“श्री नृसिंहगिरि अष्टोत्तर-शतनाम स्तोत्रम्” एक दिव्य स्तुति है जो आचार्य, गुरु और वेदांत के महान प्रचारक श्री नृसिंहगिरि महाराज के 108 गुणों (अष्टोत्तर-शतनाम) का महिमा गायन करती है। यह स्तोत्र उनके ब्रह्मस्वरूप, तपस्विता, ज्ञान, आचरण, त्याग, धार्मिकता, सेवा, विनम्रता और विश्वशांति में योगदान का भावपूर्ण चित्रण है।
इस स्तोत्र में उन्हें ब्रह्मज्ञानी, शिवभक्त, नारायण परायण, अद्वैत वेदांत के व्याख्याता, संन्यास धर्म के धारक, भक्तवत्सल, अहिंसक, मुक्तिदाता और धर्म प्रचारक के रूप में वर्णित किया गया है। साथ ही उनके आध्यात्मिक पदों, पीठों, परंपराओं और गुरुपरंपरा की महानता का भी उल्लेख मिलता है।
इस स्तोत्र का पाठ न केवल आध्यात्मिक लाभ प्रदान करता है, बल्कि शिष्य को अपने गुरु के प्रति श्रद्धा, समर्पण और सेवा की भावना से ओत-प्रोत करता है।
इसका नियमित जाप करने से पापों का नाश, मन की शुद्धि और गुरु कृपा की प्राप्ति होती है।
नृसिंहगिरि अष्टोत्तर-शतनाम स्तोत्रम् (Narsingh Giri Ashtottara-Shatanama Stotra)
ब्रह्मवर्ण समुद्भूतो ब्रह्ममार्गप्रवर्द्धकः ।
ब्रह्मज्ञानसदासक्तो व्रह्मज्ञानपरायणः ॥ १॥
शिवपञ्चाक्षररतोऽशिवज्ञानविनाशकः ।
शिवाभिषेकनिरतः शिवपूजापरायणः ॥ २॥
नारायणप्रवचनो नारायणपरायणः ।
नारायणप्रत्नतनुर्नारायणनयस्थितः ॥ ३॥
दक्षिणामूर्तिपीठस्थो दक्षिणामूर्तिदेवतः ।
श्रीमेधादक्षिणामूर्तिमन्त्रयन्त्रसदारतः ॥ ४॥
मण्डलेशवरप्रेष्ठो मण्डलेशवरप्रदः ।
मण्डलेशगुरुश्रेष्ठो मण्डलेशवरस्तुतः ॥ ५॥
निरञ्जनप्रपीठस्थो निरञ्जनविचारकः ।
निरञ्जनसदाचारो निरञ्जनतनुस्थितः ॥ ६॥
वेदविद्वेदहृदयो वेदपाठप्रवर्तकः।
वेदराद्धान्तसंविष्टोऽवेदपथप्रखण्डकः ॥ ७॥
शाङ्कराद्वैतव्याख्याता शाङ्कराद्वैतसंस्थितः ।
शाकराद्वैतविद्वेष्टृविनाशनपरायणः ॥ ८॥
अत्याश्रमाचाररतो भूतिधारणतत्परः ।
सिद्धासनसमासीनो काञ्चनाभो मनोहरः ॥ ९॥
अक्षमालाधृतग्रीवः काषायपरिवेष्टितः ।
ज्ञानमुद्रादक्षहस्तो वामहस्तकमण्डलुः ॥ १०॥
सन्न्यासाश्रमनिर्भाता परहंसधुरन्धरः ।
सन्न्यासिनयसंस्कर्ता परहंसप्रमाणकः ॥ ११॥
माधुर्यपूर्णचरितो मधुराकारविग्रहः ।
मधुवाङ्निग्रहरतो मधुविद्याप्रदायकः ॥ १२॥
मधुरालापचतुरो निग्रहानुग्रहक्षमः ।
आर्द्धरात्रध्यानरतस्त्रिपुण्ड्राङ्कितमस्तकः ॥ १३॥
आरण्यवार्तिकपरः पुष्पमालाविभूषितः ।
वेदान्तवार्तानिरतः प्रस्थानत्रयभूषणः ॥ १४॥
सानन्दज्ञानभाष्यादिग्रन्थग्रन्थिप्रभेदकः ।
दृष्टान्तानूक्तिकुशलो दृष्टान्तार्थनिरूपकः ॥ १५॥
वीकानेरगुरुर्वाग्मी वङ्गदेशप्रपूजितः ।
लाहौरसरगोदादौ हिन्दूधर्मप्रचारकः ॥ १६॥
गणेशजययात्रादिप्रतिष्ठापनतत्परः ।
गणेशशक्तिसूर्येशविष्णुभक्तिप्रचारकः ॥ १७॥
सर्ववर्णसमाम्नातलिङ्गपूजाप्रवर्द्धकः ।
गीतोत्सवसपर्यादिचित्रयज्ञप्रवर्तकः ॥ १८॥
लोकेश्वरानन्दप्रियो दयानन्दप्रसेवितः ।
आत्मानन्दगिरिज्ञानसतीर्थ्यपरिवेष्टितः ॥ १९॥
अनन्तश्रद्धापरमप्रकाशानन्दपूजितः ।
जूनापीठस्थरामेशवरानन्दगिरेर्गुरुः ॥ २०॥
माधवानन्दसंवेष्टा काशिकानन्ददेशिकः ।
वेदान्तमूर्तिराचार्यो शान्तो दान्तः प्रभुस्सुहृत् ॥ २१॥
निर्ममो विश्वतरणिः स्मितास्यो निर्मलो महान् ।
तत्त्वमस्यादिवाक्योत्थदिव्यज्ञानप्रदायकः ॥ २२॥
