नीलसरस्वती स्तोत्र एक शक्तिशाली तांत्रिक स्तोत्र है, जो मां नीलसरस्वती को समर्पित है। नीलसरस्वती देवी, माँ तारा का ही एक उग्र रूप हैं, जिन्हें विशेष रूप से शत्रु नाश, ज्ञान की प्राप्ति, वाक्-सिद्धि (वाणी की शक्ति), विद्या, तंत्र सिद्धि और आत्मबल को जागृत करने के लिए पूजा जाता है। यह स्तोत्र विशेष रूप से तंत्र साधना और विद्या की प्राप्ति में उपयोगी माना गया है।
मां नीलसरस्वती का स्वरूप सौम्य न होकर उग्र है – वे शव पर विराजमान रहती हैं, उनके हाथों में खड्ग (तलवार), कपाल, त्रिनयन (तीन नेत्र), और मुण्डमाला होती है। यह रूप साधक को भयमुक्त करता है, उसके भीतर की तमसिक प्रवृत्तियों का विनाश करता है और उसे आध्यात्मिक दृष्टि देता है।
इस स्तोत्र का पाठ करने से तांत्रिक बाधाएं, शत्रु-दोष, भय, कष्ट और मानसिक क्लेश दूर होते हैं। साथ ही, यह साधक को अपूर्व बल, वाक्-शक्ति, विद्या और आत्मसिद्धि प्रदान करता है। विद्यार्थी, कलाकार, कवि, वक्ता और शोधकर्ता इस स्तोत्र के पाठ से विशेष रूप से लाभ प्राप्त करते हैं।
यह स्तोत्र नित्य, विशेषतः अष्टमी, नवमी या चतुर्दशी तिथि को ब्रह्ममुहूर्त में जप करने पर शीघ्र फल प्रदान करता है। नीलसरस्वती स्तोत्र, अपने तांत्रिक महत्व के कारण साधक को आत्मोत्थान और परम सिद्धि की ओर अग्रसर करता है।
नीलसरस्वती स्तोत्र (Neel Saraswati Stotra)
मातर्नीलसरस्वति प्रणमतां सौभाग्य-सम्पत्प्रदे,
प्रत्यालीढपदस्थिते शवहृदि स्मेराननाम्भोरुहे ।
फुल्लेन्दीवरलोचने त्रिनयने कत्रीं कपालोत्पले,
खड्गञ्चादधती त्वमेव शरणं त्वामीश्वरीमाश्रये ।। 1 ।।
वाचामीश्वरि भक्तकल्पलतिके सर्वार्थसिद्धिश्वरी,
गद्य-प्राकृत-पद्यजातरचनासर्वार्थ-सिद्धिप्रदे ।
नीलेन्दी-वर-लोचन-त्रय-युते कारुण्यवारांनिधे,
सौभाग्यमृतवर्धनेन कृपया सिञ्च त्वमस्मादृशम् ।। 2 ।।
खर्वे गर्वसमूहपूरिततनौ सर्पादिवेषोज्वले,
व्याघ्रत्वक्परिवीतसुन्दरकटिव्याधूतघण्टाकिंते ।
सद्यः कृतगलद्रजः परिमिलन्मुण्डद्वयी-मूर्धज,
ग्रन्थिश्रेणि-नृमुण्डदामललिते भीमे भयं नाशय ।। 3 ।।
मायानङ्गविकाररुपललना बिन्दूर्ध चन्द्राम्बिके,
हूं फट्कारमयि त्वमेव शरणं मन्त्रात्मिके मादृशः ।
मूर्तिस्ते जननि त्रिधामघटिता स्थूलातिसूक्ष्मा परा,
वेदानां नहि गोचरा कथमपि प्राज्ञैर्नुतामाश्रये ।। 4 ।।
