गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र वह दिव्य स्तुति है जो गजेन्द्र (हाथी का राजा) ने मगरमच्छ के चंगुल में फंसे हुए संकट की घड़ी में भगवान श्रीहरि विष्णु से की थी। गजेन्द्र अपने पूर्वजन्म के पुण्य संस्कारों और भगवद्भक्ति के बल से इस स्तोत्र का स्मरण करता है। इस स्तोत्र ने उसे न केवल संकट से उबारा बल्कि मोक्ष भी प्रदान किया।
अन्नपूर्णा गायत्री मन्त्र (Annapurna Gayatri Mantra)
गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्रं (Gajendra Moksha Stotram):
श्री शुक उवाच –
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि ।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ॥१॥
गजेन्द्र उवाच –
ऊं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम ।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥२॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं ।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ॥३॥
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम ।
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्म मूलोsवत् मां परात्परः ॥४॥
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो
लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु ।
तमस्तदाऽऽऽसीद गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु-
र्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम ।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम
विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः ।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतात्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा
न नाम रूपे गुणदोष एव वा ।
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः
स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ॥८॥
तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेsनन्तशक्तये ।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे ॥९॥
नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने ।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता ।
नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥११॥
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे ।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे ।
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ॥१३॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे ।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः ॥१४॥
नमो नमस्तेsखिल कारणाय
निष्कारणायाद्भुत कारणाय ।
सर्वागमान्मायमहार्णवाय
नमोपवर्गाय परायणाय ॥१५॥
गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय
तत्क्षोभविस्फूर्जित मानसाय ।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय ।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत-
प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-
र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय ।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥१८॥
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं
करोतु मेsदभ्रदयो विमोक्षणम् ॥१९॥
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ
वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः ।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं
गायन्त आनन्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-
मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम ।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूर-
मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः ।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥२२॥
यथार्चिषोsग्नेः सवितुर्गभस्तयो
निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिषः ।
तथा यतोsयं गुणसंप्रवाहो
बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥२३॥
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग
न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः ।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन
निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥
जिजीविषे नाहमिहामुया कि-
मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या ।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-
स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ॥२५॥
सोsहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम ।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोsस्मि परं पदम् ॥२६॥
योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते ।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोsस्म्यहम् ॥२७॥
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-
शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय ।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये
कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८॥
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम् ।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोsस्म्यहम् ॥२९॥
श्री शुकदेव उवाच –
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं
ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः ।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात
तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत् ॥३०॥
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः
स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि : ।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान –
श्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥३१॥
सोsन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो
दृष्ट्वा गरुत्मति हरिम् ख उपात्तचक्रम ।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा –
नारायणाखिलगुरो भगवन्नमस्ते ॥३२॥
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य
सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार ।
ग्राहाद् विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं
सम्पश्यतां हरिरमूमुच दुस्त्रियाणाम् ॥३३॥
– श्री गजेन्द्र कृत भगवान का स्तवन
सूर्य गायत्री मन्त्र (Surya Gayatri Mantra)
गजेन्द्र स्तुति का हिंदी अनुवाद:
श्री शुकदेव जी बोले —
ऐसे ही निश्चय करके और बुद्धिपूर्वक चित्त को हृदय में स्थिर करके गजेन्द्र ने पूर्वजन्म में सीखे हुए परम जपयोग्य मंत्र का जाप करना प्रारंभ किया। (1)
गजेन्द्र बोला —
उन परम पुरुष, आदि कारण, परमेश्वर और चिदानंदस्वरूप भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ। (2)
जिसमें यह सम्पूर्ण जगत स्थित है, जिससे यह उत्पन्न हुआ है, जिसके द्वारा यह संचालित हो रहा है, जो इसका कारण और स्वामी है — उस स्वयंभू भगवान की मैं शरण लेता हूँ। (3)
जो स्वमाया से ही कभी अपने को प्रकट करता है और कभी लुप्त हो जाता है, और जो अविद्या से रहित होने के कारण साक्षी रूप से सबको देखता है — वह परात्पर आत्मस्वरूप भगवान मेरी रक्षा करें। (4)
समय आने पर जब सारे लोक, पालक, कारण सब नष्ट हो जाते हैं, उस समय केवल घोर अंधकार रह जाता है — उस अंधकार के पार जो दिव्य विभु परमात्मा प्रकाशित होते हैं, वे ही मेरी रक्षा करें। (5)
जिस भगवान के चरणों तक देवता और ऋषि भी नहीं पहुँच पाते, तो फिर सामान्य प्राणी की क्या बात है? जैसे नट अपनी विभिन्न क्रियाओं से खेलता है, वैसे ही वे अपनी माया से सृष्टि करते हैं — वे ही भगवान मेरी रक्षा करें। (6)
जिनका पवित्र चरण प्राप्त करने की इच्छा से मोह-रहित मुनिजन, जो सच्चे संत हैं, वनों में अव्यवधान से विचरण करते हैं — वे परमात्मा ही मेरे लिए परम गन्तव्य हैं। (7)
जिनका जन्म, कर्म, नाम, रूप, गुण या दोष नहीं है — फिर भी जो अपनी माया से इन सबको सृष्टि के लिए प्रकट करते हैं — उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ। (8)
उन परमेश्वर को, जो ब्रह्म हैं, अनन्त शक्तियों के स्वामी हैं, जो निराकार होकर भी अनेक रूपों में प्रकट होते हैं, और जिनके कार्य आश्चर्यजनक हैं — मैं नमस्कार करता हूँ। (9)
स्वप्रकाश आत्मा, साक्षी और परमात्मा को, जो वाणी, मन और चित्त की पहुँच से परे हैं — उनको मेरा नमस्कार है। (10)
जो केवल सतोगुण के द्वारा ज्ञानी पुरुषों को प्राप्त होते हैं, निष्काम कर्म से जिनका साक्षात्कार संभव है, जो कैवल्य के स्वामी और मोक्षरूप सुख के प्रदाता हैं — उन्हें मैं प्रणाम करता हूँ। (11)
जो शांत, कभी-कभी घोर, अज्ञेय, और गुणों से युक्त हैं; जो निर्विशेष और समदर्शी हैं, तथा जो ज्ञानमय हैं — उन्हें मेरा नमस्कार है। (12)
जो क्षेत्रज्ञ (साक्षी) हैं, सर्वज्ञ, साक्षी रूप पुरुष हैं, आत्मा और प्रकृति के मूल हैं — उन्हें मैं प्रणाम करता हूँ। (13)
जो सब इन्द्रियों और उनके गुणों के दर्शक हैं, ज्ञान के कारण हैं, जो असत् के प्रतिबिंब के माध्यम से सत् के रूप में प्रकट होते हैं — उन्हें नमस्कार है। (14)
हे समस्त कारणों के कारण, अकारण, आश्चर्यजनक कारण वाले! हे समस्त वेदों और माया सागर के स्वामी! हे परम गति और परम लक्ष्य! आपको बारंबार नमस्कार है। (15)
जो गुणों से आवृत्त चेतना हैं, जिनके मन का स्पंदन गुणों के विकार से उत्पन्न होता है, जो कर्महीन हैं, और स्वप्रकाश हैं — उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। (16)
जो मुझ जैसे पशु-स्वरूप जीवों को बंधनों से मुक्त करते हैं, जो स्वयं मुक्त हैं, अत्यंत करुणामय हैं, तथा अपनी ही अंश से सब शरीरधारियों के चित्त में स्थित रहते हैं — ऐसे ब्रह्मस्वरूप प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ। (17)
जो आत्मा, पुत्र, गृह, धन और जनों में आसक्त लोगों को दुर्लभ हैं, जो गुण-संग से रहित हैं, तथा मुक्त आत्माओं के हृदय में ध्यान के योग्य हैं — ऐसे ज्ञानस्वरूप भगवान ईश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ। (18)
