साऽभितोऽलम्।
तदखिल गुरुमाग्र्य श्रीधरूपालसद्भिः सुनिय मनय कृत्यैः सद्गुणैर्नित्ययुक्ताः।। 20।।
लिकुच तिलकसूनुः सद्धितार्थानुसारी नरहरि नुतिमेतां शत्रुसंहार हेतुम्।
अकृत सकल पापध्वंसिनीं यः पठेत्तां व्रजति नृहरिलोकं कामलोभाद्यसक्तः।। 21।।
।। इति नृसिंह स्तोत्र सम्पूर्णम् ।।
नृसिंह स्तोत्र – हिंदी अनुवाद
उदयता सूर्य जैसे तेज से प्रकाशित, जलप्रलय जैसी तबाही मचाए, अग्निवत् रूप,
देवों के स्वामी जो शत्रु पर प्रहार कर वक्ष-खण्डन करते हैं, रक्त से ओत-प्रोत शरीरवाले, भय समाप्त करने वाले — ऐसे नारसिंह को मैं प्रणाम करता हूँ।
(1)
प्रलयकालीन सूर्य का क्रूर रूप, चक्रों से युक्त भीषण मुख,
घोर तूफान और विकट रोशनी से अंश-अंश चीरने वाला—
शत्रुजन्य भय से प्रेरित होकर तपते हुए, नरसिंह के तेजस्वी वीर्य से मुझे दह दिया गया (या रक्षा मिली)।
(2)
आपकी आकृति से उत्पन्न ब्रह्माण्ड में भ्रम से ग्रस्त सब दिशाएँ थर्राईं,
शत्रु के रक्त से सना आपका पैर, दहक रहा तेज आपकी वीरता ने मुझे रक्षा का अनुभव कराया।
(3)
आपके ठोस गरज से पृथ्वी कम्पित हो गयी, पहाड़ चमकने लगे,
दैत्यसमूह के डर से जुड़ा हुआ—मेरे अंगों को दहकाते हुए, आपकी वीरता ने मुझे बचाया।
(4)
कटु, विकट क्रिया के नादों से, आकाश में गूँज पैदा हुई—
उन प्रतिबिंबों को देख आपकी ओर ध्यान लगा—आपने नरसिंह के भीषण वीर्य से मुझे रक्षा प्रदान की।
(5)
आपके तेजस्वी नखों और शरीर से प्रकाश फैलता है,
आपके क्रूर मुख, रक्तवर्ण चेहरे, तेज ललाट — आपकी वीरता ने मुझे बचाया।
(6)
आपके तेजस्वितापूर्ण तेजस्वी तेज से आकाश में तारे झपकने लगे,
आपके चपल हाथों की लहर ने मुझे बचाया — नरसिंह की वीरता से मुझे रक्षा मिली।
(7)
कटु क्रिया की गूँज और आकाश फैला—
आपको ध्यान लगाने से आपकी वीरता से मुझे रक्षा मिली।
(8)
जो कठिन कृपाण, कठोर वाणी और छःदंतों की ग्रंथि हैं —
उनकी भीषण छाप से नरसिंह की वीरता ने मुझे बचाया।
(9)
आपकी विचित्र वाणी और युद्धगालों के संहार से,
दुष्ट मनोभावों, मोह, भ्रांति से मुझे नरसिंह की वीरता ने बचाया।
(10)
“गुरु–गुरु” आदि अनुनाद में, आपका तेज,
क्रूर उग्र जिह्वा से मेरा वाणी-आधार सुरक्षित हुआ — नरसिंह की वीरता दी मुझे रक्षा।
(11)
मैंने ध्यानपूर्वक आपकी क्रूर वीरता, श्रद्धा और बुद्धि से भरा—
विभूतिभक्तों से विद्ध आत्मा जैसी, आपकी वीरता ने मुझे रक्षा दी।
(12–15)
(क्रमों में निरंतर ध्यान से):
आपके रूप, प्रकृति, त्रिनेत्र रूप, भयानक तेज—सबने मेरी सभी दिक्कतों, मोह, भय, रोग से रक्षा की।
आपकी भीषण शक्ति से सम्पूर्ण लोक विजय समाधान पाया।
(16–21)
“दह दह नरसिंह…” — यह रुद्र आह्वान शब्दों की श्रृंखला है जिसमें
हर शत्रु, राक्षस, दुष्ट प्राणी, चेतना के विकारों को दह दिया—
आपके वीर्य और कराल रूप से पूरी जगत रक्षा हुई।
(20)
जो भक्त इस सेवा से जुड़ा — गुरु-पूजा में—
उनका समर्पण, गुणों से युक्त सद्गुणों ने नरसिंह की सेवा से सुरक्षा पाई।
(21)
जो लुंजित-दोषों को ध्वस्त कर, अपने नृहरि (विष्णु) रूप के लिए
बस पाठ करता है—वह नरसिंह लोक में सुखी होता है, काम व लोभ से मुक्त होता है।
महत्व और प्रेरणा
- यह स्तोत्र भक्त को अत्यंत भय, शत्रु-दोश और नकारात्मक शक्तियों से रक्षित करता है ।
- यह उन्हें आत्मिक साहस, आत्मबल, और आंतरिक स्थिरता प्रदान करता है—जैसे महान योद्धा की तरह कठिनाइयों से लड़े ।
- “उग्रं वीरं महाविष्णुं… मृत्युर्-मृत्युं नमाम्यहम्” जैसा महामन्त्र इसका सार है—जिसमें नारसिंह को ‘भय-नाशक’ और ‘मोक्ष-दाता’ कहा गया है
पड़ने की विधि एवं लाभ
- पूजा-पाठ विधि: सुबह ब्रह्म मुहूर्त (4–6 AM) या संध्या समय में शांत वातावरण, दीप-माला के साथ जल-धूप अर्पित करके स्तोत्र का पाठ करें ।
- जप संख्या: आमतौर पर यह स्तोत्र 108 या 1008 बार जपा जाता है, जिससे आश्चर्यजनक सुरक्षा और आत्मबल प्राप्त होता है ।
- लाभ: पाठ करने से भय, प्रेत-प्रेतात्मा, शत्रु-दोष, काले जादू इत्यादि से रक्षा होती है; आत्मविश्वास, साहस, ग्रन्थ और शत्रु निवारण की क्षमताएँ भी जागृत होती हैं ।