कौपीन पंचकम् (Kaupīna Pañchakam) एक लघु लेकिन अत्यंत प्रभावशाली संस्कृत कविता है, जिसकी रचना आदि शंकराचार्य द्वारा की गई है। यह स्तोत्र पाँच श्लोकों का एक संकलन है, जो सन्यासी जीवन के वैराग्य, आत्मज्ञान और ब्रह्मानंद में लीन होने की महिमा का वर्णन करता है। इसका केंद्रबिंदु है कौपीन — अर्थात लंगोट — जो संन्यासी के जीवन का प्रतीकात्मक वस्त्र माना जाता है।
यह स्तोत्र उन महात्माओं के जीवन को दर्शाता है जो भौतिक वस्तुओं का परित्याग कर केवल “कौपीन” में संतुष्ट रहते हैं। यहाँ कौपीन केवल वस्त्र नहीं बल्कि त्याग, तपस्या और आत्मबोध का प्रतीक है। आदि शंकराचार्य ने यह दर्शाने का प्रयास किया कि जो आत्मज्ञानी है, उसके लिए बाहरी सुख-साधन व्यर्थ हैं — उसका सच्चा भाग्य केवल कौपीन धारण कर आत्मानंद में लीन होना है।
कौपीन पंचकम (Kaupina Panchakam)
वेदान्तवाक्येषु सदा रमन्तो
भिक्षान्नमात्रेण च तुष्टिमन्तः ।
विशोकमन्तःकरणे चरन्तः
कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥
मूलं तरोः केवलमाश्रयन्तः
पाणिद्वयं भोक्तुममन्त्रयन्तः ।
कन्थामिव श्रीमपि कुत्सयन्तः
कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥
स्वानन्दभावे परितुष्टिमन्तः
सुशान्तसर्वेन्द्रियवृत्तिमन्तः ।
अहर्निशं ब्रह्मसुखे रमन्तः
कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥
देहादिभावं परिवर्तयन्तः
स्वात्मानमात्मन्यवलोकयन्तः ।
नान्तं न मध्यं न बहिः स्मरन्तः
कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥
ब्रह्माक्षरं पावनमुच्चरन्तो
ब्रह्माहमस्मीति विभावयन्तः ।
भिक्षाशिनो दिक्षु परिभ्रमन्तः
कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥
कौपीन पंचकम् का हिंदी अनुवाद (Hindi translation of Kaupina Panchakam)
1.
वेदान्तवाक्येषु सदा रमन्तो
भिक्षान्नमात्रेण च तुष्टिमन्तः।
विशोकमन्तःकरणे चरन्तः
कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः॥
अनुवाद:
जो सदा वेदान्त (उपनिषदों) के वचनों में रमण करते हैं,
केवल भिक्षा से प्राप्त अन्न में संतुष्ट रहते हैं,
जिनका अन्तःकरण (मन) शोक से रहित है –
ऐसे कौपीनधारी (सन्यासी) निःसंदेह भाग्यशाली हैं।
2.
मूलं तरोः केवलमाश्रयन्तः
पाणिद्वयं भोक्तुममन्त्रयन्तः।
कन्थामिव श्रीमपि कुत्सयन्तः
कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः॥
अनुवाद:
जो केवल वृक्ष की जड़ों को (आश्रय या भोजन हेतु) अपनाते हैं,
अपने दोनों हाथों से ही अन्न ग्रहण करते हैं (बर्तन नहीं रखते),
जो श्री (धन, वैभव) को चिथड़े वस्त्र जैसी तुच्छ समझते हैं –
ऐसे कौपीनधारी वास्तव में भाग्यशाली हैं।
3.
स्वानन्दभावे परितुष्टिमन्तः
सुशान्तसर्वेन्द्रियवृत्तिमन्तः।
अहर्निशं ब्रह्मसुखे रमन्तः
कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः॥
अनुवाद:
जो अपने आत्मानंद में संतुष्ट रहते हैं,
जिनकी सभी इंद्रियों की वृत्तियाँ शांत हैं,
जो दिन-रात ब्रह्मानंद (परमसुख) में लीन रहते हैं –
वे कौपीनधारी वास्तव में भाग्यशाली हैं।
4.
देहादिभावं परिवर्तयन्तः
स्वात्मानमात्मन्यवलोकयन्तः।
नान्तं न मध्यं न बहिः स्मरन्तः
कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः॥
अनुवाद:
जो शरीर और उससे संबंधित विचारों से ऊपर उठ चुके हैं,
जो अपने आत्मा को ही आत्मा में अनुभव करते हैं,
जो न किसी आदि (शुरुआत), न मध्य और न अंत को स्मरण करते हैं –
वे कौपीनधारी निःसंदेह भाग्यशाली हैं।
5.
ब्रह्माक्षरं पावनमुच्चरन्तो
ब्रह्माहमस्मीति विभावयन्तः।
भिक्षाशिनो दिक्षु परिभ्रमन्तः
कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः॥
अनुवाद:
जो पवित्र ब्रह्म अक्षर (ॐ आदि) का उच्चारण करते हैं,
और “मैं ब्रह्म हूँ” – ऐसा निरंतर विचार करते हैं,
जो दिशाओं में भिक्षा हेतु भ्रमण करते हैं –
ऐसे कौपीनधारी संन्यासी वास्तव में अत्यंत भाग्यशाली हैं।
लाभ (Benefits)
- वैराग्य की भावना जागृत करता है।
- आत्मज्ञान और ब्रह्मानंद की ओर प्रेरित करता है।
- मन, इन्द्रियाँ और इच्छाओं पर नियंत्रण में सहायक।
- भक्ति, ध्यान और संतोष को जीवन में स्थापित करता है।
- पाठ करने वाले में गहराई से त्याग और शांति का भाव आता है।
पाठ विधि (Chanting Method)
- स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- शांत और पवित्र स्थान पर आसन लगाकर बैठें।
- दीपक जलाकर श्री शंकराचार्य और वेदांत ग्रंथों को नमन करें।
- प्रत्येक श्लोक को श्रद्धा और ध्यान से पढ़ें या जपें।
- पाठ के बाद कुछ समय मौन ध्यान करें।
जप का समय और संख्या
- समय: प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में या सायंकाल शांति के समय।
- संख्या:
- नित्य पाठ: 1 बार (5 श्लोक)
- विशेष जप: 3, 11 या 21 बार इच्छानुसार
- ध्यानपूर्वक और शांतचित्त होकर करें।