“इन्द्रकृत श्रीराम स्तोत्र” श्रीमदध्यात्मरामायण के युद्धकाण्ड के तेरहवें सर्ग में वर्णित एक अत्यंत प्रभावशाली स्तोत्र है। इसे स्वर्ग के राजा इन्द्र ने भगवान श्रीराम की स्तुति में रचा था। यह स्तोत्र भगवान राम की महिमा का वर्णन करता है और उनके दिव्य स्वरूप, शक्तियों, गुणों और करुणा का गुणगान करता है।
इन्द्र ने यह स्तोत्र क्यों गाया? (Why did Indra sing this hymn?)
जब रावण का वध हो गया और देवताओं को उसके अत्याचारों से मुक्ति मिली, तब देवराज इन्द्र भगवान श्रीराम के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए यह स्तोत्र गाते हैं। इन्द्र अपने अभिमान को त्यागकर स्वीकार करते हैं कि भगवान श्रीराम ही जगत के पालनहार और परम ब्रह्म हैं। इस स्तोत्र में वे श्रीराम की भक्ति, योग, तपस्या और शरणागत वत्सलता जैसे गुणों की विशेष रूप से स्तुति करते हैं।
इस स्तोत्र का फल (महिमा) (The fruit (glory) of this hymn)
इन्द्रकृत श्रीराम स्तोत्र का प्रतिदिन प्रातः या संध्या के समय श्रद्धापूर्वक पाठ करने से—
✔ भगवान श्रीराम की कृपा प्राप्त होती है।
✔ सुख, शांति, यश, अनुराग और कीर्ति की प्राप्ति होती है।
✔ जीवन के कष्टों का नाश होता है।
✔ श्रीराम के परम धाम में स्थान प्राप्त होता है।
इंद्रकृत श्रीराम स्तोत्र | Indrakrit Shri Ram Stotra Lyrics:
भजेऽहं सदा राममिन्दीवराभं भवारण्यदावानलभाभिधानम् ।
भवानीह्रदा भावितानन्दरूपं भवाभावहेतुं भवादिप्रपन्नम् ।।1।।
सुरानीकदुखौघनाशैकहेतुं नराकारदेहं निराकारमीडयम् ।
परेशं परानन्दरूपं वरेण्यं हरिं राममीशं भजे भारनाशम् ।।2।।
प्रपन्नाखिलानन्ददोहं प्रपन्नं प्रपन्नार्तिनि:शेषनाशाभिधानम् ।
तपोयोगयोगीशभावाभिभाव्यं कपीशादिमित्रं भजे राममित्रम् ।।3।।
सदा भोगभाजां सुदूरे विभान्तं सदा योगभाजामदूरे विभान्तम् ।
चिदानन्दकन्दं सदा राघवेशं विदेहात्मजानन्दरूपं प्रपधे ।।4।।
महायोगमायाविशेषानुयुक्तो विभासीश लीलानराकारवृत्ति: ।
त्वदानन्दलीलाकथापूर्णकर्णा: सदानन्दरूपा भवन्तीह लोके ।।5।।
अहं मानपानाभिमत्तप्रमत्तो न वेदाखिलेशाभिमानाभिमान: ।
इदानीं भवत्पादपद्मप्रसादात् त्रिलोकाधिपत्याभिमानो विनष्ट: ।।6।।
स्फुरद्रत्नकेयूरहाराभिरामं धराभारभूतासुरानीकदावम् ।
शरच्चन्द्रवक्त्रं लसप्तद्मनेत्रं दुरावारपारं भजे राघवेशम् ।।7।।
सुराधीशनीलाभ्रनीलांगकान्तिं विराधादिरक्षोवधाल्लोकशान्तिम् ।
किरीटादिशोभं पुरारातिलाभं भजे रामचन्द्रं रघूणामधीशम् ।।8।।
लसच्चन्द्रकोटिप्रकाशादिपीठे समासीनमंके समाधाय सीताम् ।
स्फुरद्धेमवर्णां तडित्पुञ्जभासां भजे रामचन्द्रं निवृत्तार्तितन्द्रम् ।।9।।
।। इति इंद्रकृत श्रीराम स्तोत्र संपूर्णम् ।।
इंद्रकृत श्रीराम स्तोत्र हिंदी अर्थ के साथ (Indrakrit Shri Ram Stotra with Hindi meaning):
इन्द्र उवाच
भजेऽहं सदा राममिन्दीवराभं भवारण्यदावानलाभाभिधानम् ।
भवानीहृदा भावितानन्दरूपं भवाभावहेतुं भवादिप्रपन्नम्।।१।।
इन्द्र कहते हैं— मैं उन भगवान श्रीराम की सदा आराधना करता हूँ, जो नीलकमल के समान श्यामवर्ण हैं, जिनका नाम संसार रूपी वन के लिए दावानल के समान है, जिनकी आनंदमयी छवि का माता पार्वती हृदय में ध्यान करती हैं, जो जन्म-मरण रूपी संसार से मुक्त करने वाले हैं और जो शिवादि देवों के भी परम आश्रय हैं।
सुरानीकदुःखौघनाशैकहेतुं नराकारदेहं निराकारमीड्यम्।
