“उज्ज्वल वेंकट नाथ स्तोत्रं” एक संस्कृत स्तोत्र है जो भगवान वेंकटेश्वर (श्री वेंकटनाथ, अर्थात तिरुपति बालाजी) को समर्पित है। यह स्तोत्र उनकी महिमा, सौंदर्य, शक्ति और कृपा का गुणगान करता है।
इस स्तोत्र का उद्देश्य है:
- भगवान वेंकटेश्वर की स्तुति करना
- उनके दिव्य रूप का ध्यान करना
- भक्त को शांति, समृद्धि और मोक्ष की ओर प्रेरित करना
उज्ज्वल वेंकट नाथ स्तोत्र | Ujjwala Venkata Natha Stotram
रङ्गे तुङ्गे कवेराचलजकनकनद्यन्तरङ्गे भुजङ्गे,
शेषे शेषे विचिन्वन् जगदवननयं भात्यशेषेऽपि दोषे ।
निद्रामुद्रां दधानो निखिलजनगुणध्यानसान्द्रामतन्द्रां,
चिन्तां यां तां वृषाद्रौ विरचयसि रमाकान्त कान्तां शुभान्ताम् ॥ १ ॥
तां चिन्तां रङ्गक्लृप्तां वृषगिरिशिखरे सार्थयन् रङ्गनाथ,
श्रीवत्सं वा विभूषां व्रणकिणमहिराट्सूरिक्लृप्तापराधम् ।
धृत्वा वात्सल्यमत्युज्ज्वलयितुमवने सत्क्रतौ बद्धदीक्षो,
बध्नन्स्वीयाङ्घ्रियूपे निखिलनरपशून् गौणरज्ज्वाऽसि यज्वा ॥ २ ॥
ज्वालारावप्रनष्टासुरनिवहमहाश्रीरथाङ्गाब्जहस्तं,
श्रीरङ्गे चिन्तितार्थान्निजजनविषये योक्तुकामं तदर्हान् ।
द्रष्टुं दृष्ट्या समन्ताज्जगति वृषगिरेस्तुङ्गशृङ्गाधिरूढं,
दुष्टादुष्टानवन्तं निरुपधिकृपया श्रीनिवासं भजेऽन्तः ॥ ३ ॥
अन्तः कान्तश्श्रियो नस्सकरुणविलसद्दृक्तरङ्गैरपाङ्गैः,
सिञ्चन्मुञ्चन्कृपाम्भःकणगणभरितान्प्रेमपूरानपारान् ।
रूपं चापादचूडं विशदमुपनयन् पङ्कजाक्षं समक्षं,
धत्तां हृत्तापशान्त्यै शिशिरमृदुलतानिर्जिताब्जे पदाब्जे ॥ ४ ॥
अब्जेन सदृशि सन्ततमिन्धे हृत्पुण्डरीककुण्डे यः ।
जडिमार्त आश्रयेऽद्भुतपावकमेतं निरिन्धनं ज्वलितम् ॥ ५ ॥
ज्वलितनानानागशृङ्गगमणिगणोदितसुपरभागक,
घननिभाभाभासुराङ्गक वृषगिरीश्वर वितर शं मम ।
सुजनतातातायिताखिलहितसुशीतलगुणगणालय,
विसृमरारारादुदित्वररिपुभयङ्करकरसुदर्शन ॥ ६ ॥
सकलपापापारभीकरघनरवाकरसुदर सादरम्,
अवतु मामामाघसम्भृतमगणनोचितगुण रमेश्वर ।
तव कृपा पापाटवीहतिदवहुताशनसमहिमा ध्रुवम्,
इतरथाथाथारमस्त्यघगणविमोचनमिह न किञ्चन ॥ ७ ॥
नगधराराराधने तव वृषगिरीश्वर य इह सादर-,
रचितनानानामकौसुमतरुलसन्निजवनविभागज- ।
सुमकृतां तां तां शुभस्रजमुपहरन् सुखमहिपतिर्गुरुः,
अतिरयायायासदायकभवभयानकशठरिपोः किल ॥ ८ ॥
निगमगा गा गायता यतिपरिबृढेन तु रचय पूरुष,
जितसभो भो भोगिराङ्गिरिपतिपदार्चनमिति नियोजितः ।
इह परं रंरम्यते स्म च तदुदितव्रणचुबुकभूषणे,
इह रमे मे मेघरोचिषि भवति हारिणि हृदयरङ्गग ॥ ९ ॥