जिनकी प्राप्ति के लिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कामना वाले लोग भक्ति करते हैं, और जिन्हें प्राप्त कर अपनी इच्छित गति प्राप्त कर लेते हैं — वे भगवान मुझे मोक्ष दें। (19)
जो एकनिष्ठ भक्त किसी भौतिक वस्तु की इच्छा नहीं करते, जो भगवान को पूर्ण रूप से समर्पित होते हैं, और भगवान के अद्भुत, मंगलमय चरित्रों को गाते हुए आनंद में डूब जाते हैं — ऐसे भगवान को मैं प्रणाम करता हूँ। (20)
जो अक्षर ब्रह्म, परब्रह्म, परमेश्वर, अव्यक्त और आत्मयोग द्वारा प्राप्त होने योग्य हैं, जो इन्द्रियातीत, सूक्ष्म, अति दूर, अनन्त, आद्य और पूर्ण हैं — ऐसे भगवान की मैं स्तुति करता हूँ। (21)
जिनसे ब्रह्मा आदि देवता, वेद, लोक और चर-अचर सब उत्पन्न हुए हैं, और जो अपनी क्षीण छाया मात्र से सबको रचते हैं — उन्हें मैं प्रणाम करता हूँ। (22)
जैसे अग्नि की ज्वाला से अनेक किरणें निकलती और उसमें ही मिल जाती हैं, वैसे ही उन भगवान से गुणों की प्रवाह, बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और शरीर की रचना होती है। (23)
वे न देवता हैं, न असुर, न मनुष्य, न पशु, न स्त्री, न पुरुष, न नपुंसक, न कोई जंतु, न गुण, न कर्म, न सत्, न असत् — वे निषेध से परे सम्पूर्ण विजयी परब्रह्म हैं। (24)
मैं इस जन्म या अगले जन्म में कुछ नहीं चाहता। मैं चाहता हूँ कि जिनका कभी विनाश नहीं होता, उस आत्मा के लोक से आवरण रहित मोक्ष मुझे प्राप्त हो। (25)
मैं उस परम ब्रह्म, परमेश्वर, विश्व के स्रष्टा, विश्वरूप, विश्व के वेत्ता, विश्वात्मा, अजन्मा ब्रह्म और परम पद को नमस्कार करता हूँ। (26)
जो योगी हृदय में योग द्वारा अपने कर्मों को रोककर, योग के प्रभाव से जिनका साक्षात्कार करते हैं, उन योगेश्वर प्रभु को मैं प्रणाम करता हूँ। (27)
हे अदम्य गति वाले, तीन शक्तियों (इच्छा, क्रिया, ज्ञान) के धारक, समस्त बुद्धियों और गुणों के स्वामी, दीनों के रक्षक, इन्द्रियों की पहुँच से परे आप महान हैं — आपको बारंबार नमस्कार है। (28)
जो आत्मा अपने को नहीं जानता क्योंकि आपकी माया के प्रभाव से अहंकार में फंस जाता है — ऐसे महान भगवन् को मैं नमस्कार करता हूँ। (29)
श्री शुकदेव जी बोले —
जब गजेन्द्र ने ऐसे ही निर्विशेष ब्रह्मस्वरूप की स्तुति की, तब ब्रह्मा आदि देवता, जो विविध रूपों के अभिमानी हैं, उसकी स्तुति नहीं कर सके। तब समस्त देवताओं से युक्त भगवान हरि प्रकट हुए। (30)
भगवान ने गजेन्द्र की करुण पुकार सुनकर और देवताओं द्वारा स्तुति होते हुए, छन्दमय गरुड़ पर सवार होकर, चक्रधारी रूप में गजेन्द्र की ओर शीघ्र प्रस्थान किया। (31)
उधर, उस सरोवर में जब गजेन्द्र मगर से बुरी तरह पीड़ित हुआ, और उसने गरुड़ पर आरूढ़ चक्रधारी भगवान को देखा, तो उसने कमल की भांति हाथ उठाकर पुकारा — ‘‘नारायण! अखिलगुरु! भगवन्! आपको नमस्कार है।’’ (32)
भगवान विष्णु ने उस पीड़ित गजेन्द्र को देखकर तुरंत जल में प्रवेश किया और मगर से उसे छुड़ाया। फिर भगवान ने अपने चक्र से मगर को मारकर गजेन्द्र को मुक्त किया। (33)
तुलसी गायत्री मन्त्र (Tulsi Gayatri Mantra)
लाभ / महिमा
- आपदा से रक्षा: जीवन के संकटों और क्लेशों से मुक्ति दिलाता है।
- मोक्ष प्राप्ति का साधन: यह स्तोत्र मोक्षदायक माना गया है।
- भय, रोग, बाधा से मुक्ति: खासकर जब कोई भारी संकट या जान का खतरा हो।
- भक्ति और आत्मसमर्पण की शक्ति देता है।
- मानसिक शांति एवं ईश्वर में दृढ़ विश्वास प्रदान करता है।
सीता गायत्री मन्त्र (Sita Gayatri Mantra)
पाठ / जप की विधि (Vidhi)
- प्रातःकाल स्नान के बाद शुद्ध वस्त्र धारण करें।
- पूजा स्थल पर दीपक और अगरबत्ती जलाएं।
- श्रीहरि विष्णु का ध्यान करते हुए आसन पर बैठें।
- स्तोत्र का शुद्ध उच्चारण के साथ पाठ करें या उसका श्रवण करें।
- भगवान को कमल, तुलसीदल या सफेद पुष्प अर्पित करें।
- पाठ के अंत में भगवान से संकट निवारण एवं रक्षा की प्रार्थना करें।
राम गायत्री मन्त्र (Ram Gayatri Mantra)
जप / पाठ का उत्तम समय
- प्रातःकाल (ब्रह्म मुहूर्त): सर्वश्रेष्ठ
- संध्याकाल: भी शुभ है
- संकटकाल में किसी भी समय इसका पाठ किया जा सकता है।
राधा गायत्री मन्त्र (Radha Gayatri Mantra)
जप की संख्या
- सामान्य रूप से 1 बार प्रतिदिन पाठ करने से भी लाभ होता है।
- विशेष संकट में या संकल्पपूर्वक 11 बार, 21 बार या 108 बार पाठ किया जा सकता है।
- श्रद्धा और समय के अनुसार इसकी संख्या बढ़ाई जा सकती है।
कृष्ण गायत्री मन्त्र (Krishna Gayatri Mantra)
विशेष टिप्स
- यदि कंठस्थ न हो, तो धीरे-धीरे श्रवण कर पढ़ें या श्रीमद्भागवत से शुद्ध पाठ लें।
- जल में संकट हो (जैसे डूबने का डर) या यात्रा के समय इसका स्मरण विशेष फलदायक है।
- इसे श्रावण मास, गुरुवार, या एकादशी के दिन पढ़ना अत्यंत पुण्यकारी होता है।
धनवन्त्री गायत्री मन्त्र (Dhanvantri Gayatri Mantra)
ऐयप्पन गायत्री मन्त्र ( Gayatri Mantra)
शण्मुख गायत्री मन्त्र (Shanmukh Gayatri Mantra)
हनुमान गायत्री मन्त्र (Hanuman Gayatri Mantra)
गरुड़ गायत्री मन्त्र (Garuda Gayatri Mantra)