गिरीशानन्दसम्प्राप्तपरमहंसपरम्परा ।
जनार्दनगिरिब्रह्यसंन्यासाश्रमदीक्षितः ॥ २३॥
मण्डलेशकुलश्रेष्ठजयेन्द्रपुरीसंस्तुतः ।
रामानन्दगिरिस्थानस्थापितो मण्डलेश्वरः ॥ २४॥
शन्दमहेशानन्दाय स्वकीयपददायकः ।
यतीन्द्रकृष्णानन्दैश्च पूजितपादपद्मक्ः ॥ २५॥
उषोत्थानस्नानपूजाजपध्यानप्रचोदकः ।
तुरीयाश्रमसंविष्ठभाष्यपाठप्रवर्तकः ॥ २६॥
अष्टलक्ष्यीप्रदस्तृप्तः स्पर्शदीक्षाविधायकः ।
अहैतुककृपासिन्धुरनघोभक्तवत्सलः ॥ २७॥
विकारशून्यो दुर्धर्षः शिवसक्तो वरप्रदः ।
काशीवासप्रियो मुक्तो भक्तमुक्तिविधायकः ॥ २८॥
श्रीभत्परमहंसादिसमस्तबिरुदाङ्कितः ।
नृसिंहब्रह्म वेदान्तजगत्यद्य जगद्गुरुः ॥ २९॥
विलयं यान्ति पापानि गुरुनामानुकीर्तनात् ।
मुच्यते नात्र सन्देहः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः ॥ ३०॥
॥ इति श्रीनृसिंहगिरिमहामण्डलेश्वराष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् ॥
श्री नृसिंहगिरि अष्टोत्तर-शतनाम स्तोत्रम् का हिंदी अनुवाद
1. वे ब्रह्मस्वरूप हैं, जिन्होंने ब्रह्ममार्ग को बढ़ाया। वे ब्रह्मज्ञान में सदा रत रहते हैं और उसी को जीवन का लक्ष्य मानते हैं।
2. वे शिव पंचाक्षरी मंत्र के उपासक हैं, अशिव ज्ञान का नाश करने वाले हैं। वे शिवाभिषेक में लीन रहते हैं और शिवपूजन में निष्ठावान हैं।
3. वे नारायण के उपदेशक हैं, नारायण में समर्पित हैं। वे नारायण के स्वरूप हैं और उनके मार्ग पर स्थित हैं।
4. वे दक्षिणामूर्ति पीठ में विराजमान हैं, दक्षिणामूर्ति ही उनके इष्ट हैं। वे श्रीमद् दक्षिणामूर्ति मंत्र और यंत्र में सदा रत रहते हैं।
5. वे मण्डलेश्वर को प्रिय हैं, मण्डलेश्वर का पद देने वाले हैं। वे श्रेष्ठ गुरु हैं और मण्डलेश्वर द्वारा पूजित हैं।
6. वे निरंजन पीठ में स्थित हैं, निरंजन तत्व के विचारक हैं। उनका आचरण शुद्ध है और निरंजन स्वरूप में स्थित हैं।
7. वेदों के ज्ञाता हैं, जिनका हृदय वेदमय है। वे वेदपाठ को बढ़ावा देने वाले हैं और अवेदमार्ग का खंडन करते हैं।
8. वे शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत की व्याख्या करते हैं और उसमें स्थित हैं। वे अद्वैत का विरोध करने वालों का खंडन करते हैं।
9. वे चारों आश्रमों के धर्म का पालन करने वाले हैं, शरीर पर विभूति धारण करने में तत्पर हैं। वे सिद्धासन पर विराजमान हैं और स्वर्ण के समान तेजस्वी हैं।
10. उनके गले में रुद्राक्ष की माला है, वे गेरुए वस्त्र धारण करते हैं। उनका दायां हाथ ज्ञानमुद्रा में और बाएं हाथ में कमंडल है।
11. वे संन्यास आश्रम से प्रकट हुए हैं, परमहंस पद के धारक हैं। वे संन्यासी धर्म का पालन कराने वाले और परमहंस के प्रमाणस्वरूप हैं।
12. उनका चरित्र माधुर्यपूर्ण है और स्वरूप भी मधुर है। वे मधुर वाणी को संयमित करते हैं और मधुविद्या का उपदेश देते हैं।
13. वे मधुर भाषण में चतुर हैं और अनुशासन देने में समर्थ हैं। वे अर्धरात्रि में ध्यानरत रहते हैं और उनके मस्तक पर त्रिपुंड्र अंकित है।
14. वे वनवास से जुड़ी शिक्षा में लगे रहते हैं और पुष्पमाला से शोभायमान हैं। वे वेदान्त वार्ताओं में रत रहते हैं और प्रस्थानत्रयी के भूषण हैं।