त्वत्पादाम्बुजसेवया सुकृतिनो गच्छन्ति सायुज्यतां,
तस्याः श्रीपरमेश्वर-त्रिनयन-ब्रह्मादिसाम्यात्मनः ।
संसाराम्बुधिमज्जनेऽपटतनुर्देवेन्द्रमुख्यान् सुरान्,
मातर्स्त्वत्यसेवने हि विमुखान् किं मन्दधीः सेवते ।। 5 ।।
मातस्त्वत्पदपंकजद्वयरजो-मुद्रांककोटीरिण,
स्ते देवा जयसंकरे विजयिनो निःशंकमंके गताः ।
देवोऽहं भुवने न मे सम इति स्पर्धा वहन्तः परा,
स्तत्तुल्यान्नियतं यथाशु चिरवी नाशं व्रजन्ति स्वयम् ।। 6 ।।
त्वन्नाम-स्मरणात् पलायनपरा द्रष्टुञ्च शक्ता न ते,
भूतप्रेतपिशाचराक्षसगणा यक्षाश्च नागाधिपाः ।
दैत्यादानवेपुङ्गवाश्च खचरा व्याघ्रदिका जन्तवोः,
डाकिन्यः कुपितान्तकश्च मनुजो मातः क्षणं भूतले ।। 7 ।।
लक्ष्मीः सिद्धगणाश्च पादुकमुखाः सिद्धास्तथा वैरिणां,
स्तम्भशऽचापि वराङ्गने गजघटास्तम्भस्तथा मोहनम् ।
मातस्त्वत्पदसेवया खलु नृणां सिद्धयन्ति ते ते गुणाः,
क्लान्तः कान्तमनोभवस्य भवति क्षुद्रोऽपि वाचस्पतिः ।। 8 ।।
ताराष्टकमिदं पुण्यं भक्तिमान् यः पठेन्नरः ।
प्रातर्मध्याह्नकाले च सायाह्ने नियतः शुचिः ।। 9 ।।
लभते कवितां विद्यां सर्वशास्त्रार्थविद् भवेत् ।
लक्ष्मीमनश्वरां प्राप्य भुक्त्वा भोगान् यथेप्रितान् ।। 10 ।।
कीर्ति कान्तिश्च नैरुज्यं प्राप्यान्ते मोक्षमाप्नुयात् ।
श्रीतारायाः प्रसादेन सर्वत्र शुभमश्नुते ।। 11 ।।
।। इति नीलसरस्वती स्तोत्र सम्पूर्णम् ।।
नीलसरस्वती स्तोत्र – हिंदी अनुवाद
1.
हे माता नीलसरस्वती, जो सौभाग्य, सम्पत्ति और श्रेष्ठता प्रदान करती हो,
पतले अंगों वाली, सुंदर मुखमालिनियाँ (होंठों) के स्नेह से सज्जित,
मोती जैसे आँखों वाली, त्रिनयनी हो, और जो मस्तक पर कपालपोले धारण करती हो —
हे शरणागतों की शरण, कृपा करके मुझ पर आश्रय करो।
2.
हे भाषणशील देवी, भक्तों की कल्पलता, सर्वार्थ सिद्धि की अधिष्ठात्री,
गद्य-पद्य की रचना में समर्थ, सर्वोच्च सिद्धियों को देने वाली देवी,
नीली, सुन्दर नेत्रों वाली, करुणा की खान —
आप मेरी तरह के लोगों पर कृपा करके सौभाग्य और अमृत पूर्ण हो जाओ।
3.
जिसका शरीर गर्व-भरे बुजुर्ग के समान और सर्प-जैसी त्वचा वाली हो,
जिसके शरीर पर वाघ की खाल हो, कमर पर घण्टामाला हो, सिर दो मण्डलों में विभक्त हो —
स्तम्भों और मुण्डों से सुशोभित उस देवी, हे भीम-भयहरिणी, मुझ पर भय का नाश कर दो।
4.