गतभये ये ये पदे तव रुचियुता भुवि वृषगिरीश्वर,
विदधते ते ते पदार्चनमितरथा गतिविरहिता इति ।
मतिमता तातायिते त्वयि शरणतां हृदि कलयता परि-,
चरणया यायाऽऽयता तव फणिगणाधिपगुरुवरेण तु ॥ १० ॥
विरचितां तांतां वनावलिमुपगते त्वयि विहरति द्रुम-,
नहनगाङ्गां गामिव श्रियमरचयत्तव स गुरुरस्य च ।
तदनु तान्तां तां रमां परिजनगिरा द्रुतमवयतो निज-,
शिशुदशाशाशालिनीमपि वितरतो वर वितर शं मम ॥ ११ ॥
ममतया यायाऽऽविला मतिरुदयते मम सपदि तां हर,
करुणया याया शुभा मम वितर तामयि वृषगिरीश्वर ।
सदुदयायायासमृच्छसि न दरमप्यरिविदलनादिषु,
मदुदयायायासमीप्ससि न तु कथं मम रिपुजयाय च ॥ १२ ॥
मयि दयाया यासि केन तु न पदतां ननु निगद तन्मम,
मम विभो भो भोगिनायकशयन मे मतमरिजयं दिश ।
परम याया या दया तव निरवधिं मयि झटिति तामयि,
सुमहिमा मा माधव क्षतिमुपगमत्तव मम कृतेऽनघ ॥ १३ ॥
घटितपापापारदुर्भटपटलदुर्घटनिधनकारण,
रणधरारारात्पलायननिजनिदर्शितबहुबलायन ।
दरवरारारावनाशन मधुविनाशन मम मनोधन,
रिपुलयायायाहि पाहि न इदमरं मम कलय पावन ॥ १४ ॥
सुतरसासासारदृक्ततिरतिशुभा तव निपततान्मयि,
सहरमो मोमोत्तु सन्ततमयि भवान्मयि वृषगिरावपि ।
प्रतिदिनं नंनम्यते मम मन उपेक्षिततदपरं त्वयि,
तदरिपापापासनं कुरु वृषगिरीश्वर सततमुज्ज्वल ॥ १५ ॥
उज्ज्वलवेङ्कटनाथस्तोत्रं पठतां ध्रुवाऽरिविजयश्रीः ।
श्रीरङ्गोक्तं लसति यदमृतं सारज्ञहृदयसारङ्गे ॥ १६ ॥
॥ इति उज्ज्वलवेङ्कटनाथस्तोत्रं संपूर्णम् ॥
उज्ज्वल वेंकट नाथ स्तोत्रं हिंदी में (Ujjwala Venkat Nath Stotram in Hindi)
रङ्गे तुङ्गे कवेराचलजकनकनद्यन्तरङ्गे भुजङ्गे,
शेषे शेषे विचिन्वन् जगदवननयं भात्यशेषेऽपि दोषे ।
निद्रामुद्रां दधानो निखिलजनगुणध्यानसान्द्रामतन्द्रां,
चिन्तां यां तां वृषाद्रौ विरचयसि रमाकान्त कान्तां शुभान्ताम् || १||
अनुवाद: हे लक्ष्मीपति! तुम रंगमण्डप में, कावेरी के सोने-जैसे जल में, शेषनाग की शय्या पर, सभी दोषों से परे, समस्त संसार के पालन हेतु ध्यानमग्न, निद्रा मुद्रा में भी करुणामयी चिन्ता में लीन हो—ऐसी शुभ चिन्ता को वृषगिरि पर विराजमान होकर रचते हो।
तां चिन्तां रङ्गक्लृप्तां वृषगिरिशिखरे सार्थयन् रङ्गनाथ,
श्रीवत्सं वा विभूषां व्रणकिणमहिराट्सूरिक्लृप्तापराधम् ।
धृत्वा वात्सल्यमत्युज्ज्वलयितुमवने सत्क्रतौ बद्धदीक्षो,
बध्नन्स्वीयाङ्घ्रियूपे निखिलनरपशून् गौणरज्ज्वाऽसि यज्वा || २||
