यह स्तवराज (स्तुति) भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का गुणगान करने वाला एक दिव्य स्तोत्र है, जिसे इन्द्रदेव ने उनकी स्तुति में कहा था।
स्तवराज का संदर्भ और पौराणिक कथा
इस स्तोत्र का संबंध एक प्रसिद्ध घटना से जुड़ा है, जब इन्द्र ने श्रीकृष्ण का अपमान किया और गोवर्धन पर्वत की पूजा का विरोध किया। इस कारण श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी उंगली पर उठाकर इन्द्र के घमंड का नाश किया। बाद में, जब इन्द्र को अपनी भूल का एहसास हुआ, तो उन्होंने श्रीकृष्ण से क्षमा याचना की और यह स्तुति गाकर उनकी महिमा का वर्णन किया।
इस स्तोत्र में श्रीकृष्ण के विभिन्न युगों में अवतार, स्वरूप, उनकी लीलाएँ और गुणों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
इन्द्रकृत श्रीकृष्ण स्तोत्र (Indra krut ShriKrishna Stotra):
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरुपं सनातनम् ।
गुणातीतं निराकारं स्वेच्छामयमनन्तकम् ॥ १ ॥
भक्तध्यानाय सेवायै नानारुपधरं वरम् ।
शुक्लरक्तपीतश्यामं युगानुक्रमणेन च ॥ २ ॥
शुक्लतेजःस्वरुपं च सत्ये सत्यस्वरुपिणम् ।
त्रेतायां कुङ्कुमाकारं ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा ॥ ३ ॥
द्वापारे पीतवर्णं च शोभितं पीतवाससा ।
कृष्णवर्णं कलौ कृष्णं परिपूर्णतमं प्रभूम् ॥ ४ ॥
नवधाराधरोत्कृष्टश्यामसुन्दरविग्रहम् ।
नन्दैकनन्दनं वन्दे यशोदानन्दनं प्रभुम् ॥ ५ ॥
गोपिकाचेतनहरं राधाप्राणाधिकं परम् ।
विनोदमुरलीशब्दं कुर्वन्तं कौतुकेन च ॥ ६ ॥
रुपेणाप्रतिमेनैव रत्नभूषणभूषितम् ।
कन्दर्पकोटिसौनदर्यं बिभ्रन्तं शान्तमीश्र्वरम् ॥ ७ ॥
क्रीडन्तं राधया सार्धं वृन्दारण्ये च कुत्रचित् ।
कुत्रचिन्निर्जनेऽरण्ये राधावक्षःस्थलस्थितम् ॥ ८ ॥
जलक्रीडां प्रकुर्वन्तं राधया सह कुत्रचित् ।
राधिकाकबरीभारं कुर्वन्तं कुत्रचिद् वने ॥ ९ ॥
कुत्रचिद्राधिकापादे दत्तवन्तमलक्तकम् ।
राधाचर्वितताम्बूलं गृह्णन्तं कुत्रचिन्मुदा ॥ १० ॥
पश्यन्तं कुत्रचिद्राधां पश्यन्तीं वक्रचक्षुषा ।
दत्तवन्तं च राधायै कृत्वा मालां च कुत्रचित् ॥ ११ ॥
कुत्रचिद्राधया सार्धं गच्छन्तं रासमण्डलम् ।
राधादत्तां गले मालां धृतवन्तं च कुत्रचित् ॥ १२ ॥
सार्धं गोपालिकाभिश्र्च विहरन्तं च कुत्रचित् ।
राधां गृहीत्वा गच्छन्तं विहायतां च कुत्रचित् ॥ १३ ॥
विप्रपत्नीदत्तमन्नं भुक्तवन्तं च कुत्रचित् ।
भुक्तवन्तं तालफलं बालकैः सह कुत्रचित् ॥ १४ ॥
कालीयमूर्न्धिपादाब्जं दत्तवन्तं च कुत्रचित् ।
विनोदमुरलीशब्दं कुर्वन्तं कुत्रचिन्मुदा ॥ १५ ॥
गायन्तं रम्यसंगीतं कुत्रचिद् बालकैः सह ।
स्तुत्वा शक्रः स्तवेन्द्रेण प्रणनाम हरिं भिया ॥ १६ ॥
पुरा दत्तेन गुरुणा रणे वृत्रासुरेण च ।
कृष्णेन दत्तं कृपया ब्रह्मणे च तपस्यते ॥ १७ ॥
एकादशाक्षरो मन्त्रः कवचं सर्वलक्षणम् ।
दत्तमेतत् कुमाराय पुष्करे ब्रह्मणा पुरा ॥ १८ ॥
कुमारोऽङगिरसे दत्तो गुरवेऽङगिरसा मुने ।
इदमिन्द्रकृतं स्तोत्रं नित्यं भक्त्या च यः पठेत् ॥ १९ ॥
इह प्राप्य दृढां भक्तिमन्ते दास्यं लभेद् ध्रुवम् ।
जन्ममृत्युजराव्याधिशोकेभ्यो मुच्यते नरः ॥ २० ॥