हे मायामयी, विकृति-शरीरधारिणी, चन्द्रार्धवत् उद्गल-ललना देवी,
“हूं फट्” का संकल्प मंत्र बोलने वाली, तुम शरण हो, तुम ही मंत्र-मूर्त हो,
तुम्हारा रूप थलो और सूक्ष्म है, तुम्हें वेदों से ज्ञात नहीं हो सकता — बुद्धिमानों के आश्रय हो तुम।
5.
जिनके चरणों में सेवक भक्त वहाँ मिलन को जाते हैं,
उनका परमेश्वर, त्रिनयनी ब्रह्म रूप, उनके समान हो जाता है।
देवता जो समुद्र-तैरते हुए देवों को चमत्कृत करते हैं,
हे माता! आपकी सेवा से विमुख नहीं होते — सेवक को क्या दुर्बलता हो सकती है?
6.
तुम्हारे पदकमलों से निकली कुम्भ-मुद्रा, उन चरणों की माला में,
देवता जितने वीर, निर्विवाद रूप से विजय प्राप्त करते हैं,
वह विजय उसी समय स्थायी होती है जब वे तुम्हारी सेवा करते हैं।
जो तुम्हारे समान नहीं, जल्दी नष्ट हो जाते हैं।
7.
तुम्हारे नाम का स्मरण करने से सब भय दूर होता है —
भूत, प्रेत, पिशाच, राक्षस, यक्ष और नाग आदि प्राणी भी भाग जाते हैं।
दैत्य, राक्षस, मृग, व्याघ्र आदि जंतुओं और डाकिन्याओं के मुख भी — देवहीन जमिन पर — तुम्हारी दृष्टि से पल भर में मिट जाते हैं।
8.
लक्ष्मी, सिद्धगण, पादुकाओं के मुख और वैरी तक — वे सब खड़े हो जाते हैं, आकर्षित होकर।
जिसके चरणों की सेवा से मनुष्यों में सिद्धियाँ उत्पन्न होती हैं वो गुण हैं।
जो तन-मन अभागे हों — उन्हें भी वह प्रसन्नता हो जाती है!
9.
जो यह पुण्य आठ, चौदसवीं या नवमी तिथि को, या प्रतिदिन, प्रातः मध्याह्न और सायंकाल शुद्ध मन से पठेगा —
वह कवि, विद्वान बनेगा।
10.
लाभ-पूर्ति एवं विद्या-सिद्धि होगी — धनप्राप्ति, मोक्षप्राप्ति, विद्या-विज्ञान की प्राप्ति होगी।
11.
जो भक्तिपूर्वक सतत इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसके शत्रु नष्ट हो जाते हैं और महान बुद्धि उत्पन्न होती है।
12.
दुःख, संघर्ष, मूढ़ता, दान-काल, भय में — जो भी इसे पठता है, उसे शुभ सिद्धि होती है।
13.
स्तुति के पश्चात प्रणाम कर “योनि-मुद्रा” का संकेत करें।
॥ इति नीलसरस्वती स्तोत्रम् सम्पूर्णम्॥
पाठ विधि: प्रतिदिन 9 बार, या अष्टमी/नवमी/चतुर्दशी तिथियों में पठित करने पर अंदर की बुद्धि, स्वतंत्रता, धन-विद्या और शत्रुनाश की सिद्धि होती है।
- समय: यह मंत्र ब्रह्म मुहूर्त (सुबह 6–7 बजे) में या शुभ विशेष तिथियों जैसे बसंत पंचमी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी में पाठ करना लाभकर है।
- लाभ:
- शत्रुओं का नाश, केश, संघर्ष, अशुभ बाधाएं नष्ट होती हैं ।
- विद्या, बुद्धि, स्मृति, रचनात्मकता, भाषण, कवितात्मक क्षमता और कला में वृद्धि होती है — खासकर विद्यार्थियों के लिए ।
- धन-संपदा, ज्ञान, मोक्ष और सर्वसिद्धि की प्राप्ति होती है ।