अनुवाद: हे रंगनाथ! तुम श्रीवस्त्र धारण कर, उस परमाराध्य चिन्ता को सार्थक करने हेतु व्रतबद्ध होकर, समस्त नर रूपी पशुओं को अपने चरण रूपी यूप में बाध कर—उन्हें प्रेमपूर्वक यज्ञ में समर्पित करने वाले यजमान के समान हो।
ज्वालारावप्रनष्टासुरनिवहमहाश्रीरथाङ्गाब्जहस्तं,
श्रीरङ्गे चिन्तितार्थान्निजजनविषये योक्तुकामं तदर्हान् ।
द्रष्टुं दृष्ट्या समन्ताज्जगति वृषगिरेस्तुङ्गशृङ्गाधिरूढं,
दुष्टादुष्टानवन्तं निरुपधिकृपया श्रीनिवासं भजेऽन्तः || ३||
अनुवाद: मैं अंतरात्मा से उस श्रीनिवास का स्मरण करता हूँ जो श्रीरंग में स्थित होकर रथ के चक्र के समान तेजस्वी करकमल से असुरों का नाश कर चुके हैं, जो वृषगिरि की ऊँची चोटी पर स्थित हैं और सभी को दया से अपनाकर उनके हित में चिन्तित रहते हैं।
अन्तः कान्तश्श्रियो नस्सकरुणविलसद्दृक्तरङ्गैरपाङ्गैः,
सिञ्चन्मुञ्चन्कृपाम्भःकणगणभरितान्प्रेमपूरानपारान् ।
रूपं चापादचूडं विशदमुपनयन् पङ्कजाक्षं समक्षं,
धत्तां हृत्तापशान्त्यै शिशिरमृदुलतानिर्जिताब्जे पदाब्जे || ४||
अनुवाद: हे कमलनयन! आपके दृष्टि-स्पर्श से करुणा की वर्षा होती है, जिससे प्रेम की अपार लहरें बहती हैं। आपके चरण कमल—जो मृदुता और शीतलता में कमल को भी मात देते हैं—हमें हृदय की पीड़ा से शांति प्रदान करें।
अब्जेन सदृशि सन्ततमिन्धे हृत्पुण्डरीककुण्डे यः ।
जडिमार्त आश्रयेऽद्भुतपावकमेतं निरिन्धनं ज्वलितम् || ५||
अनुवाद: जो हृदय रूपी कमल-कुंड में कमल के सदृश निरंतर प्रज्वलित रहते हैं—मैं उस निराकार, निरिन्धन (ईंधन रहित) अद्भुत तेजस्वी पावक रूप भगवान का आश्रय लेता हूँ, जो जड़ता रूपी अंधकार को दूर करता है।
ज्वलितनानानागशृङ्गगमणिगणोदितसुपरभागक,
घननिभाभाभासुराङ्गक वृषगिरीश्वर वितर शं मम ।
सुजनतातातायिताखिलहितसुशीतलगुणगणालय,
विसृमरारारादुदित्वररिपुभयङ्करकरसुदर्शन || ६||
अनुवाद: हे वृषगिरीश्वर! आप अपने अंगों की आभा से मेघ को भी मात देते हैं, आपके शत्रुहंता सुदर्शन चक्र से दुर्जनों में भय उत्पन्न होता है, और सज्जनों के लिए आप सुख और कल्याण के आश्रय हो। कृपया मुझे कल्याण प्रदान करें।
सकलपापापारभीकरघनरवाकरसुदर सादरम्,
अवतु मामामाघसम्भृतमगणनोचितगुण रमेश्वर ।
तव कृपा पापाटवीहतिदवहुताशनसमहिमा ध्रुवम्,
इतरथाथाथारमस्त्यघगणविमोचनमिह न किञ्चन || ७||
अनुवाद: हे रमेश्वर! आपकी कृपा पापों के जंगल को दावानल की भाँति जला देने वाली है। मेरे जैसे पापसमूह से घिरे व्यक्ति को आपकी कृपा ही बचा सकती है, अन्य कोई साधन यहाँ कारगर नहीं।