15. वे सानंद, ज्ञान, भाष्य आदि ग्रंथों की जटिलताओं को सुलझाते हैं। वे दृष्टांतों की व्याख्या में निपुण हैं।
16. वे बीकानेर के गुरु हैं, और बंगाल देश में पूजित हैं। लाहौर, सरगोधा आदि क्षेत्रों में हिंदू धर्म के प्रचारक रहे हैं।
17. गणेश जय यात्रा और अन्य प्रतिष्ठा आयोजनों में तत्पर रहते हैं। गणेश, शक्ति, सूर्य और विष्णु भक्ति के प्रचारक हैं।
18. सभी वर्णों को साथ लेकर शिवलिंग पूजा का प्रचार करने वाले हैं। वे गीत, उत्सव, सेवा आदि से यज्ञों का आयोजन करते हैं।
19. वे लोकेश्वरानंद को प्रिय हैं और दयानंदजी की सेवा करते हैं। वे आत्मानंदगिरि व ज्ञानसतीर्थ्य से घिरे रहते हैं।
20. अनन्त श्रद्धा रखने वाले और प्रकाशानंद द्वारा पूजित हैं। वे रामेश्वरानंदगिरि के गुरु हैं और जूनापीठ में विराजमान हैं।
21. वे माधवानंदजी के संगी हैं, काशी के देशिक हैं। वे वेदांत की मूर्तिवान शिक्षा हैं, शांत, संयमी, प्रभु और हितैषी हैं।
22. वे ममता से रहित, विश्व के उद्धारक, हंसमुख और निर्मल हैं। “तत्त्वमसि” आदि महावाक्यों के दिव्य ज्ञान के प्रदाता हैं।
23. वे गिरीशानंद से प्राप्त परमहंस परंपरा के धारक हैं। जनार्दनगिरि से ब्रह्म संन्यास दीक्षा प्राप्त की है।
24. मण्डलेश कुल के श्रेष्ठ जयेन्द्रपुरी द्वारा प्रशंसित हैं। रामानंदगिरि के स्थान में स्थापित होकर मण्डलेश्वर बने।
25. शन्दमहेशानंद को अपना पद प्रदान किया। यतीन्द्रकृष्णानंद आदि के द्वारा उनके चरणों की पूजा होती है।
26. वे प्रातः स्नान, पूजा, जप, ध्यान आदि के प्रेरक हैं। वे तुरीय आश्रम में स्थित होकर भाष्य का पाठ कराते हैं।
27. वे अष्टलक्ष्य की प्राप्ति से संतुष्ट हैं, स्पर्श दीक्षा प्रदान करते हैं। वे अहेतुक कृपा के सागर हैं, निष्पाप और भक्तवत्सल हैं।
28. वे विकार रहित, अपराजेय, शिव में लगे और वरदाता हैं। वे काशी वास प्रिय हैं, स्वयं मुक्त हैं और भक्तों को मुक्ति देने वाले हैं।
29. वे परमहंस आदि उपाधियों से सुशोभित हैं। वे नृसिंह ब्रह्मस्वरूप वेदांत जगत में आज के जगद्गुरु हैं।
30. गुरु के नामों का कीर्तन करने से पापों का नाश होता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि श्रद्धा और भक्ति से युक्त होकर करने वाला मुक्त हो जाता है।
लाभ (Benefits)
- यह स्तोत्र भगवान नारसिंह की दिव्य उपस्थिति का आह्वान करता है, जिससे जीवन में सुरक्षा, साहस और आंतरिक शक्ति का अनुभव होता है।
- नियमित पाठ से नकारात्मक ऊर्जा, भय, बाधाएं दूर होती हैं और आसपास का शांतिपूर्ण वातावरण बनता है ।
- यह आध्यात्मिक परिवर्तन लाता है, जैसे कर्तव्यपरायणता, निष्ठा, और धर्मपरायणता की वृद्धि ।
पाठ विधि (Vidhi)
- पूजा या जाप की शुरुआत एक शुद्ध स्थान में दीप-धूप-चंदन से करें।
- 108 या 1008 बार इस स्तोत्र का जप करें, जो पारंपरिक तंत्र-संहिताओं में उल्लिखित विधि है ।
- जप करते समय भगवान नारसिंह की मन:पूर्वक स्मृति या प्रतिमा/चित्र देखें।
- अंतिम में गुरु-, मंत्र-, या नारसिंह-नाम का स्मरण कर आभार व्यक्त करें।
जप समय (Best Time for Japa)
- ब्रह्म मुहूर्त (सुबह 4–6 बजे): सबसे शुभ माना जाता है, क्योंकि इस समय वातावरण शांत होता है।
- यदि उपलब्ध न हो, तो संध्या समय (शाम 6–8 बजे) भी उत्तम है।