न हि पश्यति स्वप्नेऽपि यमदूतं यमालयम् ॥ २१ ॥
॥ इति श्रीब्रह्मवैर्तपुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे इंद्रकृत श्रीकृष्ण स्तोत्रं संपूर्णं ॥
हिंदी अर्थ (Hindi Meaning):
इन्द्र ने कहा—
जो अविनाशी, परब्रह्मस्वरूप, ज्योतिर्मय, सनातन, गुणातीत, निराकार, स्वेच्छामय और अनन्त हैं, जो भक्तों की आराधना और ध्यान के लिए समय-समय पर विविध रूपों में प्रकट होते हैं; जिनका स्वरूप सत्ययुग में शुभ्र, त्रेतायुग में कुमकुम के समान रक्तिम, द्वापर में पीत आभायुक्त और कलियुग में श्याम वर्ण होता है; जो प्रत्येक युग में धर्म की स्थापना के लिए अवतरित होते हैं; जिनका श्रीविग्रह नूतन जलधर के समान श्याम एवं मोहक है— उन नंदनंदन, यशोदानंदन, भगवान गोविंद को मैं सादर नमन करता हूँ।
जो गोपियों के हृदयों को आकर्षित करने वाले और राधा के लिए प्राणों से भी प्रिय हैं, जो क्रीड़ा और विनोद में रमते हुए अपनी मुरली की मधुर ध्वनि बिखेरते हैं, जिनकी शोभा का कहीं भी कोई सानी नहीं, जो अनुपम रत्नों से सुशोभित हैं और जिनका सौंदर्य करोड़ों कामदेवों को भी तिरस्कृत कर देता है— उन शाश्वत, शांतस्वरूप, परमेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ।
जो वृंदावन में राधा संग विविध क्रीड़ाएँ करते हैं—कहीं जलक्रीड़ा में रत होते हैं, कहीं राधा के केशों को अपने कोमल करों से गूंथते हैं, कहीं प्रेमपूर्वक उनके चरणों में महावर लगाते हैं, कहीं उनके चबाए हुए ताम्बूल को सानंद ग्रहण करते हैं, कहीं बाँकी चितवन से उनकी ओर निहारते हैं, कहीं पुष्पमालाओं को अपने करकमलों से गूँथकर उन्हें अर्पित करते हैं, कहीं रासमंडल में प्रवेश करते हैं, तो कहीं सहसा सभी को मोहित कर अंतर्धान हो जाते हैं— ऐसे अनंत लीलाधारी कृष्ण को मैं नमन करता हूँ।
जो कहीं ब्राह्मण पत्नियों के दिए अन्न को ग्रहण करते हैं, कहीं बाल सखाओं संग ताड़का फल का स्वाद लेते हैं, कहीं ग्वालबालों के साथ गऊओं को पुकारते हैं, कहीं कालिय नाग के फण पर अपने चरणकमलों को अंकित कर देते हैं, कहीं मधुर गीत गाकर रसिक भाव में मुरली की तान छेड़ते हैं— उन सदा आनंदमय, मधुर संगीत के रसिक, श्रीकृष्ण को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ।
इन्द्र ने इस स्तवराज के द्वारा भगवान श्रीहरि की स्तुति कर भयभीत होकर उन्हें प्रणाम किया। पूर्वकाल में वृत्रासुर के संग युद्ध के समय गुरु बृहस्पति ने यह स्तोत्र इन्द्र को प्रदान किया था। सर्वप्रथम स्वयं श्रीकृष्ण ने तपस्वी ब्रह्मा को कृपा पूर्वक एकादशाक्षर मंत्र, पूर्ण लक्षणों से युक्त कवच और यह स्तोत्र दिया था। फिर ब्रह्मा ने इसे कुमार को, कुमार ने अङ्गिरा को और अङ्गिरा ने बृहस्पति को उपदेश रूप में प्रदान किया। जो भी श्रद्धालु इस स्तोत्र का नित्य पाठ करता है, उसे इस लोक में भगवान श्रीहरि की दृढ़ भक्ति प्राप्त होती है और अंततः वह उनके दास्य-भाव के परम सुख को प्राप्त कर लेता है। वह जन्म-मृत्यु, बुढ़ापे, रोग और शोक से मुक्त हो जाता है तथा स्वप्न में भी कभी यमदूतों अथवा यमलोक के दर्शन नहीं करता।