नगधराराराधने तव वृषगिरीश्वर य इह सादर-,
रचितनानानामकौसुमतरुलसन्निजवनविभागज ।
सुमकृतां तां तां शुभस्रजमुपहरन् सुखमहिपतिर्गुरुः,
अतिरयायायासदायकभवभयानकशठरिपोः किल || ८||
अनुवाद: हे वृषगिरीश्वर! जो भक्त अपने मनोवृक्ष के पुष्पों से सजीव माला बनाकर श्रद्धापूर्वक आपकी पूजा करते हैं, वे संसार रूपी कठिन यात्रा से पार हो जाते हैं और जन्म-मरण के भय से मुक्त हो जाते हैं।
निगमगा गा गायता यतिपरिबृढेन तु रचय पूरुष,
जितसभो भो भोगिराङ्गिरिपतिपदार्चनमिति नियोजितः ।
इह परं रंरम्यते स्म च तदुदितव्रणचुबुकभूषणे,
इह रमे मे मेघरोचिषि भवति हारिणि हृदयरङ्गग || ९||
अनुवाद: हे भगवान! जिनके व्रणयुक्त ठोड़ी पर भी सौंदर्य विद्यमान है, जिनकी मेघ के समान आभा मन को हरण कर लेती है, वे भक्तों के हृदय में रमण करते हैं। वे वेदज्ञ और यतियों द्वारा नित्य स्तुति के पात्र हैं, और उनके चरणों की सेवा ही पूर्ण पुरुषार्थ है।
गतभये ये ये पदे तव रुचियुता भुवि वृषगिरीश्वर,
विदधते ते ते पदार्चनमितरथा गतिविरहिता इति ।
मतिमता तातायिते त्वयि शरणतां हृदि कलयता परि-,
चरणया यायाऽऽयता तव फणिगणाधिपगुरुवरेण तु || १०||
अनुवाद: हे वृषगिरीश्वर! जो लोग आपके सुंदर चरणों की आराधना में लग जाते हैं, वे निःशंक होकर मोक्ष की ओर बढ़ते हैं। वेदज्ञ गुरु, जैसे शेषनाग, आपके चरणों के महत्व को समझते हुए शरणागति का उपदेश देते हैं।
विरचितां तांतां वनावलिमुपगते त्वयि विहरति द्रुम-,
नहनगाङ्गां गामिव श्रियमरचयत्तव स गुरुरस्य च ।
तदनु तान्तां तां रमां परिजनगिरा द्रुतमवयतो निज-,
शिशुदशाशाशालिनीमपि वितरतो वर वितर शं मम || ११||
अनुवाद: जब आप वन में विहार करने जाते हैं, तो गुरु ने आपको अर्पण करने हेतु वनमाला बनाई, जैसे किसी तीर्थ में गंगा को अर्पण करना। वही गुरु आपके लिए श्री (लक्ष्मी) का आवाहन भी करता है। हे प्रभो! उसी भावना से आप मेरी भी बालसुलभ प्रार्थना स्वीकार कर कल्याण प्रदान करें।
ममतया यायाऽऽविला मतिरुदयते मम सपदि तां हर,
करुणया याया शुभा मम वितर तामयि वृषगिरीश्वर ।
सदुदयायायासमृच्छसि न दरमप्यरिविदलनादिषु,
मदुदयायायासमीप्ससि न तु कथं मम रिपुजयाय च || १२||
अनुवाद: हे वृषगिरीश्वर! मेरे हृदय में ममता के कारण विक्षिप्त बुद्धि उत्पन्न हो रही है, कृपया उसे हर लें। अपनी शुभ करुणा से मुझे शुद्ध बुद्धि दें। आप सदा दुष्टों के विनाश में तत्पर रहते हैं, तो क्या मेरे भी आंतरिक शत्रुओं के नाश में आपकी कृपा नहीं हो सकती?