परेशं परानन्दरूपं वरेण्यं हरिं राममीशं भजे भारनाशम्।।२।।
जो समस्त देवताओं की पीड़ा का नाश करने वाले हैं, जो नर रूप में प्रकट हुए लेकिन वास्तव में निराकार परब्रह्म हैं, जो परमेश्वर, परमानंदस्वरूप, वंदनीय एवं जगत के भार को दूर करने वाले हैं— उन भगवान श्रीराम को मैं नमन करता हूँ।
प्रपन्नाखिलानन्ददोहं प्रपन्नं प्रपन्नार्तिनिःशेषनाशाभिधानम्।
तपोयोगयोगीशभावाभिभाव्यं कपीशादिमित्रं भजे राममित्रम्।।३।।
जो अपने शरणागत भक्तों को अखंड आनंद प्रदान करने वाले हैं, जिनका नाम मात्र ही शरणागतों के समस्त दुखों का अंत करने वाला है, जिनका ध्यान महान योगी एवं तपस्वी भी करते हैं, जो सुग्रीव आदि के सखा हैं— उन भगवान श्रीराम को मैं प्रणाम करता हूँ।
सदा भोगभाजां सुदूरे विभान्तं सदा योगभाजामदूरे विभान्तम्।
चिदानन्दकन्दं सदा राघवेशं विदेहात्मजानन्दरूपं प्रपद्ये।।४।।
जो भोग-विलास में लिप्त लोगों से सदा दूर रहते हैं, लेकिन योगियों के सदा समीप रहते हैं, जो चिदानंदस्वरूप हैं, जो रघुकुल के स्वामी हैं और जिनका स्वरूप माता सीता के लिए परम आनंदमय है— ऐसे श्रीराम की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।
महायोगमायाविशेषानुयुक्तो विभासीश लीलानराकारवृत्तिः।
त्वदानन्दलीलाकथापूर्णकर्णाः सदानन्दरूपा भवन्तीह लोके।।५।।
हे प्रभु! आप अपनी महान योगमाया से युक्त होकर लीलामय नर रूप में प्रकट हुए हैं। जिनके कान आपकी आनंदमयी लीलाओं के कथा-सागर से तृप्त होते हैं, वे संसार में सदा आनंदमय रहते हैं।
अहं मानपानाभिमत्तप्रमत्तो न वेदाखिलेशाभिमानाभिमानः।
इदानीं भवत्पादपद्मप्रसादात् त्रिलोकाधिपत्याभिमानोविनष्टः।।६।।
हे प्रभु! मैं पहले अहंकार और ऐश्वर्य के मद में चूर था और अपने अभिमान के कारण समस्त जगत को तुच्छ समझता था। लेकिन अब आपके चरणकमलों की कृपा से मेरा त्रिलोकाधिपति होने का अहंकार पूर्णतः नष्ट हो गया है।
स्फुरद्रत्नकेयूरहाराभिरामं धराभारभूतासुरानीकदावम्।
शरच्चन्द्रवक्त्रं लसत्पद्मनेत्रं दुरावारपारं भजे राघवेशम्।।७।।
जो चमचमाते रत्नों से जटित केयूर (बाजूबंद) और आभूषणों से विभूषित हैं, जो पृथ्वी के भारस्वरूप दुष्ट असुरों के संहार के लिए अग्नि के समान हैं, जिनका मुख शरदकालीन चंद्रमा के समान कांतिमय है और जिनकी सुंदर कमल समान आँखें हैं— उन भगवान रघुनाथ को मैं भजता हूँ।
सुराधीशनीलाभ्रनीलाङ्गकान्तिं विराधादिरक्षोवधाल्लोकशान्तिम्।
किरीटादिशोभं पुरारातिलाभं भजे रामचन्द्रं रघूणामधीशम्।।८।।
जिनका शरीर नीलमणि एवं मेघ के समान कान्तिवान है, जिन्होंने विराध आदि राक्षसों का वध कर लोकों में शांति स्थापित की, जो स्वर्णमुकुट एवं आभूषणों से सुशोभित हैं, जो महादेवजी के भी परम प्रिय हैं और जो समस्त रघुवंशी राजाओं के स्वामी हैं— उन श्रीरामचन्द्र को मैं नमन करता हूँ।
लसच्चन्द्रकोटिप्रकाशादिपीठे समासीनमङ्के समाधाय सीताम्।
स्फुरद्धेमवर्णां तडित्पुञ्जभासां भजे रामचन्द्रं निवृत्तार्तितन्द्रम्।।९।।
जो करोड़ों चंद्रमाओं के समान प्रकाशमान राजसिंहासन पर आसीन हैं, जो अपनी गोद में माता जानकी को विराजमान किए हुए हैं, जिनका तेजोमय स्वरूप स्वर्ण के समान कांतिमान एवं विद्युत की चमक के समान दीप्तिमान है, जो समस्त दुखों और थकावट से मुक्त हैं— उन भगवान श्रीरामचन्द्र को मैं भजता हूँ।