द्वादश पञ्जरिका स्तोत्र एक अत्यंत प्रभावशाली वैराग्यपूर्ण भक्ति स्तोत्र है, जिसकी रचना आदि शंकराचार्य जी ने की थी। यह स्तोत्र शंकराचार्य जी द्वारा उन शिष्यों के लिए उपदेशस्वरूप रचा गया था जो सांसारिक माया, मोह, धन, पुत्र, यौवन और अहंकार में फंसे हुए थे। इस स्तोत्र का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को यह स्मरण कराना है कि यह संसार क्षणभंगुर है, और जो भी हम मानते हैं—धन, यश, परिवार, सुख—ये सब माया के अधीन हैं और एक क्षण में नष्ट हो सकते हैं। इसलिए, इस स्तोत्र में हमें गोविन्द (भगवान श्रीकृष्ण) की भक्ति करने, विवेक और वैराग्य धारण करने, आत्मज्ञान प्राप्त करने और अहंकार, क्रोध, लोभ, मोह जैसे दोषों का त्याग करने की प्रेरणा दी गई है।
शंकराचार्य जी बार-बार “भज गोविन्दं भज गोविन्दं” कहकर यह दर्शाते हैं कि संसार की भागदौड़ और विद्या भी व्यर्थ है यदि जीवन में ईश्वर का स्मरण और भक्ति नहीं है। इस स्तोत्र की प्रत्येक पंक्ति जीवन के यथार्थ को सरल, किंतु गंभीरता से प्रकट करती है, और यह बताती है कि आत्मा की मुक्ति केवल ज्ञान, भक्ति और साधना के मार्ग से ही संभव है।
यह स्तोत्र न केवल धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण है, बल्कि दार्शनिक और व्यवहारिक दृष्टि से भी अत्यंत मूल्यवान है। जीवन में जब हम दुखों, मोह-जाल, भ्रम या भय में फंसे होते हैं, तब यह स्तोत्र हमें आत्मदर्शन, विरक्ति और ईश्वर-स्मरण की ओर ले जाता है।
द्वादश पञ्जरिका स्तोत्र (हिंदी पाठ)
मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णां कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तं वित्तं तेन विनोदय चित्तम्॥ 1॥
भज गोविन्दं भज गोविन्दं गोविन्दं भज मूढ़मते॥ (ध्रुवपद)
अर्थमनर्थं भावय नित्यं नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम्।
पुत्रादपि धनभाजां भीतिः सर्वत्रैषा विहिता नीति:। भज॥ 2॥
का ते कांता कस्ते पुत्रः संसारोऽयमतीव विचित्रः।
कस्य त्वं कः कुत आयातस्तत्त्वं चिन्तय यदिदं भ्रातः। भज॥ 3॥
मा कुरु धनजनयौवनगर्वं हरति निमेषात्कालः सर्वम्।
मायामयमिदमखिलं हित्वा ब्रह्मपदं त्वं प्रविश विदित्वा। भज॥ 4॥
कामं क्रोधं लोभं मोहं त्यक्त्वात्मानं भावय कोऽहम्।
आत्मज्ञानविहीना मूढास्ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः। भज॥ 5॥
सुरमन्दिरतरुमूलनिवासः शय्या भूतलमजिनं वासः।
सर्वपरिग्रहभोगत्यागः कस्य सुखं न करोति विरागः। भज॥ 6॥
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ मा कुरु यत्नं विग्रहसंधौ।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम्। भज॥ 7॥
त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुर्यर्थं कुप्यसि सर्वसहिष्णुः।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं सर्वत्रोत्स्रज भेदाज्ञानम्। भज॥ 8॥
प्राणायामं प्रत्याहारं नित्यानित्यविवेकविचारम्।
जाप्यसमेतसमाधिविधानं कुर्ववधानं महदवधानम्। भज॥ 9॥
नलिनीदलगतसलिलं तरलं तद्वज्जीवितमतिशय चपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं लोकं शोकहतं च समस्तम्। भज॥ 10॥
का तेऽष्टादशदेशे चिंता वातुल तव किं नास्ति नियन्ता।
यस्त्वां हस्ते सुदृढ़निबद्धं बोधयति प्रभवादिविरुद्धम्। भज॥ 11॥
गुरुचरणाम्बुजनिर्भरभक्तः संसारादचिराद्भव मुक्तः।
सेंद्रियमानसनियमादेवं द्रक्ष्यसि निजह्रदयस्थं देवम्। भज॥ 12॥
द्वादशपंजरिकामय एषः शिष्याणां कथितो ह्रुपदेशः।
येषां चित्ते नैव विवेकस्ते पच्यन्ते नरकमनेकम्। भज॥ 13॥
॥ इति द्वादश पञ्जरिका स्तोत्र सम्पूर्णम् ॥
लाभ
- जीवन में आत्मिक शांति, संकटों से मुक्ति और धन-समृद्धि प्राप्त होती है।
- स्तोत्र का नियमित जप मानसिक शक्ति (mental strength) को बढ़ाता है और इच्छाओं की पूर्ति में सहायक है ।
- भावपूर्ण उपासना से ईश्वर के साथ आंतरिक संपर्क गहरा होता है एवं अलौकिक आशीर्वाद प्राप्त होता है ।
विधि (पाठ विधि)
- समय और अवसर:
- भोजन अर्पण से पूर्व श्रद्धापूर्वक इसकी पाठ करना अत्यंत शुभ माना जाता है।
- प्रातःकाल और/या संध्या समय (भोजन-पाठ समय से पहले), शांत वातावरण, स्वच्छ स्थान उपयुक्त हैं।
- आसन और मनोयोग:
- जितना संभव हो, सिद्धासन/पद्मासन का प्रयोग करें, लेकिन बिना आसन में अटके भी पाठ किया जा सकता है।
- उच्चारण स्पष्ट और मन एकाग्र रखें; ‘भज गोविन्दम्’ के ध्रुवपद (refrain) को विशेष श्रद्धा से दोहराएँ।
- संख्या और संकल्प:
- आप इसे एक वार, तीन या बारह श्लोकों का पाठ कर सकते हैं। भोजन अर्पण से पूर्व तीन बार पाठ करना प्रभावशाली रहता है।
जप समय
- भोजन से पहले (नैवेद्य अर्पण पूर्व): मुख्य समय माना जाता है।
- प्रातःकाल: दिन की शुरुआत में मन एकाग्र होता है — इसलिए यह भी श्रेष्ठ मना गया है।
- संध्याकाल: भोजन-पाठ के साथ यह समय भी उपयुक्त है, विशेषकर जब पाचन भी ठीक ढंग से हो रहा हो।