मयि दयाया यासि केन तु न पदतां ननु निगद तन्मम,
मम विभो भो भोगिनायकशयन मे मतमरिजयं दिश ।
परम याया या दया तव निरवधिं मयि झटिति तामयि,
सुमहिमा मा माधव क्षतिमुपगमत्तव मम कृतेऽनघ || १३||
अनुवाद: हे माधव! कृपया बताइए कि आप मुझ पर दया क्यों नहीं कर रहे? मैं आपकी शरण में हूँ। हे भोगिनायक (शेषनाग पर शयन करने वाले)! कृपा कर मेरी बुद्धि को मेरे शत्रुओं पर विजय पाने के योग्य बनाइए। आपकी असीम दया मेरी ओर शीघ्र प्रवाहित हो, यही मेरी विनती है।
घटितपापापारदुर्भटपटलदुर्घटनिधनकारण,
रणधरारारात्पलायननिजनिदर्शितबहुबलायन ।
दरवरारारावनाशन मधुविनाशन मम मनोधन,
रिपुलयायायाहि पाहि न इदमरं मम कलय पावन || १४||
अनुवाद: हे मधुहंता! आप उन समस्त पापों के संहारक हैं, जिनसे संसार पीड़ित है। आप युद्ध में शत्रुओं को पराजित कर उन्हें पलायन हेतु विवश करने वाले हैं। आप मेरे मन के धन हैं। कृपया मेरे सारे आंतरिक और बाह्य शत्रुओं का विनाश करें और मुझे पावन बना दें।
सुतरसासासारदृक्ततिरतिशुभा तव निपततान्मयि,
सहरमो मोमोत्तु सन्ततमयि भवान्मयि वृषगिरावपि ।
प्रतिदिनं नंनम्यते मम मन उपेक्षिततदपरं त्वयि,
तदरिपापापासनं कुरु वृषगिरीश्वर सततमुज्ज्वल || १५||
अनुवाद: हे वृषगिरीश्वर! आपकी शुभ दृष्टि निरंतर मुझ पर बनी रहे। मेरे हृदय में जो भी पाप और विकार हैं, उन्हें हर लें। आप मेरे मन में वास करें और उसे शुद्ध करें। कृपा कर मेरे मन को कभी भी उपेक्षित न करें, और उसमें दिव्यता का वास कराएँ।
उज्ज्वलवेङ्कटनाथस्तोत्रं पठतां ध्रुवाऽरिविजयश्रीः ।
श्रीरङ्गोक्तं लसति यदमृतं सारज्ञहृदयसारङ्गे || १६||
अनुवाद: जो भक्त उज्ज्वल वेंकटनाथ स्तोत्र का पाठ करते हैं, उन्हें निश्चित रूप से शत्रुजयी विजय प्राप्त होती है। यह स्तोत्र श्रीरंगनाथ द्वारा कहा गया अमृत के समान है, और ज्ञानी जनों के हृदय में गूंजता है।
॥ इति उज्ज्वल वेङ्कटनाथ स्तोत्रं संपूर्णम् ॥